Mayawati vs Akhilesh Yadav: मेरी मूर्ति, तेरी वाली मूर्ति से बड़ी होगी बबुआ!
बसपा सुप्रीमो मायावती (Mayawati) के इस ट्वीट के बाद कि यूपी (Uttar Pradesh) में उनकी सरकार बनते ही सपा द्वारा प्रस्तावित श्री परशुराम (Parshuram) की प्रतिमा से भी बड़ी और भव्य प्रतिमा का निर्माण किया जाएगा. ब्राह्मण मतदाताओं को लुभाने और जातीय समीकरण की स्थापना के लिहाज़ से इस बयान कि सामाजिक और राजनीतिक हलकों से भिन्न भिन्न प्रतिक्रियाएं आ रही है.
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चुनावी चौसर सभी को शकुनि बना देती है. यह अलग बात है कि वक्त और जनता जनार्दन खेल ख़त्म होने पर किसे राजा और किसे फ़कीर बनाती है. धर्म ही नहीं राजनीति में भी प्रतीकों का बड़ा महत्व है. गुरु, कई खेल हो जाते है इन प्रतीकों के दम पर. दिल्ली (Delhi) तक की सरकारें बन बिगड़ जाती है. राजनीति के मूर्तिकरण के इस दौर में धार्मिक सांस्कृतिक प्रतीकों को सोशल इंजीनियरिंग के पेच से खड़ा करके सत्ता की कुर्सियां बनाना सबसे आसान काम है. बस थोड़ी सी भावना तुष्ट किया और पांच साल की बम बम. वाह क्या लय और संगति है मूर्ति और कुर्सी में. राजनीति में कहा जाता है कि कान से ज्यादा नाक को सक्रिय रहना चाहिए. अरे अब नाक का प्रतीकात्मक अर्थ न ले. अभिधा में ही ले और तेज़ से सूंघकर देखे कि घ्राणशक्ति दुरुस्त है कि नहीं? वरना बच्चू, यह भी कोविड का एक लक्षण है. हां नाक इसलिए क्योंकि बदलती फिज़ा को सूंघकर चट से कोई मूर्ति बनाने का आश्वासन दे सके. वैसे भी कोविड के ज़माने में कोई स्कूल और अस्पताल थोड़े न जाना चाहता है. चाहता है कि नई? भाइयों बहनों मैं आप से पूछ रहा. जाना चाहता है कि नई? देखा सब की नाक को सांप सूंघ गया न.
हां तो बात नाक को सक्रिय बनाने की है. इस मामले में अपना सत्ता पक्ष जरूरत से ज्यादा सेंसटिव है. देखिए नेहरू की नाक से लेकर इंदिरा की नाक तक सूंघ चुकी है. ओह! आई मीन टू से नाप चुकी है. तो इसी रणनीति के तहत अपने अखिलेश भैया की तिरछी नाक ने जैसे ही सूंघा कि यूपी के ब्राह्मण सत्ता पक्ष से कुछ नाखुश है. उन्होंने पट से नाक वाला दांव चल दिया.
सपा ने घोषणा कर दी कि लखनऊ में वे 'श्री परशुराम' की 108 फीट ऊंची मूर्ति लगायेंगे. बस शर्त इतनी है कि लखनऊ तक एक फिर उनकी साईकिल पहुंच जाए. शायद अबकी बरसात में गाड़ियां रोड पर जिस तरह से पलट रही है उससे उन्हें अहसास हुआ कि साईकिल की सवारी में ब्राह्मण ज्यादा सुरक्षित है. लोग इस सुरक्षा के आश्वासन के साईकिल पर चढ़ लेंगे. अब यह तो समय ही बताएगा कि ब्राह्मण मतदाता चुनाव में साईकिल पर चढ़ेंगे या चढ़ लेंगे.
