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Updated: 18 फरवरी, 2018 04:27 PM
आनंद कुमार
आनंद कुमार
  @anandydr
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अगर आप सोच रहे हैं कि भला पकौड़े के व्यवसायी का, जेवर के व्यवसायी द्वारा किये गए घोटालों से क्या लेना देना तो आपको पकौड़ा विवाद को थोड़ा अन्दर घुस के देखना होगा. पकौड़े बेचने से मतलब स्वरोजगार था, लेकिन इसपर विवाद खड़ा करने वाला एक बड़ा वर्ग रोजगार नहीं नौकरी, वो भी सरकारी नौकरी ही करना चाहता है. ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए है क्योंकि, वो अधिकार तो सभी चाहता है, लेकिन उसे कर्तव्य एक भी नहीं चाहिए. जिम्मेदारी के बोझ से वो निकम्मा दूर रहना चाहता है.

इसमें समाजवाद बहुत मददगार है, वो सरकारी नौकरी अधिकार की तरह उपलब्ध करवाता है. लोअर कोर्ट का मजिस्ट्रेट, प्रोटोकॉल के हिसाब से कई बार डी.एम से नीचे का अधिकारी होता है. मान लीजिये निचली अदालत के किसी सरकारी नौकर (जज-मजिस्ट्रेट) ने मुझे किसी जुर्म में जेल की सजा दे दी और मुझे बंद कर दिया गया. बाद में अगर हाई कोर्ट उस फैसले को गलत बता कर मुझे रिहा कर दे तो क्या होगा? क्या निचली अदालत के किसी जज को गलत फैसला देकर एक बेक़सूर व्यक्ति को जेल में बंद करने की कोई सजा मिलेगी? बिलकुल नहीं मिलेगी, ऐसी कोई जवाबदेही नहीं होती.

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जिस पुलिस विभाग ने व्यक्ति को तथाकथित जुर्म में गिरफ्तार किया था क्या उसकी कोई जिम्मेदारी है? नहीं. उसे मुझे कोई मुआवजा नहीं देना होगा. तय समय सीमा में काम करवाने का कानून या सूचना के अधिकार जैसे हथकंडे इस्तेमाल किये बिना समाजवादी व्यवस्था में आप किसी पर कोई जिम्मेदारी नहीं डाल सकते. ट्रेन में पचास बेटिकट यात्रियों के पकड़े जाने पर ट्रेन टिकट एग्जामिनर को जुर्माना नहीं होता जबकि उसके काम ना करने की वजह से ही ऐसा हो पा रहा था. दिल्ली में हाल में ही कूड़े के ढेर के नीचे दब कर कुछ लोग मर गए थे, उसके लिए किसे जिम्मेदार माना गया? किसी की कोई जिम्मेदारी नहीं हो, ये समाजवादी कोढ़ में ही संभव है.

व्यक्ति को, सरकारी नौकरी भी इसीलिए चाहिए क्योंकि उसमें घुसना तो मुश्किल है, लेकिन एक बार प्रतियोगिता परीक्षा पार कर के अन्दर चले गए तो आपको बाहर करना बिलकुल नामुमकिन है. "सरकारी नौकरी ही चाहिए" के नाम पर लफ्फाजी परोसते सभी स्वनामधन्य ये अच्छी तरह जानते हैं. ये सभी लेखक-पत्रकार जैसे शब्दों से खेलने वाले पेशे में भी हैं तो वो आज की हिंदी में इस्तेमाल होने वाले शब्द, रोजगार का अर्थ, नौकरी कर देने की धूर्तता में भी जोर शोर से लगे हैं. 'अवार्ड वापसी' गिरोह के 77 में से सीधा 23% हिंदी पट्टी के ही थे. पुरस्कारों के वजन से कंधे झुकते तो हैं, मांगने के लिए भिखारियों की तरह हाथ भी फैलाना पड़ता है. आज 'रिवॉर्ड' लेंगे नहीं तो कल को 'अवार्ड' कहकर वापस क्या करेंगे?

