संसद में गतिरोध लोकतंत्र के लिए कितना जायज़?
वैसे तो भारतीय संसद के कामकाज में विपक्ष के हंगामे और शोर-शराबे के कारण बाधा पड़ना कोई नई बात नहीं है लेकिन जब लगातार 15 दिनों तक कोई कामकाज न हो तो चिंता होना स्वभाविक ही है. लोकतंत्र के लिए कतई जायज़ नहीं ठहराया जा सकता.
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बजट सत्र का दूसरा चरण 5 मार्च से शुरू हुआ तब से लगातार 15वें दिन बिना कोई कामकाज किए दोनों सदन स्थगित करने पड़े हैं. और आगे भी ऐसी ही उम्मीद है. वैसे तो भारतीय संसद के कामकाज में विपक्ष के हंगामे और शोर-शराबे के कारण बाधा पड़ना कोई नई बात नहीं है लेकिन जब लगातार 15 दिनों तक कोई कामकाज न हो तो चिंता होना स्वभाविक ही है. लोकतंत्र में सत्ता और विपक्ष के बीच नोक-झोंक, बहसबाज़ी, दोषारोपण या फिर यदा-कदा सदन से बहिर्गमन तो क्षम्य है लेकिन कुछ सालों में भारत में यह परिपाटी बन गई है जिसे लोकतंत्र के लिए कतई जायज़ नहीं ठहराया जा सकता.
इस वक़्त सदन में जिन विषयों को लेकर हंगामा हो रहा है अगर वो मुद्दे जायज हैं तो फिर इसके कारण देश हित के दूसरे काम अगर रुक जाएं तो उसे क्या जायज ठहराया जा सकता है? एक रिपोर्ट के अनुसार संसद सत्र के दौरान प्रति मिनट ढाई लाख रुपए का खर्च आता है. आखिर हमारे देश के सांसदों का फोकस समस्या के समाधान से ज़्यादा समस्या को लेकर शोर मचाने पर क्यों है? और जब संसद की कार्यवाही न चलने से देश के राजकोष पर करोड़ों रुपए का भार पड़े तो क्या यह चिंता का विषय नहीं है? क्या संसद में हंगामे से किसी भी समस्या का हल हो सकता है? क्या केवल सांसदों को अपना वेतन बढ़वाने का ही हक है? आखिर हंगामे रोकने का रास्ता क्या है? आखिर जनता का पैसा इस तरह से बर्बाद करने के लिए जिम्मेद्दार कौन है?
जब से संसद के बजट सत्र का दूसरा चरण शुरू हुआ है तब से नीरव मोदी मामला, राफेल सौदा, कावेरी जल विवाद, यूपी में एनकाउंटर्स, मूर्तियां तोड़े जाने का मामला, आंध्र को स्पेशल स्टेटस, मोसुल में 39 भारतीयों की हत्या और अब सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव जैसे मुद्दों को लेकर सदन की कार्यवाही बाधित होती रही है. सरकार कहती है कि वो चर्चा के लिए तैयार है और विपक्ष कहता है कि सरकार सिर्फ दिखाने के लिए ये कह रही है तो आखिर मुश्किल कहां है? क्या ये सभी मुद्दे इतने जटिल हैं कि हमारे माननीय सांसदगण सुलझा नहीं सकते या फिर सुलझाना ही नहीं चाहते?
संसद में प्रमुख बिल लंबित
अभी तक इस बजट सत्र के दूसरे चरण में लगभग 90 फीसदी समय हंगामे के भेंट चढ़ गया. दोनों सदनों में हर दिन करीब 6 घंटे काम के लिए होता है, लेकिन किसी भी दिन एक घंटे भी सदन की कार्रवाई नहीं चल पाई. विपक्षी पार्टियों के हंगामे के कारण बहुत से प्रमुख बिल लंबित भी पड़े हुए हैं. मसलन लोकसभा में जनप्रतिनिधि (संशोधन) विधेयक, चेक से जुड़ा (संशोधन) विधेयक, राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद (संशोधन) विधेयक, उपभोक्ता संरक्षण विधेयक और मानव तस्करी से संबद्ध विधेयक और राज्य सभा में मोटर वाहन विधेयक, भ्रष्टाचार रोकथाम विधेयक, तीन तलाक विधेयक और ह्विसिल ब्लोअर विधेयक लंबित हैं.
हर सांसद पर तीन लाख से ज्यादा खर्च
वैसे सदन में हमारे संसद कोई भी काम नहीं होने दे रहे हैं, लेकिन जब इनका अपना वेतन बढ़ाना होता है तो कभी भी सदन का वहिष्कार या सदन में हंगामा नहीं करते. भारत सरकार एक सांसद पर प्रतिमाह करीब दो लाख सत्तर हजार रुपए खर्च करता है, लेकिन अप्रैल महीने से भत्तों में बढ़ोत्तरी के बाद यह खर्च प्रति सांसद करीब 50 हजार रुपए बढ़कर तीन लाख से अधिक हो जाएगा. ऐसे में संसद को नहीं चलने देना माननीय सांसदों को शोभा नहीं देता.
हमारे सांसदों को यह समझना चाहिए कि जनता ने उन्हें देशहित से जुड़े गंभीर समस्यायों पर विचार विमर्श करने और उस दिशा में ठोस कदम उठाने के लिए संसद में भेजा है ना कि धरने-प्रदर्शन, नारेबाजी, और शोर-शराबा करके इसे ठप्प केने के लिए. हमारे माननीयों को दलगत राजनीति से ऊपर उठकर जनता के लिए काम करना चाहिए नहीं तो देश के लोगों का अपने प्रतिनिधियों पर विश्वास लगातार कमजोर होता जाएगा.
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