यूपी पंचायत चुनाव: प्रधानी के लिए लोग जो करें, वो कम है
पंचायत चुनाव में सरकार से ज्यादा पैसा तो प्रत्याशी खर्च कर देते हैं. पंचायत चुनाव में लोगों के लिए लंगर लगाए जाते हैं, जहां रोटी से लेकर बोटी तक का इंतजाम रहता है. खाने के बाद सुरापान की व्यवस्था भी मिल ही जाती है. और अगर इतने से भी काम नहीं बने, तो 'नकद नारायण' काम आ ही जाता है.
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दुनिया का सबसे कठिन काम क्या है? इस 'यक्ष प्रश्न' का जवाब बौद्धिक, आध्यात्मिक और अलाने-फलाने टाइप के लोग अपने हिसाब से देते हैं. अब अपन न तो बौद्धिक हैं और न आध्यात्मिक, तो अलाने-फलाने ही सही. अलाने-फलाने की राय काफी मायने रखती है और क्यों रखती है, पहले इसका जवाब जान लेते हैं. इसका सीधा सा जवाब ये है कि दिल्ली की कुर्सी का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर गुजरता है और अलाने-फलाने उत्तर प्रदेश के निवासी हैं. यूपी के निवासी किसी भी चीज पर राय देने का पूरा अधिकार रखते हैं. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है भाई. ठीक वैसे ही जैसे कंगना रनौत और स्वरा भास्कर के पास है.
वैसे सवाल ये था कि दुनिया का सबसे कठिन काम क्या है? इसका सीधा सा जवाब ये है कि यूपी में प्रधानी का चुनाव लड़ना सबसे कठिन काम है. वैसे जो मैंने कहा है, वो काबिल-ए-यकीन नहीं है, लेकिन मुझ पर न सही पंचायत चुनाव पर यकीन कर लीजिए. यूपी के बलिया और प्रतापगढ़ के प्रधानी चुनाव से जुड़े दो किस्से आपको यकीन दिला देंगे. बलिया में महिला सीट होने पर एक महाशय ने जीवनभर अविवाहित रहने की कसम तोड़ दी, तो प्रतापगढ़ में प्रधानी लड़ने के लिए रुपयों का इंतजाम करने की खातिर शख्स ने लूट को अंजाम दे दिया. आप सोचकर देखिए कि एक प्रधान पद के लिए लोगों को क्या-क्या नहीं करना पड़ता है. वरना गर्मी के मौसम में लोगों के प्राण केवल इस बात पर निकलने लगते हैं कि खुद से फ्रिज में पानी की बोतल भरकर लगानी पड़ेगी.
प्रधानी के चुनाव में सारा खेल प्रतिस्पर्धा यानी कंपटीशन और समर्पण यानी डेडिकेशन पर टिका है. पंचायत चुनाव के लिए लोग सालों तक मेहनत करते हैं. मतदाताओं के पास जाकर समय के साथ ही पैसा भी खपाते है. उसके बाद जब चुनावों की घोषणा होती है, तो पता चलता है कि सीट महिलाओं के लिए रिजर्व हो गई है. सारी समाजसेवा (कहने वाली बात है, असलियत सभी को पता है) की लंका लग जाती है. आप समझ सकते है कि प्रधानी की खातिर लोग कुछ भी कर गुजरने से परहेज नहीं करते हैं. मतलब शादी तक करने को तैयार हो जाते हैं. ये उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनाव का ही जलवा है, जो बलिया की ग्राम पंचायत शिवपुर कर्ण छपरा में एक शख्स ने प्रधान बनने की अपनी महत्वाकांक्षा के चक्कर में आजीवन अविवाहित रहने के अपने संकल्प को छोड़ दिया. समाजसेवा के लिए इससे बड़ा बलिदान आखिर कोई क्या ही कर सकता है.
पंचायत चुनाव में सरकार से ज्यादा पैसा तो प्रत्याशी खर्च कर देते हैं.