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जिम्मेदारी तय ना होने के कारण ही जीप घोटाले के बाद भी रक्षा मंत्री वही विभाग संभालते रहे थे. जवाबदेही ना होने की ही वजह से बैंक मेनेजर एक फोन पर पैसे निकाल कर किसी को भी दे पाया. जवाबदेही किसी की नहीं इसलिए संसद में रिश्वत के नोटों के बंडल लहरा दिए जाते हैं और सरकार कैसे बनी कैसे गिरी कभी पता नहीं चलता. ये कोढ़ समाजवाद का है, जो ये तो कहता है कि अपने "हक़" की लड़ाई जारी रखो, लेकिन कोई "कर्त्तव्य" भी होते हैं, इसके बारे में चुप्पी साध लेता है. व्यक्तियों के मिलने से परिवार बनता है और परिवारों से समाज, समाज से राष्ट्र, ऐसा हम सब समाजशास्त्र में पढ़ चुके हैं.

एक से अधिक लोगों की सबसे छोटी इकाई देखें तो वो परिवार होता है.उसमें लोगों के कुछ अधिकार भी होते हैं, लेकिन उन अधिकारों को पाने के लिए उन्होंने कौन सा संघर्ष किया होता है? क्या नारेबाजी की, धरना-प्रदर्शन करना पड़ा था? नहीं बिलकुल भी नहीं! वो कर्तव्य पूरे कर रहे होते हैं इसलिए उनके पास वो अधिकार होते हैं. जैसे ही कर्तव्य पूरे करने बंद कर देंगे वो अधिकार भी धीरे धीरे गायब हो जाते हैं. परिवार का जो सदस्य रोज सब्जी खरीद कर लाता है, उसे जो नापसंद हो, वो सब्जी घर में बन भी गई, तो कोई दूसरा विकल्प सब्जी लाने वाले को परोसने के लिए तैयार रखा गया होगा. ना किया जाए ऐसा तो महामूर्खों के परिवार में ही होता होगा. 

भारत में एक "समाजवादी" कांग्रेस और दूसरे "समाजवादी" भाजपा अब बैंक घोटाले के मुद्दे पर आमने सामने हैं. किनारे किनारे से छुटभैये समाजवादी क्षेत्रीय राजनीतिज्ञ भी लगे हैं. ये बिलकुल वैसा है जैसे जोर के ढोल-नगाड़े और शोर से जिन्दा जलते इंसान की चीखें दबाई जाएं. इस समाजवाद के कोढ़ का विरोध मेरे ख़याल से सिर्फ एक बार हुआ था जब एक कोई "स्वतंत्रता पार्टी" जैसा राजनैतिक दल अस्तित्व में आया था. इंदिरा गांधी के कई चीज़ों (बैंक जैसे) के राष्ट्रीयकरण और उसके बाद वाली इमरजेंसी के दौरान ये दल लोकप्रिय भी हुआ था.

बाद में इसका विलय भाजपा में हो गया था. जब हम अपने देश में ऐसे पकौड़ा विवाद, बैंकिंग घोटाले जैसी चीज़ों के बारे में सुनते हैं तो हमें ये भी सोचना चाहिए कि क्या इनकी जड़ में कहीं जवाबदेही का तय ना होना भी है? हमें ये भी सोचना चाहिए कि चुनाव के दौरान हम चुनते क्या हैं? एक राजनैतिक विचारधारा के बदले चुनाव के लिए दूसरी राजनीती है भी, या एक समाजवादी और दुसरे समाजवादी में ही चुनने की मजबूरी का नाम हमने चुनाव रख दिया है?

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लेखक

आनंद कुमार आनंद कुमार @anandydr

लेखक वेब कंटेंट डेवलपर हैं, जो समसामयिक मुद्दों पर अपनी बेबाक राय रखते हैं.

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