अमेरिका-चीन की भयावह ट्रेड वॉर में पिसता भारत
दो देशों की लड़ाई में तीसरे को कैसे होता है भारी नुकसान, इसका जीता-जागता उदाहरण आपकी आंखों के सामने है. अमेरिका और चीन के बीच अचानक शुरू हुए ट्रेड वॉर ने दुनियाभर में हलचल मचा दी है.
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विश्व की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएं और शक्तिशाली देश अमेरिका और चीन के बीच अचानक शुरू हुए ट्रेड वॉर ने दुनियाभर में हलचल मचा दी है. इस वैश्विक तनाव से भारत सहित दुनिया भर के बाजारों में भारी बिकवाली का दबाव देखा गया. अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने चीन से आयात होने वाले आयात पर सलाना 60 अरब डॉलर मूल्य का शुल्क लगाया है. इसके जवाब में चीन ने 128 अमेरिकी उत्पादों पर शुल्क लगाने की योजना की घोषणा की है. माना जा रहा है कि चीन के इस कदम से अमेरिका से आ रहे 300 करोड़ डॉलर मूल्य के सामानों पर आयात शुल्क में वृद्धि हो जाएगी. इस कदम से एशिया, यूरोप और अमेरिका के बाजारों में लगभग 4 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई. 50 ब्ल्यूचिप कंपनियों का सूचकांक 9 अक्टूबर 2017 के बाद पहली बार 23 मार्च 2018 को 10,000 अंक से नीचे पहुंच गया.
ट्रंप ने अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि को चीन से होने वाले करीब 5 हजार करोड़ अमेरिकी डॉलर के आयात पर शुल्क लगाने का निर्देश दिया था. अमेरिका ने चीन से होने वाले आयात की 7 माह तक चली जांच के बाद यह फैसला लिया, जो बौद्धिक संपदा की चोरी को लेकर था. यह मसला अमेरिका और चीन के बीच लंबे विवाद का विषय बना हुआ है. वहीं दूसरी ओर अमेरिका ने यूरोपीय यूनियन समेत अर्जेंटीना, आस्ट्रेलिया, ब्राजील, कनाडा, मैक्सिको और दक्षिण कोरिया को अपने आयात शुल्क के दायरे से पहली मई तक के लिए बाहर कर दिया.
चीन के वाणिज्य मंत्रालय के बयान के अनुसार न केवल 128 अमेरिकी उत्पादों से शुल्क रियायतें हटाई जाएंगी, अपितु इन उपायों में फल, अखरोट, वाइन और इस्पात समेत अन्य उत्पादों पर 15 प्रतिशत शुल्क एवं सुअर के मांस तथा पुनरावर्तित एल्युमीनियम उत्पादों पर 25% शुल्क शामिल होगा.
चीन के अनुसार ये उपाय दो चरणों में लागू किए जाएंगे. यदि दोनों देश तय समय सीमा के भीतर व्यापार से जुड़े मामलों पर समझौता नहीं करते हैं तो पहले चरण में 15% शुल्क लगाया जाएगा. वहीं दूसरे चरण में, अमेरिकी नीतियों के प्रभाव मूल्यांकन करने के बाद 25% आयात शुल्क लगाया जाएगा. चीन का यह कदम अमेरिका के उस निर्णय का पलटवार माना जा रहा है, जिसमें उसने इस्पात आयात पर 25% तथा एल्युमिनियम आयात पर 10% का शुल्क लगाया है.
वहीं अब रूस भी अमेरिका से आयातित सामानों की सूची तैयार कर रहा है,जिससे अमेरिकी शुल्क के जवाब में उन उत्पादों पर प्रतिबंध लगाया जा सकें. इस तरह अब वैश्विक व्यापार युद्ध की पूरी पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी है. ऐसे में सबसे बड़ा सवाल है कि चीन और अमेरिका के बीच ट्रेड वार का भारत पर क्या प्रभाव होगा?
