Right To Disconnect : लापरवाह कर्मचारी को बिना लगाम का घोड़ा बना देता ये बिल!
एनसीपी नेता सुप्रिया सुले ने राइट टू डिस्कनेक्ट के नाम पर मुद्दा तो सही उठाया मगर उन्हें जान लेना चाहिए कि चाहे प्राइवेट हों या सरकारी दफ्तर, हम काम के अलावा सब कुछ कर रहे हैं.
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सेवा में.
सुप्रिया सुले, नेता, एनसीपी.
संसद का शीतकालीन सत्र खत्म हुए आपभी चंद दिन ही हुए हैं मगर आपका नाम लोगों की जुबान पर है. आप क्यों चर्चा में हैं जब इसके लिए गूगल पर सर्च किया तो जो परिणाम आए उनके अनुसार आपने इस सत्र में 'राइट टू डिस्कनेक्ट' बिल संसद के सामने रखा था. आज से पहले मुझे ऐसे किसी भी बिल के बारे में कोई जानकारी नहीं थी. मैंने इसके लिए भी गूगल पर सर्च किया. पता चला कि ये बिल मुझ समेत उन तमाम लोगों को फायदा देगा जो नौकरी पेशा हैं और किसी न किसी कॉर्पोरेट के अधीन काम करते हैं.
सुप्रिया सुले को समझना चाहिए कि बिल को लेकर जो बताएं वो कह रही हैं उन चीजों को हम एक लम्बे समय से फॉलो कर रहे हैं
यानी इस बिल में कुछ ऐसा था कि प्राइवेट क्षेत्रों में काम करने वाले हम लोग अपने ऑफिस आवर के बाद, दफ्तर से संपर्क विच्छेद कर पाएंगे. हक के साथ. साथ ही गूगल पर जितनी जानकारी मिली उससे यही समझ में आया कि इस बिल के पास हो जाने पर निजी या कॉर्पोरेट क्षेत्र में काम करने वाले कर्मचारी की तमाम कार्यों को लेकर बाध्यता खत्म हो जाती. ऑफिस से घर जाने के बाद न तो वो बॉस का ई-मेल ही देखते और न ही उन्हें किसी सहकर्मी का फोन ही उठाना पड़ता. कुल मिलाकर व्यक्ति का दफ्तर से साथ तब तक ही रहता जितनी देर वो दफ्तर में रहता.
दफ्तर के बाद कहां का बॉस? कैसा ईमेल? कौन कुलीग वाली स्थिति रहती. मैंने इस बिल के बारे में ध्यान से पढ़ा. इस बिल में साफ लिखा है कि ऑफिस कर्मचारी, ऑफिस टाइम के बाद या छुट्टी पर रहने की स्थिति में अपने बॉस या किसी भी अन्य सीनियर अफसर का फोन आने पर कॉल को डिसकनेक्ट कर सकता है. इतना ही नहीं वो इस दौरान किसी भी ऑफिशियल मेल का जवाब देने के लिए भी बाध्य नहीं होगा.
अच्छी बात है. वाकई ये बिल बहुत अच्छा है. इस बिल को गहनता पूर्वक पढ़ते हुए मुझ जैसे न जाने कितने ऐसे मगरमच्छ होंगे, जिनकी आंखों से मेरी तरह घड़ियाली आंसू निकल आए होंगे. वाकई ये पहली बार हुआ है कि किसी पार्टी की नेता ने जात-पात, धर्म, पंथ, समुदाय से इतर जाकर हम आम नौकरीपेशाओं के बारे में न सिर्फ समझा बल्कि उसके मुद्दों से सदन को हिलाने का सोचा.
