व्यंग्य: वात्स्यायन भी पोर्न देख रहे हैं... नेपाल में
संस्कृति को न तो कामसूत्र से कोई नुकसान हुआ है, न लुग्दी और अश्लील साहित्य से और न पोर्न उसका कुछ बिगाड़ पाएगी. संस्कृति खून में होती है... सेक्स में नहीं कि बह जाएगी या बहक जाएगी.
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मन उब सा गया था. जीने का कोई सहारा दिख नहीं रहा था. तरह-तरह के ख्याल आ रहे थे मन में. मरने के. सबसे पहले. लेकिन क्यों? किसी दूसरे के किए पर मैं क्यों अपनी जान दूं. अपने जीवन और उससे भी बढ़कर जवानी को क्यों व्यर्थ करूं! यही सोच घर-परिवार सब छोड़ आया हूं. देश भी. ज्यादा दूर नहीं हूं, एकदम बगल में. आप भी आ सकते हैं. वीजा-पासपोर्ट का चक्कर नहीं और हां... कमाल की बात यहां पॉर्न भी देख सकते हैं.
मैं देख रहा हूं. दिल और दिमाग संगीतमय हो चला है. आत्महत्या और अब... इस परम 'सत्य' को छोड़ कौन मरना चाहेगा भला! वो भी तब जब इस परम 'सत्य' के जनक ही आपके पास बैठे हों. नहीं समझे. अरे भाई खुद महर्षि वात्स्यायन मेरे पास बैठे हैं. एकदम प्रत्यक्ष. पोर्न के समंदर में गोते लगा रहे हैं. दोस्तों के अलावा किसी गैर मर्द के साथ पहली बार पोर्न देख रहा हूं. लेकिन सब सहज है. अब इनसे क्या छिपाना, ये तो गुणी हैं. हमारी 'इच्छा' इनसे थोड़े न छिपी है. सबसे अच्छी बात कि हम दोनों खूब बातें भी कर रहे हैं - शिक्षाप्रद बातें. आप भी जानें, काम आएगी.
वात्सू चचा (उन्होंने मुझे इसी नाम से बुलाने को कहा), आप तो 2000-2200 साल पहले ही प्रेम-काम-संभोग-वासना पर ग्रंथ लिख चुके हैं. अंग्रेजों-फ्रांसीसियों ने दुनिया पर राज किया, लेकिन आपके 'ज्ञान' के बिना सब अधूरे हैं. पूर्ण होने के लिए कामसूत्र का अनुवाद करवाया. पढ़ लिया तो ऐसा चस्का लगा कि फिल्म तक बना डाली. ऐसे में आप जैसे गुणी का पोर्न देखना मेरी समझ से बाहर है.
महर्षि वात्स्यायन: दुनिया हमेशा अच्छी चीजों की कद्र करती है. हमें भी करना चाहिए. नहीं करेंगे तो पिछड़ जाएंगे. माना कि मैंने कामसूत्र लिखा. एक महान ग्रंथ. सबसे ऊपर. लेकिन कब तक मैं भी सिर्फ पढ़ता ही रहूंगा, वो भी अपनी ही चीज? क्या मुझे आगे बढ़ने का हक नहीं? चलचित्र का आविष्कार भले ही विदेशियों ने किया, पर देखने का कॉपीराइट सबके पास है. मेरे भी पास. पढ़ने से ज्यादा मुझे देखने में 'मजा' आता है. तो मैं देखता हूं. किसी बैन-वैन के चक्कर में मैं अपना 'मजा' क्यों किरकिरा करूं भला?
वात्सू चचा, लेकिन हम तो पढ़ के भी बड़े 'मजे' लेते थे. जिसे लोग लुग्दी और अश्लील साहित्य कहते हैं, हमने बचपन की 'जवानी' उसी से आबाद की थी. अब भी कभी-कभी पढ़ लेता हूं, उसका अलग ही 'मजा' है... एकदम सपनों-कल्पनाओं की दुनिया जैसा.
महर्षि वात्स्यायन: बेटा, इसे बोरियत का सिद्धांत कहते हैं. तुम्हें क्या लगता है, मैंने कामसूत्र में इतने आसनों की रचना कैसे और क्यों की? बोरियत का सिद्धांत पगले बोरियत का सिद्धांत... धीरे-धीरे सब समझ जाओगे.
वात्सू चचा, लेकिन वो तो कह रहे हैं कि पोर्न से संस्कृति का नाश हो जाएगा. क्या कामसूत्र के समय भी आपको ऐसे ही विरोध का सामना करना पड़ा था?
महर्षि वात्स्यायन: तब मानसिक रूप से दिवालिये लोग नहीं थे. जहां तक संस्कृति की बात है तो न ही उसे कामसूत्र से कोई नुकसान हुआ है, न लुग्दी और अश्लील साहित्य से और न पोर्न उसका कुछ बिगाड़ पाएगी. संस्कृति खून में होती है... सेक्स में नहीं कि बह जाएगी या बहक जाएगी.
धन्य हो गया वात्सू चचा, मैं धन्य हो गया !!!
(वैधानिक चेतावनी: इसे काल्पनिक समझने की गलती न करें. यह घटना मेरे ही साथ घटी है और महर्षि वात्स्यायन खुद इसके गवाह हैं. आप चाहें तो उनसे पूछ सकते हैं... बस आपको नेपाल आना होगा.)
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