चीन और अमेरिका ट्रेड वॉर का भारत पर प्रभाव यह विडंबना ही है कि अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप स्टील और एल्यूमीनियम पर शुल्क लगाकर जिस देश को सबसे अधिक नुकसान पहुंचाने वाले हैं, वह अमेरिका ही है. अमेरिका में इतनी क्षमता नहीं है कि वह अपनी धातु की मांग स्वयं पूरा कर सके. उस पैमाने पर उत्पादन बढ़ाने में उसे कई वर्ष लगेंगे. अमेरिकी स्टील उद्योग में 1.40 लाख कामगार हैं, जबकि स्टील की खपत वाले उद्योगों में 65 लाख श्रमिक हैं. यही हालत एल्युमीनियम पर भी लागू होती है. बहरहाल, तथ्य यह है कि अमेरिका ने खुद को नुकसान पहुंचा लिया है, जबकि भारत इससे बचा रहेगा. भारत बहुत अधिक स्टील या एल्युमीनियम निर्यात नहीं करता. अमेरिका के स्टील और एल्युमीनियम निर्यात में भारत की हिस्सेदारी क्रमशः 2% तथा 1% है. परंतु इतने भर से भारत को पूरी राहत नहीं मिलती है, क्योंकि भारत वैश्विक निर्यात में अच्छी खासी भागीदारी रखता है. वर्ष 2016-17 में जब कुल निर्यात 5% बढ़ा तो लोहे और स्टील का निर्यात 58% उछला था, वहीं एल्युमीनियम एवं संबद्ध वस्तुओं का निर्यात 23% बढ़ा था.
अमेरिका और चीन के बीच चल रही वैश्विक कारोबारी जंग से भारत से होने वाले निर्यात पर असर पड़ सकता है. इस तनाव से मांग में गिरावट और ज्यादा लागत से कीमतें तेज हो सकती हैं. शुल्क लगाने की जंग ऐसे समय में छिड़ी है, जबकि वैश्विक अर्थव्यवस्था अभी मंदी के दौर से बाहर निकल रही थी. इस कारोबारी जंग की वजह से अगर वैश्विक कारोबार की मात्रा कम होती है, तो इसका असर हमारे निर्यात पर पड़ना तय है. वित्त वर्ष 2018-19 में निर्यात में दो अंकों की वद्धि दर का अनुमान लगाया गया है, जो संभवतः अब न हो पाए.
अमेरिकी संरक्षणवादी नीतियों के चलते वैश्विक बाजार का आकार घटेगा और उत्पादक देशों के बीच प्रतिस्पर्धा में इजाफा होगा. इससे न केवल निर्यात के आकार में कमी आने की आशंका है बल्कि मुनाफे में भी कमी आएगी. स्पष्ट है कि व्यापक घरेलू खपत वाले देश बेहतर स्थिति में रहेंगे. अमेरिका के निशाने पर भले ही चीन हो, लेकिन उसकी घरेलू खपत भारत की तुलना में बहुत अधिक है. इसके अलावा अगर मौजूदा कारोबारी जंग से झटके जारी रहे तो यह उम्मीद है कि अन्य द्वितीयक बाजार प्रभावित होंगे, जिनका इन दोनों देशों से बड़ा कारोबारी संपर्क है. वैश्विक जीडीपी 75.3 लाख करोड़ डॉलर की है और इसमें अमेरिका और चीन की भागीदारी क्रमशः 19.4 लाख करोड़ डॉलर और 11.9 लाख डॉलर है.
विशेषज्ञों ने यह भी चेतावनी दी है कि कारोबारी जंग के बाद मुद्रा में उतार-चढ़ाव होता है. अमेरिकी आर्थिक नीति में मौजूदा बदलाव से जुड़ी दो बातें ऐसी हैं कि जो शायद मुद्रा बाजार को पसंद न आएं. पहली बात, हाल ही में कर कटौती की घोषणा की गई, जो बजट घाटे में इजाफा करती है. अगले कुछ वर्षों में बजट घाटा एक लाख करोड़ डॉलर तक पहुंच सकता है. दूसरी बात का संबंध आयात शुल्क से है. आयात शुल्क बढ़ाने की घोषणा का असर डॉलर और शेयर बाजार पर हुआ और वहां जमकर बिकवाली हुई. ऐसे में मौजूदा माहौल डॉलर के लिए नकारात्मक है.
