मेट्रो का इस्तेमाल कैसे करना है ये कोई लखनऊ वालों को सिखाए!
उत्तर प्रद्रेश की राजधानी लखनऊ के लोग खुश हैं कि उनके शहर में मेट्रो आ गयी है, मगर जिस तरह उनके द्वारा इसका इस्तेमाल किया जा रहा है, वो कई मयनों में हैरत में डालने वाला है और ये बताता है कि अभी लखनऊ मेट्रो के योग्य नहीं हुआ है.
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मैं भारत का नहीं जानता, मगर उत्तर प्रदेश की राजधानी में विकास हो गया है. अरे, राजधानी लखनऊ में मेट्रो जो आ गयी है. कह सकते हैं कि भीड़भाड़ और तनाव से भरे जीवन में किसी भी शहर के लिए मेट्रो ही उम्मीद की आखिरी किरण है. साल 2017 का अंत आते-आते लखनऊ को मेट्रो के रूप में उसकी आखिरी किरण मिल गयी है. वो दिन दूर नहीं जब हम लखनऊ वाले सिर्फ मेट्रो के कारण ही शायद लखनऊ और आस पास के हिस्सों में घी के चिराग जलाएं और प्योर सरसों के तेल के दिये जलते देखें.
बहरहाल, घूमना पसंद होने के कारण मैंने भारत के कई शहरों का भ्रमण किया और कुछ बड़े शहरों में रहने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ. अब अगर कोई मुझसे रहने के लिहाज से मेरे पसंदीदा शहर के विषय में पूछे तो चार बजे भोर में भी मैं लखनऊ का नाम लूंगा और शाम 6 बजे भी. मैं पूरे दावे के साथ कह सकता हूं कि, रहने के लिहाज से लखनऊ एक बेहद प्यारा शहर है. नवाबों के शहर लखनऊ को अगर मैं एक आराम तलब, रुका हुआ, धीमा सा शहर कहूं तो इसपर आपको आहत होने की बिल्कुल भी जरूरत नहीं है.
मौजूदा वक्त में कह सकते हैं कि लखनऊ के लिए मेट्रो ही विकास है
ऐसा इसलिए क्योंकि इसके पीछे मेरे अपने तर्क हैं. ऐसे तर्क, जिनको सुनकर भले ही आपका मन भारी हो जाए मगर इस आर्टिकल के अंत तक आप मेरी कही हुई हर बात पर निश्चित तौर पर अपनी सहमति दर्ज करा देंगे.
देखिये साहब, कॉस्ट ऑफ लिविंग के मामले में सबसे लो लखनऊ, एक धीमा और रुका हुआ शहर है. ऐसा इसलिए भी क्योंकि यहां के लोगों के पास टाइम बहुत है या यूं भी कहा जा सकता है कि यहां के नवाबी लोगों को वक्त की अधिकता विरासत में मिली है. चौक से लेकर चौहारों तक, और गली से लेकर मुहल्लों तक यहां आपको युवाओं का वो झुंड मिलेगा जिनको अभिवाहकों द्वारा निर्देश तो थोक के भाव में मिलते हैं मगर इन बेचारों के पास कोई दिशा नहीं है और जिससे इनकी दशा दिन-ब-दिन बिगड़ती चली जा रही है.
भले ही लखनऊ के युवाओं के पास दिशा न हो, मगर इससे इनके ठाठ पर कोई कमी नहीं होती. युवाओं की छोड़िये यहां के बुजुर्ग भी कुछ कम नहीं हैं. ये भी वैसे ही हैं जैसे इनके शहर के युवा, हां बस ये उम्र और अनुभव के लिहाज से अपने युवाओं से दो हाथ आगे हैं. खैर हर शहर का मनोविज्ञान है, लखनऊ का भी है. मगर लखनऊ का मनोविज्ञान थोड़ा अलग है. यहां चीजें बनती तो हैं काम के उद्देश्य से, मगर हो जाती हैं मनोरंजन का माध्यम.
लखनऊ में मेट्रो जरूरत का माध्यम कम मनोरंजन का माध्यम ज्यादा है
उपरोक्त पंक्ति को समझने के लिए आपको लखनऊ मेट्रो को समझना होगा. लखनऊ में मेट्रो आ गयी है. एक आम लखनऊ वासी के लिए विकास की यही परिभाषा है कि अब उसके शहर में भी मेट्रो है. हां वही मेट्रो जिसके स्टेशनों पर सेल्फ़ी खिंचा- खिंचा के लोगों ने पूरे सोशल मीडिया को पाट दिया है. वही मेट्रो जिसके टोकन ब्लैक में खरीदकर लोगों ने उसे अपने वॉलेट में डाल लिया है और जिसे वो अपने-अपने गांव जाकर अपने रिश्तेदारों को दिखाते हैं और कहते हैं कि, लो देखो कितना गोल और सुन्दर है मेट्रो का टिकट. इसके अलावा राजधानी में कुछ ऐसे भी लोग हैं जिन्होंने मेट्रो के टिकट की फोटो खींच कर उसे अपने मोबाइल में बतौर वॉल पेपर भी लगा दिया है.
