Valentine Rose Day: गुलाब को 'खानदानी हरामी' क्यों कहा था निराला ने?
दो प्यार करने वालों के बीच फूलों विशेषकर गुलाब का आदान प्रदान होता रहता है. तो आइये जानें कि आखिर ऐसा क्या हुआ था जिसके चलते गुलाब को गाली तक दी थी महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' ने.
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ये जो गुलाब है न! यही सारी समस्या की जड़ है. लड़कपन से जवानी के दिनों तक जहां गुलाब पाना या दे पाने में सफल हो जाना अच्छे दिनों की गारंटी हुआ करता था, और गुलाब न मिलना या गुलाब रिजेक्ट हो जाना लोगों को पश्चिमी सभ्यता का विरोधी बना देता था, वहीं जवानी-पश्चात यही गुलाब पूंजीवाद का प्रतीक बन कर उनको उम्रभर के लिये अपना गुलाम बना लेता है.
चाहे शुरुआती जिन्दगी में लोग दावा करें कि वो गुलाब के गुलाबी असर से बेअसर रहे, पर बाकी आधी जिन्दगी इसी पूंजीवादी गुलाब की गुलामी में बीतना तय है. कोई बड़ी बात नहीं है कि महाकवि निराला ने आम आदमी की इसी मजबूरी को बूझकर अपनी लंबी कविता 'कुकुरमुत्ता' में गुलाब को खानदानी हरामी कहा हो.
ये अलग बात है कि उनकी इस कविता को शुरुआत में सांप का जहर उतारने का मंत्र कहकर मजाक उड़ाया गया. हालांकि इसके बाद निराला ने 'राम की शक्ति पूजा' लिखकर अपने आलोचकों का मुंह बंद कर दिया, और कुछ समय बाद उनकी 'कुकुरमुत्ता' को भी क्लासिक का दर्जा मिल गया.
माना यही जाता है कि वैलेंटाइन वीक की शुरुआत रोज डे से होती है
उनकी इस कविता ने जवानी में गुलाब के गुलाबी असर से बेअसर रह जाने वाले हम बुद्धुओं को गुलाब की खिलाफत करने की ताकत और आवाज दी, हमारा मोराल बूस्ट किया, इसके लिये असफल प्रेमी समाज युगों-युगों तक निराला का ऋणी रहेगा. इस कविता के लिये देश भर के कम्युनिस्ट भी निराला के कर्ज़दार रहेंगे.
अब आप लोग कविता की वो पंक्तियां पढ़िये, जिनका हमने अभी तक जिक्र किया.
अबे, सुन बे, गुलाब,
भूल मत जो पायी खुशबू, रंग-ओ-आब,
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट,
डाल पर इतरा रहा है केपिटलिस्ट.
कितनों को तूने बनाया है गुलाम,
माली कर रक्खा, सहाया जाड़ा-घाम,
हाथ जिसके तू लगा,
पैर सर रखकर वो पीछे को भागा
औरत की जानिब मैदान यह छोड़कर,
तबेले को टट्टू जैसे तोड़कर,
शाहों, राजों, अमीरों का रहा प्यारा
तभी साधारणों से तू रहा न्यारा.
वरना क्या तेरी हस्ती है, पोच तू
कांटो ही से भरा है यह सोच तू
कली जो चटकी अभी
सूखकर कांटा हुई होती कभी.
रोज पड़ता रहा पानी,
तू हरामी खानदानी.
चाहिए तुझको सदा मेहरून्निसा
जो निकाले इत्र, रू, ऐसी दिशा
बहाकर ले चले लोगो को, नही कोई किनारा
जहां अपना नहीं कोई भी सहारा
ख्वाब में डूबा चमकता हो सितारा
पेट में डंड पेले हों चूहे, जबां पर लफ़्ज प्यारा.
देख मुझको, मैं बढ़ा
डेढ़ बालिश्त और ऊंचे पर चढ़ा
और अपने से उगा मैं
बिना दाने का चुगा मैं
कलम मेरा नही लगता
मेरा जीवन आप जगता
तू है नकली, मै हूं मौलिक
तू है बकरा, मै हूं कौलिक
तू रंगा और मैं धुला
पानी मैं, तू बुलबुला
तूने दुनिया को बिगाड़ा
मैंने गिरते से उभाड़ा
तूने रोटी छीन ली जनखा बनाकर
एक की दी तीन मैने गुन सुनाकर.
काम मुझ ही से सधा है
शेर भी मुझसे गधा है."
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