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Updated: 22 अक्टूबर, 2021 01:00 PM
देवेश त्रिपाठी
देवेश त्रिपाठी
  @devesh.r.tripathi
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अगर आप टीवी पर आने वाले विज्ञापन देखेंगे, तो आपको पता भी नहीं चलेगा कि भारतीयों के फेस्टिव सीजन पर 'मीठे' के नाम पर करोड़ों का बाजार बना दिया गया है. मतलब ये लाइन कहीं से भी मिठाई के नाम पर सीरियस होने के लिए कतई नहीं लिखी गई है. इसका उद्देश्य केवल इतना बताना है कि भारत में मनाए जाने वाले ज्यादातर त्योहारों में एक चीज जो सबसे ज्यादा कॉमन होती है वो है मिठाई. राम बसे वाले रमजान से लेकर अली वाली दिवाली तक लोगों से मिलने-मिलाने के बीच मिठाई ही एक ऐसी चीज है, जो लोगों के बीच लंबे समय से फेवीकॉल जैसा मजबूत जोड़ बनाए हुए हैं. कहने का मतलब ये है कि आमतौर पर किसी तीज-त्योहार में अपने किसी रिश्तेदार या करीबी के यहां जाने पर कुछ मीठा ले जाने की परंपरा शायद कई सदियों से चली आ रही है. लेकिन, इस परंपरा की आड़ में एक मिठाई के साथ जो दुर्व्यवहार हो रहा है, वो कहीं से भी सही नहीं कहा जा सकता है. हम बात कर रहे हैं सोन पापड़ी से लेकर पतीसा तक कही जाने वाली उस मिठाई की, जो अब हर त्योहार में एक हाथ से दूसरे हाथ के बीच में नाचती रहती है. भारत में एक बार फिर से फेस्टिव सीजन शुरू हो रहा है, तो इसके बीच 'सोन पापड़ी' का दर्द समझना बहुत जरूरी है.

Soan Papdiसोन पापड़ी को भारतीय अर्थव्यवस्था में चलने वाला 10 और 20 रुपये का नोट बना दिया गया है.

टीवी के विज्ञापन में दिखाये जाने वाले 300 रुपये के डिब्बे में 200 का आइटम निकलने पर जब से लोग चकड़ (दिमागदार) हुए हैं. तब से ही सोन पापड़ी के बुरे दिन शुरू हो गए. आसान शब्दों में कहा जाए, तो सोन पापड़ी को भारतीय अर्थव्यवस्था में चलने वाला 10 और 20 रुपये का नोट बना दिया गया है. जिसकी कीमत तो होती है, लेकिन कोई खास कदर नहीं होती है. 500 या 2000 रुपये के नोटों को कितनी बार बुरी हालत में देखा गया है? इन नोटों को सोना-सोन परी की तरह इज्जत मिलती है. लेकिन, 10 और 20 रुपये के नोटों और सोहन पापड़ी को एक ही तरह से ट्रीट किया जाता है.

मतलब, सोन पापड़ी के साथ ऐसा व्यवहार आखिर क्यों किया जाता है, ये सोचने का विषय है. रक्षाबंधन पर मिला सोन पापड़ी का डिब्बा लोगों के हाथ में तब तक नाचता रहता है, जब तक उसकी एक्सपायरी की डेट करीब नहीं आ जाती है. मतलब सोन पापड़ी का हाल तो ऐसा हो रखा है कि घर आए रिश्तेदारों को जाते समय दो डिब्बे जबरदस्ती ये सोचकर थमा दिए जाते हैं कि चलो हमारे यहां से बला टली. खैर, इस पर भी काम चला लिया जाता. लेकिन, कोरोना महामारी ने तो पूरा सिस्टम ही बिगाड़ दिया है. सोन पापड़ी को लेकर तो कुछ ऐसा माहौल है कि अगर कोई किसी को डिब्बा पकड़ा रहा हो, तो बैकग्राउंड में अपनेआप ही किशोर कुमार का 'मुसाफिर हूं यारों' वाला गाना बजने लगता है.