पता नहीं इसे लखनऊ मेट्रो की बदकिस्मती कहा जाए कि, शहर के लोगों का दीवानापन. एक ऐसे युग में जब लोगों के पास अपने लिए समय नहीं है. ऐसे में अपने दोस्तों को, रिश्तेदारों को, परिवार को ये कहकर की अब हमारे शहर में मेट्रो है और उन्हें उस मेट्रो की सैर कराना अपने आप में अनोखा और हैरत में डालने वाला है.
साथ ही लखनऊ वासियों का ये भी मानना है कि, 'अब जब लखनऊ में मेट्रो आ गयी है तो जल्द ही वो दिल्ली जैसे हो जाएगा' ये अपने आप में एक अलग सोच का विषय है. ऐसा इसलिए क्योंकि लखनऊ जिस दिल्ली के पीछे भाग रहा है उसके भी हालात कोई खास अच्छे नहीं हैं. यहां किसी के पास समय नहीं है. हर तरफ लोगों की न रुकने वाली भीड़ है. कुल मिलाकर लोगों को यहां बस अपनी रोटी और उस रोटी को कमाने के तरीकों की चिंता है.
मानिए या न मानिए, मगर दिल्ली में काम करने वाले एक आम आदमी के पास शायद पैसा तो हो मगर उसके पास वक्त की भारी कमी है. इस शहर में लोगों की जिंदगी या तो ट्रैफिक जाम में बीत रही है या फिर मेट्रो स्टेशन पर टोकन खरीदते हुए, मेट्रो में खड़े होकर धक्के खाते हुए.
कहा जा सकता है जिस तरह लखनऊ के लोग मेट्रो के दीवाने हैं काश वो अपनी मूलभूत चीजों के लिए भी होते
सिर्फ मेट्रो होने से या मेट्रो में बैठने मात्र से किसी को नौकरी नहीं मिलती और न ही इससे कोई शहर विकसित होता है. मेट्रो होने के बावजूद, नौकरी न किसी दिल्ली वाले को मिली है और न ही ये किसी लखनऊ वाले को मिलेगी. दिल्ली, दिल्ली है, लखनऊ, लखनऊ है. हां ये अलग बात है कि मेट्रो मॉडर्न युग में विकास का मानक है मगर ये कह देना कि यही सब कुछ है अपनी बुद्धि को सवालों के घेरे में डालने वाला है.
यदि लखनऊ वाले सच में मेट्रो को विकास का मानक मानते हुए ये सोच रहे हैं कि, अब इसके आने से उनके अच्छे दिन आ जाएंगे तो ये अपने आप में उनकी सबसे बड़ी भूल है. विकास के क्रम में कंधे से कंधा मिलाकर चलने के लिए सबसे पहले उन्हें अपने एटीट्यूड को बदलना होगा, समय की कद्र जाननी होगी. समय को यूं बर्बाद करना छोड़ना होगा.
बहरहाल, लखनऊ वालों को ये भी मान लेना होगा कि सिर्फ मेट्रो के स्टेशन या उसकी बोगी में फोटो खिंचा के कुछ नहीं होने वाला. यदि सच में वो अपने भविष्य के लिए फिक्रमंद हैं तो उन्हें समय की कद्र करना सीखना होगा. शायद बड़े बुजुर्गों की कही एक बात लखनऊ वालों को याद हो 'गुजरा वक्त कभी लौट के नहीं आता'. सिर्फ घूमने के नाम पर जिस तरह लखनऊ वाले अपना समय बर्बाद कर रहे हैं वो एक गहरी चिंता का विषय है.
अंत में इतना ही कि, बाबू जी लखनऊ, लखनऊ है एक आराम तलब शहर. उसे कृपया दिल्ली न बनाइये और चुपचाप एन्जॉय करिये. यदि आप लखनऊ को दिल्ली मान रहे हैं तो फिर दिल्ली के रूखेपन को अभी से स्वीकार करने की आदत आपको डाल लेनी चाहिए. साथ ही, भविष्य में किसी से ये नहीं कहना चाहिए कि अब लखनऊ में वो पुरानी वाली बात नहीं.
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