BREXIT: चीन के मिंग इतिहास का नया ब्रिटिश संस्करण
ब्रिटिश नेताओं ने एक बार फिर साबित कर दिया कि इतिहास से हम केवल यह सीखते हैं कि इतिहास से हम कुछ नहीं सीखते.
-
Total Shares
चीन का मिंग राजवंश पंद्रहवीं सदी तक दुनिया की बड़ी ताकत बन चुका था. उसका व्यापार दुनिया में दूर-दूर तक फैल रहा था. लेकिन तभी उसे और आगे बढ़ाने के बजाय मिंग के कर्ताधर्ताओं ने अपने जहाजों और व्यापारियों को उलटे पैर स्वदेश लौटने का हुक्म सुना दिया.
यह चीन की उन नीतियों की शुरुआत थी जो उसे दुनिया से काटकर अपने में सिकोड़ देने वाली थीं. यह नीतियां अठारहवीं सदी तक जारी रहीं. इतिहास हमें बताता है कि मिंग का यह हुक्म कंफ्यूशियस के फलसफे की तामील से आया था. यह फलसफा आत्मनिर्भरता और भौतिक संपदा से बचने को प्रोत्साफहित करता था. चीन मंगोलों और समुद्री लुटेरों के खिलाफ अपनी रक्षापंक्ति को भी मजबूत करना चाहता था. इसलिए भी उसने खुद को दुनिया से काट लिया.
दुनिया के फलक से अपने को समेटने के नतीजे अनुमान के मुताबिक ही हुए. चीन कूटनीति से लेकर प्रौद्योगिकी तक हर क्षेत्र में पिछड़ता चला गया. अपने विशाल आकार की बदौलत वह अब भी ताकतवर मुल्क था, मगर मिंग सम्राटों के इस फैसले ने चीन को उन तमाम सांस्कृतिक धाराओं से काट दिया जिन्हें कभी उसने खुद गले लगाया था.
आखिरकार 20वीं सदी के आखिर में ही चीन वैश्विक मुख्यधारा में लौट सका जब देंग श्याओपिंग ने वैश्वीकरण की दिशा में अपने देश की “दूसरे लांग मार्च” की शुरुआत की.
इस कहानी को हम ब्रिटेन के संदर्भ में नए सिरे से दोहरा सकते हैं. जो यूरोपीय संघ से अलग होने का जनमत संग्रह कर चुका है. हमें कंफ्यूशियस के फलसफे की जगह रुढि़वाद व उग्र-राष्ट्रवाद और मंगोलों के डर की जगह आप्रवासियों के खतरे को रखना होगा.
यूके ने ईयू से बाहर आने का फैसला किया |
मिंग राजवंश के फैसले को वैश्विक इतिहास में सबसे बडी राजनीतिक गलतियों के तौर पर दर्ज किया गया है. कोई अचरज नहीं कि इतिहास ब्रेक्जिट को भी यूनाइटेट किंगडम के लिए वहीं दर्जा दे जो मिंग के फैसले को चीन के संदर्भ में मिलता है.
ब्रिटिश नेताओं ने एक बार फिर साबित कर दिया कि इतिहास से हम केवल यह सीखते हैं कि इतिहास से हम कुछ नहीं सीखते.
24 जून को इतिहास बना है उसे नतीजों पर एक नजर डालिए. उसमें कई इतिहास निकलते नजर आएंगे.
स्कॉटलैंड ने (62 फीसदी के बहुमत से) यूरोपीय संघ में रहने के हक में वोट डाला और उत्तरी आयरलैंड ने भी (56 फीसदी बहुमत के साथ) “रिमेन” यानी बने रहने का साथ दिया. जबकि अकेला ब्रिटेन यूरोप परिवार से अलग होना चाहता है. इन जनमत संग्रह से यूनाइटेड किंगडम के टूटने की शुरुआत हो सकती है.
विडंबना यह है कि यूरोपीय संघ से अलगोझा ब्रिटेन की युवा आबादी के ज्यारदा पीड़ादायक होगा जिन्होंटने ब्रिटेन के अलग होने के खिलाफ बढ़-चढ़कर वोट दिया है. यूरोपीय संघ यूनाइटेड किंगडम का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार है. संघ से बाहर निकलना यूनाइटेड किंगडम को मंदी के गर्त में धकेल देगा. ब्रिटिश वित्ता मंत्री जॉर्ज ओस्बोर्न के आकलन के मुताबिक 2030 तक यूनाइटे किंगडम का जीडीपी यूरोपीय संघ में बने रहने पर जितना होता, अब उससे 6.2 फीसदी कम हो सकता है. ब्रिटिश सरकार ने अनुमान लगाया है कि ब्रेक्जिट की वजह से हर घर को साल भर में 4,300 पाउंड (6,000 डॉलर) का नुक्सान उठाना पड़ सकता है.
