पंथ के मायने क्या- सिखों का सिर्फ समूह या वो मार्ग जिस पर सिखों को चलना है?
सिख धर्म से बेदखल प्रोफेसर से जब मिला एक सिख पत्रकार
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गुरु साहेबान ने अपने पूरे जीवन काल में विद्वता और बौद्धिक विकास से जुड़े पहलुओं पर बल दिया. श्री गुरु ग्रंथ साहिब में ना सिर्फ 10 में से 6 गुरु साहेबान की बाणी है बल्कि विभिन्न परम्पराओं और क्षेत्रों से जुड़े दार्शनिक और विचारकों के बोलों को भी संकलित किया गया है. गुरु गोबिंद सिंह जी के दरबार में 52 कवि-विद्वानों का अपना विशेष स्थान था.
संवाद की प्रासंगिकता
गुरु नानक ने विभिन्न सभ्यताओं के साथ संवाद की अनूठी परम्परा शुरू की. इसके लिए गुरु साहेब ने उपमहाद्वीप के करीब करीब सभी हिस्सों के अलावा पश्चिम में बगदाद और मक्का तक की यात्रा की. गुरु साहेब ने ब्राह्मणों, योगियों, सिद्ध पुरुषों और इस्लामी पीरों के साथ संवाद स्थापित किया. इसी के साथ उन्होंने शासकों और आम आदमी के साथ भी बातचीत का माध्यम कायम किया.
लोकतंत्र आने के पहले की दुनिया धर्म, जाति और नस्ल के भेदभाव से बुरी तरह बंटी हुई थी. गुरु नानक ने उस दौर में सभी को संवाद के जरिए मानवता के एकसूत्र में जोड़ा. इस महान विरासत के वाहकों के रूप में सिखों से अपेक्षित है कि वे संवाद की गौरवशाली परंपरा को आगे बढ़ाएं. लेकिन सिख समुदाय की धार्मिक कमान आज जिन राजनीतिक हाथों में है, वो सवालों के घेरे में है. ये एक विडंबना ही है.
बता दें कि शिरोमणि अकाली दल के हाथों में शिरोमणि गुरद्वारा प्रबंधक कमेटी (एसजीपीसी) और दिल्ली सिख गुरद्वारा प्रबंधक कमेटी (डीएसजीएमसी) का नियंत्रण है. आलोचकों का शिरोमणि अकाली दल पर आरोप है कि धार्मिक सुधारों की दिशा में संवाद के लिए जब भी आवश्यकता जताई जाती है तो वो उसे बड़े रणनीतिक ढंग से दबा देता है.
2009 का अकाल तख्त का आदेश जिसमें प्रो. दर्शन सिंह को तनखैया घोषित किया गया
बीते 8 वर्षों में दो ऐसे महत्वपूर्ण निर्णय सिखों के सर्वोच्च प्राधिकारी श्री अकाल तख्त ने लिए जिससे पूरे समुदाय में एक हलचल मच गई. याद रहे कि श्री अकाल तख्त के जत्थेदार की नियुक्ति शिरोमणि अकाली दल की ओर से संचालित एसजीपीसी करती है. 2009 में श्री अकाल तख्त के जत्थेदार की अगुआई में एक आदेश जारी किया गया, जिसमें अकाल तख्त के पूर्व जत्थेदार और सिख समुदाय के जाने माने विद्वान प्रो. दर्शन सिंह को तनखैया (धर्म से बेदखल) घोषित किया गया. उन पर आरोप लगा कि उन्होंने न्यूयॉर्क के एक गुरद्वारे में गुरु गोबिंद सिंह जी के लिए अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल किया. प्रो. दर्शन सिंह ने इस आरोप को सिरे से खारिज किया. उनका कहना है कि उनका विरोध दसम ग्रंथ पर केंद्रित है जिसके बहुत सारे हिस्से उनके अनुसार गुरु साहेब की बाणी नहीं हो सकते.