भारत को मेलों, उत्सवों और त्योहारों का देश कहा जाता है. इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि साल के 365 दिन त्योहारी मोड में रहने वाले भारतीयों के लिए कोरोना महामारी से जूझते हुए बीते करीब पौने दो साल किसी बुरे सपने से कम नहीं रहे हैं. कोरोना वायरस के चक्कर में पहले साल तो लोग त्योहारों पर रिश्तेदारों, दोस्तों और करीबियों से मिल नहीं पाए. और, जब खुलकर मिले, तो अंजाम कोरोना की दूसरी लहर के रूप में सामने आ गया. इसके बाद तो लोगों में कोरोना की दहशत इस कदर घर कर गई कि 135 करोड़ आबादी वाले भारत में अब जाकर कोरोना संक्रमण के मामले 20 हजार से भी कम आ रहे हैं. कहना गलत नहीं होगा कि इस कोरोना ने तो एक तरह सोन पापड़ी की किस्मत पर ताला ही जड़ दिया. पहले तो लोग त्योहार वगैरह पर देने के लिए खरीद भी लेते थे. लेकिन, बीते करीब डेढ़ साल से तो इसे कोई पूछ भी नहीं रहा है. मिठाई से लेकर शगुन तक की रकम पीएम नरेंद्र मोदी के डिजिटल इंडिया की बदौलत सीधे अकाउंट में गिर रही है. हालात ऐसे हैं कि सोन पापड़ी जो केवल लोगों के हाथों में नाचती रहती थी, लोगों ने अब उसके नाम में भी 'पाप' खोज लिया है. लोग कहने लगे हैं कि फेस्टिव सीजन पर सोन पापड़ी देना किसी पाप से कम नही है.

वैसे, ब्रेकअप में दर्द न मिले और त्योहारों में सोन पापड़ी न मिले, तो ब्रेकअप और त्योहार पूरे नहीं माने जाते हैं. होली से लेकर दिवाली के बीच में सोन पापड़ी के डिब्बे को एक्सपायरी डेट करीब आने तक इस हाथ से उस हाथ तक घुमाने की परंपरा बन गई है. एक्सपायरी डेट खत्म होने से पहले लोग इसे थक-हारकर खाने पर मजबूर हो जाते हैं. दिवाली को रोशनी और खुशी का पर्व कहा जाता है. कोरोना महामारी से झटका खाया हुआ भारतीय बाजार जैसे-तैसे खुद को खड़ा करने को तैयार हो गया है. फेस्टिव सीजन के मद्देनजर फिर से बाजार सजने लगे हैं. मिठाई की दुकानों में भी फिर से सोन पापड़ी की नई खेंप आ चुकी है. इस दिवाली के फेस्टिव सीजन पर फिर से सोन पापड़ी खरीदी जाएगी. और, परंपरा के अनुसार इस रिश्तेदार से उस करीबी और उस करीबी से इस दोस्त और इस दोस्त के उस पड़ोसी के बीच नाचती हुई आखिरकार एक्सपायरी डेट से पहले लोगों के पेट में पहुंच ही जाएगी.

वैसे, सोन पापड़ी जो लंबे समय से लोगों के हाथों में नाच रही है, उसने कभी किसी से अपना ये दर्द साझा नहीं किया. मुझे भी सोन पापड़ी के इस दर्द के ज्ञान नहीं हो पाता. अगर वर्क फ्रॉम होम खत्म होकर ऑफिस से बुलावा न आता. दरअसल, घर से निकलने से पहले सोन पापड़ी का एक डिब्बा ने माता जी और एक डिब्बा पत्नी ने प्रेमस्वरूप मेरे बैग में डाल दिये था. कपड़ों को व्यवस्थित करने के लिए आज जब वो बैग खोला, तो उसमें दिखे ये दो डिब्बे दीन-हीन दशा में आशा भरी निगाहों से बाहर की ओर झांक रहे थे. मैंने तुरंत बाहर निकाल कर पलटते हुए एक्सपायरी देखी और तय कर लिया कि इस दिवाली से पहले दोस्तों के साथ मिलकर इन्हें नियत स्थान यानी उदर तक पहुंचाना है. आसान शब्दों में कहें, तो सोन पापड़ी जैसे मुसाफिर का ठिकाना है, तो उसे वहीं पहुंचाएं. और, लोगों के हाथों में इधर से उधर नचाने वाली परंपरा को खत्म करें. वैसे, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 'अच्छे दिनों' का वादा किया है और 100 करोड़ लोगों के वैक्सीनेशन का आंकड़ा देखते हुए उम्मीद की जा सकती है कि सोन पापड़ी के भी अच्छे दिन आ ही जाएंगे. यहां तक पढ़ते हुए पहुंचने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद.

लेखक

देवेश त्रिपाठी देवेश त्रिपाठी @devesh.r.tripathi

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं. राजनीतिक और समसामयिक मुद्दों पर लिखने का शौक है.

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