सुप्रिया का बिल इस बात का पक्षधर है कि कैसे दफ्तर की बातों को केवल दफ्तर तक सीमित रखा जाए
आदरणीय सुप्रिया जी, आपका विचार अच्छा है. मगर जिस 'थॉट' के साथ आप ये बिल लेकर संसद आई थीं. उस थॉट को हम आम नौकरीपेशा लम्बे समय से अपना रहे हैं. हम वो लोग हैं जिनका ऑफिस शुरू तो होता सुबह 9 बजे से है मगर हम पूरी तसल्ली के साथ दस या साढ़े दस बजे दफ्तर पहुंच जाते हैं. कोई कुछ कहे उसके लिए हमारे पास ऐसा सॉलिड बहाना होता है कि सामने वाले की बोलती बंद हो जाती है और वो हमें कंसोल करके वापस लौट जाता है.
हम तो वो लोग हैं जो भले ही देर में ऑफिस आएं मगर लंच ब्रेक, चाय ब्रेक. सिगरेट ब्रेक, पकौड़ी-सैंडविच-गोलगप्पा ब्रेक और फिर एक चाय ब्रेक अपने निर्धारित समय पर लेते हैं. हम दफ्तर कितना भी लेट आएं मगर हमारा जल्दी घर जाने की इच्छा रखना सनातन सत्य है जिसे कोई भी माई का लाल झुठला नहीं सकता.
शायद आप विश्वास न करें मगर सच यही है कि हम लोगों में से एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है जो दफ्तर आता ही इसलिए है ताकि वो अपने सभी पेंडिंग काम जैसे घर की गैस बुक करना. बिजली का बिल जमा करना. टॉरेंट से मूवी डाउनलोड करना. ई कॉमर्स वेबसाइट से बीवी को नया फोन और गर्ल फ्रेंड को झुमके दिलाना. पनीर बटर मसाला को मीठे की जगह स्पाइसी बनाना इत्यादि गतिविधियां सीख सके. और हां इन सभी कामों को दफ्तर में करने का एक फायदा ये भी है कि हम जिस संस्था में काम कर रहे होते हैं वो संस्था हमें इन कामों को करने के लिए बाकायदा पैसे भी देती है.
दफ्तर में मौज मस्ती तो हम भारतीय लम्बे समय से करते चले आ रहे हैं
सुप्रिया जी, आप जिस मुद्दे को संसद में उठाने वाली थीं मुझे उस मुद्दे की विश्वसनीयता पर कोई संदेह नहीं है मगर चूंकि मैं और मुझ जैसे तमाम लोग पहले से ही अपने अपने दफ्तरों में हरामखोरी करके दिए गए संसाधनों की ऐसी तैसी कर रहे हैं तो शक हो रहा है कि यदि ये बिल संसद में पास हो जाता तो शायद हम आरामतलब लोगों की हालात उस बिना लगाम के घोड़े जैसी हो जाती जो आव देखता न ताव और कहीं भी मुड़ जाता और बने बनाए काम को बिगाड़ देता.
इस देश का एक आम नौकरीपेशा अपने दफ्तर में कितना काम और कितनी मौज करता है यदि इसे शब्दों में बांधा जाए तो शायद इतने शब्द हों कि 1000 पेज की किताब पूरे 12 वॉल्यूम में छपे. सुप्रिया जी आप खुद सोचिये जब ये बिल नहीं आया है तब आलम ऐसा है कहीं ये बिल आ गया होता तो फिर क्या होता ? कभी तसल्ली से बैठिएगा और राजनीति को साइड करके सिर्फ इस बात को सोचियेगा.
बहरहाल, पत्र लंबा हो गया है और वैसे भी लम्बे पत्र न ही कोई पढ़ता है और न ही उनका जवाब आता है. यदि किसी माध्यम से या फिर सोशल मीडिया पर उड़ते-उड़ते आपको ये पत्र मिल गया तो उम्मीद है आप जवाब जरूर देंगी. बाक़ी आप ने जो हम प्राइवेट नौकरी करने वाले लोगों के लिए किया उसके लिए जीवन भर थैंक यू रहेगा.
आपका
इस देश का एक आम नौकरीपेशा, जो दफ्तर में काम के अलावा सब कुछ कर रहा है.
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