2015 में श्री अकाल तख्त ने सिरसा के डेरे के कर्ताधर्ता गुरमीत राम रहीम सिंह को दसम गुरु की पोशाक की नकल के आरोप से बरी कर दिया. इस फैसले पर सिखों में तीखी प्रतिक्रिया हुई तो फैसले को वापस ले लिया गया. लेकिन तब तक श्री अकाल तख्त के जत्थेदार की साख गंभीर सवालों के घेरे में आ गई थी. अकालियों पर ये आरोप लगा कि उन्होंने राजनैतिक फायदे के लिए श्री अकाल तख्त के जत्थेदार का इस्तेमाल किया. आलोचकों का कहना है कि ये सब राम रहीम से जुड़े समर्थकों के वोटों की खातिर किया गया.
क्या कहते हैं ‘तनखैया’ प्रोफेसर?
प्रो. दर्शन सिंह अब अमेरिकी नागरिक हैं जो कनाडा में रहते हैं. श्री अकाल तख्त की ओर से 8 साल पूर्व तनखैया घोषित किए गए प्रो. दर्शन सिंह की वक्ता के तौर पर लोकप्रियता में खास बदलाव नहीं आया है. उन्हें सुनने के लिए उनके प्रशंसक आज भी अमेरिका, यूरोप, भारत और अन्य देशों में आतुर रहते हैं. यही वजह है कि उन्हें धार्मिक समागमों में शामिल होने के लिए तमाम जगह से निमंत्रण मिलते रहते हैं.
ये रिपोर्टर सिख होने के साथ-साथ साहित्य का एक छात्र भी रहा है. इस वजह से जेहन में कई सवाल उमड़ रहे थे. हाल में प्रो. दर्शन सिंह दिल्ली पहुंचे तो रिपोर्टर उऩसे मिला. मकसद पंथ की दशा और दिशा पर प्रो. दर्शन सिंह के विचार जानना था.
इंडिया टुडे टीवी के एडिटर हरमित शाह सिंह अकाल तख्त के पूर्व जत्थेदार दर्शन सिंह के साथ
पंथ: समुदाय या मार्ग?
पंथ की दशा और दिशा पर सवाल सुनकर प्रो. दर्शन सिंह ने ठंडी सांस ली और कहा, 'सबसे पहले हमें जानना चाहिए कि पंथ के मायने क्या हैं? श्री गुरु ग्रंथ साहिब में पंथ शब्द का उल्लेख 60-62 बार हुआ है. परन्तु कहीं पर भी उसका अर्थ समूह या लोगों का जमावड़ा नहीं है. उसका अर्थ है मार्ग, गुरु का मार्ग. और उस पर चलने वालो को पंथक यानि यात्री कहते हैं.' प्रो. दर्शन सिंह ने ये कहने के बाद एक छोटी सी पुस्तिका निकाली. ये पुस्तक एसजीपीसी द्वारा मान्यता प्राप्त ‘सिख रैहत मर्यादा’ का संकलन था. ये मर्यादा 1940 के दशक में स्वीकृत की गई थी. इसके मुताबिक गुरु पंथ के मायने ‘सिखों का समूह’ है. मर्यादा के इसी मायने को प्रो. दर्शन सिंह के मुताबिक निहित स्वार्थों ने धार्मिक और राजनीतिक वर्चस्व को कायम रखने के लिए मन-माफिक ढंग से वक्त-वक्त पर इस्तेमाल किया.
कोई भी दृष्टिकोण पत्थर की लकीर नहीं
प्रो. दर्शन सिंह की दलीलों को लेकर दो राय हो सकती है. उनकी जो राय है उसमें गहराई हो सकती है. और ये भी हो सकता है कि आठ दशक पूर्व की जिस मर्यादा का वो हवाला दे रहे हैं, उस वक्त के हिसाब से इसके पीछे एसजीपीसी का मकसद उसमें सिखों की धार्मिक और राजनीतिक पहचान को मजबूत करना रहा हो.
बहरहाल, कुछ भी हो लेकिन धार्मिक सुधार की दिशा में कोई संवाद की मांग उठती है तो उसे स्वीकार करना चाहिए. ना कि साम-दाम-दंड-भेद तरीके अपनाकर उस आवाज का गला घोंट देना चाहिए. क्या संवाद के माथे पर तनखैया का ठप्पा लगाना जायज है?
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