स्वागत है बसंत: तस्वीरें इतनी कि भौरें बाग- खेत छोड़ फोन पर मंडराने लगे हैं!
शहर में हूं तो खेत खलिहान से तो सामना होने से रहा, लेकिन सोशल मीडिया पर बसंतोत्सव से लेकर मदनोत्सव तक की इतनी तस्वीरें चस्पा कर दी गई हैं कि भौरें भी बाग और खेत छोड़कर ससुरे फोन पर मंडराने लगे है.
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आप सब पंच लोगन को बसंत पंचमी की हार्दिक बधाई मिल गई होगी. देश के विभिन्न हिस्सों में खासकर उत्तर भारत और पड़ोसी देश नेपाल में यह दिन एक त्योहार है यानि शीत ऋतु की समाप्ति और बसंत ऋतु का आगमन. उफ़ुक़ लखनवी साहब ने क्या खूब लिखा है.
साक़ी कुछ आज तुझ को ख़बर है बसंत की
हर सू बहार पेश-ए-नज़र है बसंत की
सरसों जो फूल उट्ठी है चश्म-ए-क़यास में
फूले-फले शामिल हैं बसंती लिबास में
साहब आसपास के खेतों में पीली चुनरी ओढ़े मधुमास का स्वागत करते भ्रमर वृंद का नर्तन तो आपने देखा ही होगा. साथ ही ठंडक की मन्हूसियत को अब अलविदा बोलकर फागुन की उल्लास में डूबने का वक्त भी आ गया है. शहर में हूं तो खेत खलिहान से तो सामना होने से रहा. लेकिन साहब सोशल मीडिया पर बसंतोत्सव से लेकर मदनोत्सव तक की इतनी तस्वीरें चस्पा कर दी गई है कि भौरें भी बाग और खेत छोड़कर ससुरे फोन पर मंडराने लगे है. वैसे आज दीदी आंटी से लेकर भैया और अंटा जी लोग इतना पीला पीला फोटू इंस्टा से लेकर एफबी पर चेप दिए है कि अपनी आंख कई दिन तक बिना हल्दी की दाल खा ले.
बसंत की सबसे ज्यादा बहार तो सोशल मीडिया पर ही है
ख़ैर यह सब तो राजकाज है. दाल से याद आया घरैतिन है नहीं तो आज फिर बासंती रंग की खिचड़ी हम भी खाकर अपने पेट का बसंत मना ही ले. आज के दिन देवी सरस्वती की पूजा के अलावा होलिका दहन वाले स्थान पर रेड़ की डाल काट कर गाड़ी जाती है. शायद नई पीढ़ी को यह जानकारी न हो या हो सकता है कि आज कई लोगों ने देखा हो बाकायदा पूजन के साथ होलिका की स्थापना कर दी जाती है. साहब बचपन में हम सब जिस मोहल्ले में थे वहां स्कूल से लौटने के बाद इस कार्यक्रम में बढ़चढ़कर हिस्सा लेते थे.
अच्छा एक बात है मोहल्ले के वे बच्चे जो प्रायः नालायक माने जाते है ऐसे सांस्कृतिक और धार्मिक मौकों पर सबसे ज्यादा जिम्मेदार वे ही माने जाते हैं. कारण चंदा वसूली और अन्य कार्यक्रमों के कारण महीने डेढ़ महीने का रोजगार भी मिल जाता है. बहरहाल ये सब तो चलता है. चंदे और अनुदान पर तो सरकार तक चल जाती है यह तो छोटी मोटी सांस्कृतिक गतिविधि मात्र है. जाने भी दीजिए ...वैसे भी 'आई हेट पॉलिटिक्स.'
हां तो मैं यह कह रहा था कि आज की नई पीढ़ी अभी दो दिन पहले प्रेम दिवस मनाकर निवृत्त हुई है तो उसे बसंत का ज्यादा क्रेज़ नहीं होगा. लेकिन हम जैसे उम्रदराज जिनके दो आरज़ू वाले कट चुके है उनके लिए बसंत आज भी बसंत है. यानि ऋतुराज यानि मदनोत्सव. प्रख्यात हिंदी के कवि मंगलेश डबराल जी की इन पंक्तियों पर गौर करिए.
इन ढलानों पर वसन्त
आएगा हमारी स्मृति में
ठंड से मरी हुई इच्छाओं को फिर से जीवित करता.
सही बात है ठंड के बाद ही बसंत का आनंद है...उल्लास, उमंग है. समय के साथ लुप्त और परिवर्तित होती परम्पराओं और ढहती आस्थाओं के दौर में हम अपनी आंतरिक और बाह्य दोनों प्रकृति से दूर होते जा रहे है. व्यक्तिकता और निजता के कारण सामूहिकता के क्षरण ने बसंत के स्वागत के सामूहिक गान को दिल के कोने में बसी किसी मधुर गान की गुनगुनाहट में बदल दिया है.
जो बागों के फूल देख सकते है वे खेतों में लहलहाती गेंहू की बालियों, आम के बौर और सरसों के पीताम्बर से ढके खेत देखने से वंचित है और गांव जवार में जिन्हे इन सब को देखने का सुख नसीब है वे बागों का बसंत देखने के लिए वंचित है. विडंबना मानव जीवन का हिस्सा है. फ़िलहाल वही बात अब तो हर विडंबना को राजकाज की बात कह कर धीरे से कट लेने की आदत सी होती जा रही.
इन्हीं सब बातों के साथ आप सब को ऋतुराज के. आगमन की हार्दिक बधाई देते हुए उम्मीद करते है कि ईश्वर इस साल विश्व को तमाम मन्हूसियत से निज़ात दिलाए. वैसे ही पिछले साल सब ऋतुएं घर के कमरे में बैठे बैठे एक ही तरह से कटी है.
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