अब प्रश्न उठता है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? राजकोषीय विस्तार और संरक्षणवाद,इन दोनों के चलते चालू खाते पर दबाव बढ़ता है. संरक्षणवाद आयात की लागत बढ़कर इसमें मदद करता है. यह अमेरिका को दोहरे घाटे की जटिल समस्या में उलझा देगा. चीन जो कि अमेरिका की सरकारी बॉन्ड का सबसे बड़ा खरीददार है, वह अगर प्रतिरोध स्वरूप अतिरिक्त खरीद के बजाए अमेरिकी बॉन्ड की बिकवाली शुरु कर देता है तो जो असंतुलन उत्पन्न होगा, उसकी भरपाई करना खासा मुश्किल हो जाएगा. एक संभावना यह नजर आती है कि अमेरिकी ब्याज दरों में तेजी से इजाफा हो जबकि डॉलर की कीमत कम हो.
डॉलर की कीमतों में गिरावट का अर्थ होगा रुपए में मजबूती आना. बढ़ता संरक्षणवाद पहले ही विश्व व्यापार पर नकारात्मक असर डाल रहा है, ऐसे में रुपए की मजबूती को कतई अच्छा नहीं माना जा सकता. पिछले एक साल से भारतीय रुपए में स्थिरता बनी हुई है और उम्मीद की जा रही है कि दीर्घावधि के हिसाब से इसमें स्थिरता बनी रहेगी, क्योंकि निवेशक अर्थव्यवस्था में धन लगा रहे हैं. भारत पर निवेशकों के भरोसे का असर है कि ट्रंप द्वारा चीन पर शुल्क लगाए जाने के एक दिन बाद रूपया प्रति अमेरिका डॉलर 65.01 पर बंद हुआ. कुल मिलाकर रुपया और मजबूत होने की उम्मीद है और इससे भारत का निर्यात और महंगा हो जाएगा. इससे भारत का निर्यात अप्रतिस्पर्धी होने का डर है. रुपया और चीनी युआन के अलावा अन्य प्रतिस्पर्धी देशों की मुद्राओं में गिरावट की उम्मीद है.
इस बात की काफी संभावना है कि अमेरिका शुल्क समाप्त कर दे या फिर वह ऐसी तमाम शर्त रखे जिनकी बदौलत वे निष्प्रभावी हो जाएं. हालिया इतिहास पर नजर डालें तो ऐसे संकेत नजर आने लगे हैं. स्टील पर लगने वाला शुल्क भी नया नहीं है. जॉर्ज डब्लू बुश के प्रशासन ने सन 2002 में स्टील टैरिफ लागू किया था. उसकी वजह से अर्थव्यवस्था को करीब 20,000 रोजगार गंवाने पड़े थे. इस कारण अगले ही वर्ष 2003 में यह शुल्क हटा लिया गया था.
भारत, अमेरिका के टॉप ट्रेडिंग पार्टनर्स में नहीं आता है. 1.9 फीसदी की व्यापार हिस्सेदारी के साथ वह इस मामले में 9 वें पायदान पर है. चीन-अमेरिका के कारोबारी रिश्तों में पलड़ा चीन की तरफ झुका हुआ है और अंतर करीब 375 डॉलर का है. अमेरिका चीन में 130.4 अरब डॉलर का निर्यात करता है तो चीन से 505.60 अरब डॉलर का आयात करता है. वहीं अमेरिका के साथ भारत का ट्रेड सरप्लस 22.9 अरब डॉलर है,जो बहुत अधिक नहीं है. इस संपूर्ण स्थिति में चीन अपना माल खपाने के लिए बाजार की तलाश करेगा और भारत में चीनी समान का आयात और ज्यादा बढ़ सकता है.
इस दृष्टि से देखें तो संरक्षणवादी कदम लागू करने और उनसे सकारात्मक परिणाम प्राप्त करने की अपनी एक सीमा है. सच तो यही है कि वैश्विक स्तर पर व्यापारिक युद्ध से किसी का भला नहीं होने वाला है. अगर हालात और बिगड़ने शुरू हुए और चीन के बाद यूरोपीय संघ ने भी अमेरिकी शुल्क वृद्धि का जोरदार प्रतिरोध किया तो भारत के लिए भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं रह जाएगी. ऐसे में भारत को वैश्विक व्यापार युद्ध को कम करने के लिए अहम भूमिका का निर्वहन करना चाहिए. यह जरूरी है कि विश्व व्यापार संगठन प्रक्रिया को जारी रखे और बहुपक्षीय संगठनों को और मजबूत बनाकर वैश्विक कारोबारी विवादों को निपटाया जाए और कानून आधारित वैश्विक व्यापार हो सके.
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