व्यंग्य: आम आदमी को डेंगू हो गया 'जी', झाड़ू कब चलाएंगे 'जी'
Pardon my Language... लेकिन कोई $%#@%&^&*! मच्छर आम आदमी को काट कर चला जाए और 'आप' केवल 'झाड़ू' की सैर करते रहें, यह बर्दाश्त नहीं होगा... हमने आपको 'झाड़ू' दी थी ताकि हम घरों में चैन से...
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इंसान तो इंसान, साफ-सफाई की अहमियत जानवर भी बखूबी समझते हैं. बल्कि मेरा तो यहां तक मानना है कि इंसानी सभ्यता के विकास के क्रम में ये जानवर ही थे, जिससे हमें स्वच्छता की सीख मिली. इसके लिए रॉकेट साइंस जैसे कैलकुलेशन की जरूरत नहीं - जानवरों की पूंछ और झाड़ू (खासकर फूल वाली) की शक्ल का मिलान करना ही काफी होगा. ये और बात है कि जिसने इसे केवल झाड़ू समझा वह आज तक बुहार ही रहा है और जिसने इसकी ताकत को समझा, उसने सत्ता को बुहार फेंका.
झाड़ू न होती तो आज गांधी बापू न होते
मोहनदास करमचंद गांधी 'आम आदमी' नहीं थे. 100 साल पहले ही उन्होंने 'झाड़ू पुराण' को आत्मसात कर लिया था. जैसा पहले बताया, चूंकि गांधी 'आम आदमी' नहीं थे तो उन्होंने झाड़ू को प्रतीक बनाने के बजाय सही मायने में इसे चलाया था - गंदगी साफ करने के लिए. वैसे इतिहासकार इससे असहमत हो सकते हैं पर मेरा मानना है कि गांधी का 'एक्सपेरिमेंट' दक्षिण अफ्रीका में भले ही सफल रहा था, पर भारत में वह बिना झाड़ू के सफल नहीं होता. गिनती कम पड़ जाने लायक जातीय-समीकरण के बीच झाड़ू ही वो 'राम-बाण' था, जिसने गांधी को बापू बनाया.
एक मच्छर #$%^* आदमी को डेंगू मरीज बना देता है
माफी चाहता हूं. वैसे देते समय गाली मैं हिंदी में ही देता हूं पर लिखते समय कुछ 'मजबूरियां' होती हैं इसलिए... लेकिन #$%^* दिल्ली में मच्छर बहुत हैं. इतने हैं... इतने हैं कि अभी अगर शोले बने तो धर्मेंद्र कहेंगे - बसंती, इन मच्छरों के सामने मत नाच. अब आप ही सोचिए जब बॉलीवुड के पहले ही-मैन को मच्छरों से इतनी नफरत तो हम-आप तो आम आदमी हैं! हां, यह और बात है कि सरकारी दफ्तर से लेकर, अस्पताल, रेलवे से लेकर कल-कारखानों तक हमारा खून चूसा जाता है लेकिन अब #$%^* मच्छर भी!!!
बापू की राह पर झाड़ू, छेड़ा असहयोग आंदोलन
जिस किसी रिश्तेदार के यहां जाता हूं - डेंगू की चर्चा. अखबार उठाओ तो - डेंगू की रिपोर्ट. टीवी खोलो तो - डेंगू के मरीज और अस्पतालों की स्थिति. कहा जा रहा है कि पिछले पांच साल में डेंगू अपने सबसे भयंकर रूप में है. हद हो गई साब! ऐसा लग रहा है मानो 'झाड़ू' की सत्ता से झाड़ू गायब सी हो गई है. हो भी क्यों न - झाड़ू बेचारी एक और दावेदार दो-दो!!! दोनों के दोनों दिल्ली में जमे - झाड़ू जाए तो किसके पाले में जाए - सो उसने असहयोग आंदोलन का रास्ता चुना और बोली - मरो $%#@%&^&*
Pardon my Language...
...लेकिन कोई $%#@%&^&*! मच्छर आम आदमी को काट कर चला जाए और 'आम आदमी' सिर्फ और सिर्फ 'झाड़ू' की सैर करता रहे, यह बर्दाश्त नहीं होगा. हमने आपको 'झाड़ू' इसलिए दी थी क्योंकि हम अपने घरों में चैन से झाड़ू लगा सकें... लेकिन नहीं!!! 'आप' तो 'आप' ठहरे. 'आप' कैसे सुधरेंगे? इसलिए मैंने फैसला कर लिया है - झाड़ू उठाने का - बुहारने के लिए नहीं - %$#@ के लिए!!!
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