अगर ब्रिटेन यूरोपीय बाजारों तक अपनी पहुंच बनाए रखने के लिए यूरोपियन इकॉनोमिक एरिया (ईईए) की सदस्यता का विकल्प चुन भी लेता है, तब भी ओस्बोर्न के मुताबिक जीडीपी में 3.8 फीसदी के आसपास गिरावट आएगी. स्विटजरलैंड और कनाडा ने ईईए की सदस्य्ता का विकल्पी चुना है. जिससे उन्हें यूरोपीय संघ के कुछ बाजारों तक पहुंच हासिल है, लेकिन ज्यादातर सेवाओं के निर्यात की छूट नहीं है. इनमें वित्तीय सेवाएं भी शामिल हैं जो कि ब्रिटिश अर्थव्यवस्था की बुनियाद हैं. ब्रिटेन के भौंचक्के सियासतदानों को ब्रिटेन की तथाकथित आजादी के बाद वित्तीीय बाजारों के बर्ताव से कुछ सबक लेना चाहिए.
दुनिया भर के शेयर बाजारों ने ब्रेक्जिट की वजह से शुक्रवार (24 जून) को करीब 2 ट्रिलियन डॉलर गंवा दिए. ब्रिटिश बैंकों को शुक्रवार को 130 अरब डॉलर की चपत लगी. बार्क्लेज और लॉयड्स सरीखे वित्तीय दिग्गज 30 फीसदी नीचे आ गए. पाउंड स्टर्लिंग 1.35 डॉलर तक नीचे आ गया. यह उसके मूल्य में 10 फीसदी की कमी और सितंबर 1985 के बाद से डॉलर के बरअक्स उसकी सबसे निचली दर है. पाउंड की ढलान इस सप्ताूह की शुरुआत में जारी रही. यूरोपीय अर्थव्यवस्था से बाहर निकलने की शर्तों पर चर्चा के साथ ब्रिटेन की दिक्क तें और बढ़ेंगी.
ब्रेक्जिट के देखकर दुनिया ठगा महसूस कर रही है. ऐसे समय में जब आर्थिक एकीकरण और दुनिया की सियासत में आ रहे भूगर्भीय बदलावों को संभालने के लिए व्यावहारिक और दूरदर्शी अंतरराष्ट्रीय नेतृत्व की जरूरत है, तब ग्लोआबल नेता समझ बूझ से चुक गए लगते हैं.
हार्वर्ड के अर्थशास्त्री केनेथ रोजेफ ने सही ही कहा है कि यूरोपीय संघ को छोड़ने के पक्ष में यूके का वोट असल में ब्रिटिश लोकतंत्र की नाकामी है. संघ से बाहर निकलने के लिए बहुत ही बेतुके ढंग से नीची कसौटी तय की गई, जो अकेले सामान्य बहुमत पर टिकी थी. जनमत संग्रह में कुल 70 फीसदी लोग वोट देने बाहर निकले. इसका मतलब है कि “लीव” यानी छोड़ देने की मुहिम को कुल मतदाताओं में से केवल 36 फीसदी का समर्थन था. वह भी तब जब ब्रितानी संसद का बहुमत ब्रेक्जिट का समर्थन नहीं करता.
बहुमत के हाथों खराब फैसलों की मिसालें नई नहीं हैं. ब्रेक्जिट हमें बहुमत के वर्चस्व और उसके साथ अंधराष्ट्रवाद के खतरों से आगाह करता है. बहुमत का नजरिया तभी सही होता है उसके सामने सही सवाल रखे जाएं.
ब्रेक्जिट के फैसले के बाद उपजी बेचैनी और वित्तीरय अफरातफरी बताती है कि ब्रिटिश नेताओं ने अपने नागरिकों के सामने सटीक सवाल नहीं रखे. ब्रितानियों को अंदाज भी नहीं है कि उन्होंने क्या चुना है और उनकी जिंदगियों और भविष्य पर इस फैसले के क्या नतीजे होंगे.
अमेरिकी चीफ जस्टिस जॉन मार्शल ने एक बार कहा था: एक संतुलित गणराज्य और लोकतंत्र के बीच सिर्फ व्यवस्था और उथलपुथल का फर्क होता है. यूके ने संभवतः विवेकपूर्ण गणतंत्र के बजाय उथलपुथल से भरा (अंधदेशभक्त) लोकतंत्र चुन लिया है. जो विश्वत व्यापार और एकीकृत ग्लोलबल वित्तीय तंत्र से भारी कीमत वसूलेगा.
आपकी राय