सोने की चिडिया को ऐसे कंगाल किया विलायतियों ने..
जानी मानी अर्थशास्त्री उत्सा पटनायक ने एक रिसर्च पेपर में ये बात साफ कर दी है कि ब्रिटेन आखिर कितना पैसा भारत से चुराकर ले गया था.
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अंग्रेजों के जमाने की कहानियां तो आपने बहुत सुनी होंगी. लगभग 200 सालों के अपने राज में अंग्रेजों ने भारत को बेहिसाब दर्द दिए. सोने की चिड़िया कहलाने वाले देश को ऐसी स्थिति पर लाकर खड़ा कर दिया कि अब यहां की अर्थव्यवस्था को ठीक-ठीक बनाए रखने के लिए भी कर्ज लेने की नौबत आ जाती है. रुपए की कीमत गिर गई है जो ब्रिटिश राज में 4 रुपए 1 डॉलर था अब वो 70 पार कर चुका है. गाहे-बगाहे ये बातें सामने आ ही जाती हैं कि भारत से विदेशी लूट कर ले गए. शशी थरूर ने तो इसके लिए किताब भी लिखी 'The Inglorious Empire: What the British Did to India' लेकिन फिर भी कई सवाल खड़े रहे कि आखिर कितना पैसा लूटा गया? ब्रिटिश अफसरों की क्या वर्किंग टेक्नीक थी, उन्होंने क्या लूटा और क्या हुआ नतीजा?
इन सब बातों का जवाब कुछ हद तक अब मिल गया है. अब हमारे पास एक फिगर है कि आखिर कितना पैसा अंग्रेज हमारे देश से लूटकर ले गए. जानी मानी अर्थशास्त्री उत्सा पटनायक के ने हाल ही में एक रिसर्च पेपर लिखा है जिसे कोलंबिया यूनिवर्सिटी प्रेस ने पब्लिश किया है.
ब्रिटिश राज में भारतीयों को बहुत कम आर्थिक फायदा होता था
रिसर्च का आधार है दो शताब्दियों का डेटा. उत्सा पटनायक ने लगभग सभी पहलुओं की बारीकी से जांच की और ये निष्कर्ष निकाला कि अंग्रेज भारत से 45 ट्रिलियन डॉलर (लगभग 3,19,29,75,00,00,00,000.50 रुपए) की संपत्ती लूटकर ले गए. ये 1765 से 1938 के बीच हुई घटनाओं के आधार पर डेटा है.
45 ट्रिलियन डॉलर असल में इतना ज्यादा है कि ये यूनाइटेड किंगडम की जीडीपी से 17 गुना ज्यादा है.
कैसे मुमकिन हो पाया इतनी बड़ी रकम का बाहर जाना?
ये सब कुछ ट्रेड सिस्टम के आधार पर हुआ. औपनिवेशिक काल (colonial period) के पहले ब्रिटेन भारत से कई तरह का सामान खरीदा करता था इसमें कपड़े और चावल प्रमुख थे. भारतीय विक्रेताओं को अंग्रेजों की तरफ से कीमत भी उसी तरह से मिलती थी जिस तरह से अंग्रेज अन्य देशों में व्यापार करते थे यानी चांदी के रूप में. पर 1765 के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी के विकास के साथ ही भारतीय व्यापार पर उनका एकछत्र राज हो गया.
ईस्ट इंडिया कंपनी ने कई तरह के कर (टैक्स) लगाए. ये कर व्यापारियों पर लगाए गए और साथ ही साथ आम नागरिकों पर भी. इन करों का असर ये निकला कि कंपनी की आमदनी बढ़ गई. इसी आमदनी का एक तिहाई हिस्सा भारतीयों से सामान खरीदने पर खर्च कर दिया जाता था. यानी जो कर व्यापारी देते थे उसका एक हिस्सा उनसे सामान खरीदने के लिए ही खर्च कर दिया जाता था. यानी कि भारतीय सामान को विदेशी फ्री में इस्तेमाल करते थे. उसके लिए अपनी जेब से पैसा नहीं देते थे.
ये किसी स्कैम की तरह था. भारतीय व्यापारी इसके बारे में सोच भी नहीं सकते थे. क्योंकि जो एजेंट उनसे टैक्स लेने आता था वो कुछ खरीदता नहीं था और जो एजेंट सामान खरीदने आता था वो टैक्स नहीं लेता था. इससे पहले किसी भी रिसर्च रिपोर्ट में ब्रिटिश काल के कामकाज पर इतने गहरे तरीके से विश्लेषण नहीं किया गया था.