प्रधानी के चुनाव के लिए शादी करना बड़ा फैसला माना जा सकता है. वैसे उससे भी दिलचस्प बात ये है कि शादी की भी, तो 'खर मास' में. खर मास के दौरान मांगलिक कार्य निषेध होते है और इसे शुभ नहीं माना जाता है. इसके बावजूद हाथी सिंह (प्रधानी के लिए शादी करने वाले) ने इतना बड़ा रिस्क उठाया है, तो कम से कम उन्हें खतरों के खिलाड़ी का अवार्ड मिल ही जाएगा. 2015 के पंचायत चुनाव में उपविजेता रहे हाथी सिंह को सीट महिलाओं के लिए आरक्षित होने से झटका लगा था. लेकिन, गांव के लोगों ने ही उन्हें शादी का सुझाव दे दिया. शास्त्रों में ऐसे ही लोगों को ईर्ष्यालू बताया गया है. ये वही लोग हैं, जिनसे एक आदमी की अच्छी-भली चल रही जिंदगी देखी नहीं जाती है. खैर, प्रधानी के चुनाव के लिए समाजसेवा में (मुर्गा-दारू में) इतना पैसा फूंका होगा, तो शादी कर ही सही कम से कम प्रधान पद मिलने की संभावना तो बनी हुई है.
पंचायत चुनाव में सरकार से ज्यादा पैसा तो प्रत्याशी खर्च कर देते हैं. पंचायत चुनाव में लोगों के लिए लंगर लगाए जाते हैं, जहां रोटी से लेकर बोटी तक का इंतजाम रहता है. खाने के बाद सुरापान की व्यवस्था भी मिल ही जाती है. और अगर इतने से भी काम नहीं बने, तो 'नकद नारायण' काम आ ही जाता है. चुनाव लड़ना बहुत ही महंगा हो गया है. इतना महंगा कि लोग को चुनाव का खर्चा निकालने के लिए लूट तक को अंजाम देना पड़ जाता है. बीते महीने प्रतापगढ़ में पुलिस ने राइस मिल संचालक के साथ हुई 16 लाख रुपये की लूट में 6 बदमाशों को गिरफ्तार किया था. पुलिस पूछताछ में सामने आया था कि आरोपियों में से एक राजेश इस बार प्रधानी का चुनाव लड़ने जा रहा था. जिसकी वजह से उसे रुपयों की जरूरत थी. अगर कोई अपराधी चुनाव लड़ता है, तो लोग उसे दो ही वजहों से वोट देते हैं. एक तो डरकर या फिर पैसों के दम पर.
अब राजेश छोटे-मोटे बदमाश थे, तो उनका इतना दबदबा था नहीं और दूसरे वाले ऑप्शन में चिकन-मटन, दारू-चखना की व्यवस्था में पैसा खर्च होता है, कैश भी देना पड़ता है. प्रधानी लड़ने के लिए छुटभैये बदमाश के पास इतना पैसा लूट से ही आ सकता है, तो भाई साहब ने वही शॉर्ट कट अपना लिया. हालांकि, पुलिस के हत्थे चढ़ गए और सारे अरमान धरे के धरे रह गए. चुनाव और राजनीति है ही ऐसी चीज कि कहीं महिला सीट होने पर शादी की जुगत, तो कहीं लूट तक को अंजाम देने में भी लोग कतराते नही हैं.
बहरहाल, बात बलिया की हो या प्रतापगढ़ की, ये कहना गलत नहीं होगा कि प्रधानी का चुनाव लड़ने के लिए लोग किसी भी हद तक जा सकते हैं. बस यही मान लीजिए कि अपनी जान नहीं देते हैं. लेकिन, जिन परंपराओं के लिए मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं, प्रधान बनने की ख्वाहिश में उससे भी किनारा कर लेते हैं. वैसे यूपी में पंचायत चुनाव लड़ रहे प्रत्याशी का जलवा दिल्ली की केजरीवाल सरकार के किसी विधायक से कहीं ज्यादा ही होता है. जीएनसीटीडी बिल के बाद इतना तो कहा ही जा सकता है. कुल मिलाकर यूपी में प्रधानी का चुनाव जीतने के लिए लोग जो न करें, वो कम है.
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