उत्तर प्रदेश में सियासत इस बात को लेकर हो रही है कि सपा और बसपा में परशुराम की सबसे बड़ी मूर्ति कौन लगाएगा।।
ख़ैर साईकिल की इस हिमाकत पर अपनी हाथी भी इस मुद्दे पर अपनी नाक यानि सूड़ अड़ा दी. बसपा से ज्यादा भला पत्थर और मूर्ति का ज्ञान किसे होगा. तो बहिन मायावती भी लगे हाथ ट्विटिया दी कि सपा का यह फैसला चुनावी स्वार्थ है. लो भैया कर लो बात. बहिन जी ने बात यहीं पर ख़त्म नहीं किया. अपने भतीजे अखिलेश से चार कदम आगे जाकर बिना दाएं बाएं मुड़े अपनी यह भी कह दी कि उनकी सरकार बनने पर ब्राह्मण समाज की इस चाहत पर बसपा सरकार 'श्री परशुराम' की सपा से भी भव्य मूर्ति बनवाएगी क्योंकि ब्राह्मण समाज को उनकी कथनी और करनी पर पूरा भरोसा है.
बस इसी लाइन पर ब्राह्मणों का क्या किसी का भी कलेजा भर आया होगा. वाह बहिन जी वाह! तुम जियो हजारों साल. साल के दिन हो हजारों हज़ार. आप सब जानते ही है कि बहिन जी की इस बात से कल से सोशल मीडिया से मुख्य धारा की मीडिया में हलचल मची हुई है. ईर्ष्यालु लोग हर बार की तरह बहिन जी के इस बयान पर बवाल काटे पड़े है. ब्राह्मण समाज अभी इस बयान की औपचारिक प्रति को प्राप्त करने के बाद विस्तृत समीक्षा करेगा.
सूत्रों के अनुसार अतीत में किए गए वादों की समीक्षा कर के ही इस प्रस्ताव पर कोई टिप्पणी की जाएगी. दूसरी तरफ़ कुछ प्रगतिशील और दलित आलोचकों ने बहिन मायावती के इस कदम को मनुवादी कृत्य बताया है. साथ ही उन पर दलित आंदोलन से दिग्भ्रमित होने का आरोप मढ़ दिया. हुंह अज्ञानी फेलो. बहिन जी इज नाव टोटली कन्वर्टेड सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय पॉलिटिक्स. राजनीति में केर बेर कब संग संग डोलने लगे और मन डोले गाने लगे. दीज़ अज्ञानी फेलो डोंट नो!
दोनों पक्षों की आलोचना में मुझे कोई विशेष दम धड़ाक नज़र नहीं आता. बहिन जी के मास्टर स्ट्रोक को समझने के लिए विराट चिंतन की ज़रूरत है. न विश्वास हो तो अखिलेश बबुआ से पूछ लीजिए. जिनके सहारे से बुआ जी ने पिछले लोकसभा चुनाव में 10 सीट कैसी चतुराई से अपनी तरफ़ सरका ली. उन्हें आज भी खल रहा होगा. अब देखिए उनके चुनावी फंडे भी चुपके से अपनी तरफ़ खींच ली. सबके कलेजा में खलबली मची होगी पक्का.
गलत ही क्या जब देश का मुखिया ही बड़ी बड़ी मूर्तियों से बड़े बड़े राजनीतिक समस्या चुटकियों में सुलझा चुके है, तो मायावती जी क्यों नहीं कर सकती. प्रतीकों की राजनीति में दबकर देश की अमूर्त आत्मा वैसे ही पत्थर दिल हो चुकी है. तो ऐसे में एकाध पत्थर की मूर्तियां और स्मारक किसी जाति विशेष , संप्रदाय अथवा धर्म का गौरव बन कर खड़ी हो जाए तो इसमें बुराई ही क्या है.
हम तो इंतजार में है कि को कर्मयोगी सत्तारूढ़ दल, मिमियाता विपक्ष अथवा कुर्सी के मोह में साधना में लीन राजनीतिक दल कोरोना माई का भी एकाध मूर्ति बनवाने का आश्वासन दे देता तो शायद उनका भी कोप कम से कम अगले चुनाव तक मैनेज हो जाता. अजी मैं तो कहता हूं कि सोशल मीडिया से लेकर जनता में धनिया बोए पड़े बिनोद सॉरी भीकास का भी मूर्तिकरण लगे हाथ हो जाए तो फिर कहना ही क्या.
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