रिसर्च पेपर में लिखा है कि जो भी सामान भारत से लिया जाता था उसे सस्ते दामों पर व्यापारियों के टैक्स से पैसे से ही खरीदा जाता था. फिर उसे ब्रिटेन में इस्तेमाल किया जाता था और वहीं से बचा हुआ सामान बाकी देशों में एक्सपोर्ट कर दिया जाता था. यानी फ्री का सामान इस्तेमाल भी किया जाता था और बेचा भी जाता था.
निर्यात के कारण यूरोप के अन्य हिस्सों से ब्रिटेन में बहुत ज्यादा आय आने लगी. साथ ही ब्रिटेन के औद्योगिकरण के चलते लोहा, टार, इमारती लकड़ी आदि का उपयोग बहुत ज्यादा होता था. और एक तरह से देखा जाए तो ब्रिटेन के औद्योगिकरण में भारत से की गई चोरी का अहम हाथ है. अगर वो नहीं होती तो ब्रिटेन की तरक्की इतनी ज्यादा नहीं हो पाती.
सस्ते दाम पर खरीदे गए सामान को ज्यादा दामों में बेचकर ब्रिटेन ने न सिर्फ 100% प्रॉफिट कमाया बल्कि उसपर और भी ज्यादा रेवेन्यू कमाया. जब ब्रिटिश राज भारत में 1847 तक पूरी तरह से लागू हो गया उस समय नया टैक्स एंड बाय सिस्टम (tax-and-buy) लागू किया गया. ईस्ट इंडिया कंपनी का काम कम हो गया और भारतीय व्यापारी खुद एक्सपोर्ट करने के लिए तैयार हो गए, लेकिन उसपर भी ब्रिटिश राज ने ध्यान रखा कि जो आय और मुनाफा हो वो सीधे लंदन ही जाए.
कैसे भारतीय व्यापारियों का मुनाफा ब्रिटेन तक पहुंचा?
भारत से जो कोई भी विदेशी ट्रेड करना चाहता था उसे खास काउंसिल बिल का इस्तेमाल करना होता था. ये एक अलग पेपर करंसी होती थी जो सिर्फ ब्रिटिश क्राउन द्वारा ही ली जा सकती थी. और उन्हें लेने का एक मात्र तरीका था लंदन में सोने या चांदी द्वारा बिल लिए जाएं. जब भारतीय व्यापारियों के पास ये बिल जाते थे तो उन्हें इसे अंग्रेजी सरकार से कैश करवाना होता था. इन बिल्स को कैश करवाने पर उन्हें रुपयों में पेमेंट मिलती थी. ये वो पेमेंट होती थी जो उन्हीं के द्वारा दिए गए टैक्स द्वारा इकट्ठा की गई होती थी. यानी व्यापारियों का पैसा ही उन्हें वापस दिया जाता था. इसका मतलब बिना खर्च अंग्रेजी सरकार के पास सोना-चांदी भी आ जाता था और व्यापारियों को लगता था कि ये पैसा उनका कमाया हुआ है. ऐसे में लंदन में वो सारा सोना-चांदी इकट्ठा हो गया जो सीधे भारतीय व्यापारियों के पास आना चाहिए था.
इस पूरे करप्ट सिस्टम का असर ये हुआ कि भले ही पूरी दुनिया के सामने भारत बेहद अच्छा बिजनेस कर रहा था, और बेहद अच्छा मुनाफा कमाया था जो अगले 3 दशकों तक देश को चला सकता था. पर भारत के राजसी खजाने और वित्तीय कागजों में देश कंगाल हो रहा था. भारत की असली कमाई ब्रिटेन लूटकर ले जा रहा था.
इन्हीं खातों का हवाला देकर ब्रिटेन के लिए दिखाया जाता था कि भारत एक अतिरिक्त भार की तरह है, लेकिन अगर सच्चाई को देखें तो ये बिलकुल उलट है. भारतीय खजाने में कुछ न होने के कारण भारत के पास और कोई चारा नहीं था और उसे अपने आयातों के लिए ब्रिटेन से उधार लेना पड़ता था. पूरी भारतीय आबादी इसके कारण कर्जदार होती जा रही थी. जो पैसा ब्रिटेन ने भारत से चुराया उसे हिंसा के लिए इस्तेमाल किया. 1840 में चीनी घुसपैठ और 1857 में विद्रोह आंदोलन को दबाने का तरीका निकाला गया और उसका पैसा भी भारतीयों के द्वारा दिए गए कर से ही लिया गया. भारतीय रेवेन्यू से ही ब्रिटेन अन्य देशों से जंग का खर्च निकालता था.
जितना पैसा ब्रिटिश राज में भारत से चुराया गया अगर उतना विकास के लिए लगाया जाता तो भारत बहुत ज्यादा तरक्की कर सकता था
इतना ही नहीं, ब्रिटेन जो भी पैसा भारत से ले जाता था या जो भी सामान ले जाता था उसका इस्तेमाल अन्य देशों के विकास के लिए भी करता था जैसे कनाडा और ऑस्ट्रेलिया. ऐसे में न सिर्फ ब्रिटेन ने अपने औद्योगिकरण बल्कि कई देशों के विकास के लिए उस पैसे का इस्तेमाल किया जो भारत से चुराया गया था.
कैसे की गणना?
उत्सा पटनायक ने अपनी रिसर्च में भारतीय अर्थव्यवस्था के चार अहम पड़ाव पर गौर किया है. 1765 से 1938 के बीच में अलग-अलग तरह से भारत से पैसा लूटा गया. इसके बाद गणना की गई. जो अनुमान निकल कर आया उसपर 5% कर लगाया गया जिसे मार्केट रेट से कम ही माना गया. सभी आंकड़ों की बारीकी से जांच करने के बाद पटनायक इस नतीजे पर पहुंची कि ब्रिटेन ने कुल 190 सालों में 44.6 ट्रिलियन डॉलर चुराए.
इसमें वो कर्ज शामिल नहीं है जो ब्रिटिश राज के दौरान भारत पर पड़ा था. ये बेहद दुखद आंकड़े हैं, लेकिन इसमें भी अभी कर्ज जोड़ा नहीं गया है और ब्रिटेन ने भारत की कितनी संपत्ती लूटी इसका कोई आंकलन ठीक तौर पर नहीं किया जा सकता है. अगर इस पूरे पैसे को भारत अपने विकास में लगाता और जिस कर को ब्रिटेन को दिया गया उसे भारत में ही लगाया जाता जैसा कि जापान ने किया है तो यकीन मानिए इतिहास में हम सबसे ताकतवर देशों की श्रेणी में आते. भारत एक अर्थव्यवस्था मुगल बन सकता था और सदियों की गरीबी दूर हो सकती थी.
इस पूरे मामले को दबाने की भी बहुत कोशिश की गई. एक कट्टरपंथी इतिहासकार नाएल फर्गसन (Niall Ferguson) का कहना है कि ब्रिटेन ने भारत को विकास की ओर अग्रसर किया और इतना ही नहीं ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री डेविड कैमरून कहते हैं कि ब्रिटिश रूल ने भारत की मदद ही की है. यहां तक कि 2014 में किए गए YouGov poll के अनुसार 50 प्रतिशत ब्रिटिश लोग मानते हैं कि ब्रिटेन का राज भारत के लिए बेहतर था.
फिर भी इस तथ्य का जवाब किसी के पास नहीं है कि 200 साल के ब्रिटिश राज में भारत की आय में बढ़त क्यों नहीं हो सकी. यहां तक कि 19वीं शताब्दी के अंतिम पड़ाव में तो भारत की आय पहले से भी आधी हो गई. यहां तक कि लाखों भारतीयों की जान भी पॉलिसी में बदलाव के बाद आए आकाल से हुई थी.
ब्रिटेन ने भारत का नहीं भारत ने ब्रिटेन का विकास किया-
जिस तरह से पटनायक का काम दिख रहा है वो बताता है कि ब्रिटेन ने भारत को नहीं बल्कि भारत ने ब्रिटेन को दिए गए पैसे से उसका विकास किया है. इस हिसाब से तो अभी ब्रिटेन को माफी मांगनी चाहिए भारत से लेकिन इसका उल्टा वहां के लोग तो ये मानते हैं कि ब्रिटिश न होते तो भारत का विकास ही नहीं हो पाता.
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