सच कहा गया है, बदलाव के लिए कहीं न कहीं से शुरूआत करनी पड़ती है. आप कहीं भी रहो, एक बार अन्याय के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करके देखो, धीरे-धीरे लाखों आवाजें आपका साथ देंगी. जरूरी है तो बस सही और ठोस शुरूआत करने की, जैसा की साउथ फिल्म इंडस्ट्री में दलित चेतना को लेकर की गई है. जिस तरह समाज में दलितों और वंचितों को उनका हक नहीं मिल पाया, वैसे ही हिंदी सिनेमा में भी दलित हमेशा डरपोक, गरीब, अशिक्षित और बेहद कुरूप दिखाया जाता रहा है. समाज की तरह सिनेमा में भी वो दूसरों के रहमों-करम पर रहता है. लेकिन साउथ सिनेमा ने इस धारणा को तोड़ा. उसने अपनी फिल्मों में दलितों को नायक के रूप में दिखाया. विद्रोह करते दिखाया. हथियार उठाते दिखाया और जरूरत पड़ी तो कानून हाथ में लेकर उच्च वर्ग के प्रतिनिधि की हत्या करते हुए भी दिखाया.
साउथ सिनेमा का ये नया रूप है, जिसका सबसे बड़ा श्रेय मशहूर फिल्म मेकर पा रंजित को जाता है. उन्होंने सरपट्टा परम्बरई, कबाली और काला जैसी अपनी फिल्मों में दलित समाज को एक नए नजरिए से पेश किया. इसके बाद दूसरे फिल्मकार भी इस विषय पर फिल्में बनाने लगे. हाल ही में रिलीज हुई धनुष की फिल्म 'कर्णन' इसका बेहतरीन उदाहरण है. यह मूवी नहीं है. यह एक मूवमेंट है. उन लोगों को झकझोरता है, जो यह सोचते हैं कि सभी इंसान समान पैदा होते हैं. लेकिन क्या ये सच है? फिलहाल तो ऐसा बिल्कुल भी नहीं लगता. हमारे समाज में जाति व्यवस्था अभी भी विभिन्न रूपों में मौजूद है. असमानताएं हमारे डीएनए में है. साउथ सिनेमा का ये दलित मूवमेंट दक्षिण से उत्तर भारत की ओर निकल पड़ा. इसका पहला असर फिल्म '200 हल्ला हो' के रूप में मराठी सिनेमा में देखने को मिल रहा है.
फिल्म '200 हल्ला हो'...
सच कहा गया है, बदलाव के लिए कहीं न कहीं से शुरूआत करनी पड़ती है. आप कहीं भी रहो, एक बार अन्याय के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करके देखो, धीरे-धीरे लाखों आवाजें आपका साथ देंगी. जरूरी है तो बस सही और ठोस शुरूआत करने की, जैसा की साउथ फिल्म इंडस्ट्री में दलित चेतना को लेकर की गई है. जिस तरह समाज में दलितों और वंचितों को उनका हक नहीं मिल पाया, वैसे ही हिंदी सिनेमा में भी दलित हमेशा डरपोक, गरीब, अशिक्षित और बेहद कुरूप दिखाया जाता रहा है. समाज की तरह सिनेमा में भी वो दूसरों के रहमों-करम पर रहता है. लेकिन साउथ सिनेमा ने इस धारणा को तोड़ा. उसने अपनी फिल्मों में दलितों को नायक के रूप में दिखाया. विद्रोह करते दिखाया. हथियार उठाते दिखाया और जरूरत पड़ी तो कानून हाथ में लेकर उच्च वर्ग के प्रतिनिधि की हत्या करते हुए भी दिखाया.
साउथ सिनेमा का ये नया रूप है, जिसका सबसे बड़ा श्रेय मशहूर फिल्म मेकर पा रंजित को जाता है. उन्होंने सरपट्टा परम्बरई, कबाली और काला जैसी अपनी फिल्मों में दलित समाज को एक नए नजरिए से पेश किया. इसके बाद दूसरे फिल्मकार भी इस विषय पर फिल्में बनाने लगे. हाल ही में रिलीज हुई धनुष की फिल्म 'कर्णन' इसका बेहतरीन उदाहरण है. यह मूवी नहीं है. यह एक मूवमेंट है. उन लोगों को झकझोरता है, जो यह सोचते हैं कि सभी इंसान समान पैदा होते हैं. लेकिन क्या ये सच है? फिलहाल तो ऐसा बिल्कुल भी नहीं लगता. हमारे समाज में जाति व्यवस्था अभी भी विभिन्न रूपों में मौजूद है. असमानताएं हमारे डीएनए में है. साउथ सिनेमा का ये दलित मूवमेंट दक्षिण से उत्तर भारत की ओर निकल पड़ा. इसका पहला असर फिल्म '200 हल्ला हो' के रूप में मराठी सिनेमा में देखने को मिल रहा है.
फिल्म '200 हल्ला हो' ओटीटी प्लेटफॉर्म Zee5 पर रिलीज हुई है. इसमें अमोल पालेकर, रिंकू राजगुरु, बरुण सोबती, साहिल खट्टर, उपेंद्र लिमये और इंद्रनील सेनगुप्ता जैसे कलाकार प्रमुख भूमिका में हैं. निर्देशक सार्थक दासगुप्ता ने इस फिल्म के जरिए उन दलित महिलाओं के बारे में बताया है, जिन्हें सामाजिक रूप से हाशिए पर रहने, छेड़छाड़, प्रताड़ित और अपमानित होने के बावजूद अपने जीवन को बर्बाद करने वाले ज़िम्मेदार व्यक्ति को दंडित करने के लिए कानून अपने हाथ में लेना पड़ा. यह इस बहस को संबोधित करता है कि क्या वे सही थे या गलत थे. यह फ़िल्म उस सामाजिक बदलाव को आवाज़ देती है, जिसकी समाज में ज़रूरत है. बॉलीवुड की फिल्मों में अक्सर जाति के बारे में बात करने से बचा जाता है. महिलाओं को पीड़िता दिखाया जाता है, लेकिन ये दलितों और महिलाओं के ताकतवर होने की बात करती है.
अमोल पालेकर और रिंकू राजगुरु की फिल्म एक सच्ची घटना पर आधारित है. फिल्म की शुरूआत में भी इसका जिक्र कर दिया जाता है. वैसे ये क्लेम करना भी किसी फिल्म मेकर के लिए बहुत साहस का काम है, क्योंकि आजकल तो सच्ची घटना पर बनने वाली फिल्में भी सच्चाई से पल्ला झाड़ लेती है. यह घटना साल 2004 में नागपुर में घटी थी. उस वक्त अक्कू यादव नामक एक लोकल गुंडे, रेपिस्ट, गैंगस्टर और खूनी को खुली अदालत में 200 दलित महिलाओं ने सरेआम मार डाला था. इन महिलाओं ने अक्कू यादव की हैवानियत को 10 साल तक झेला, लेकिन शिकायत करने के बाद भी पुलिस-प्रशासन की मदद नहीं मिली थी. लेकिन उनके ही समाज की ही एक पढ़ी-लिखी लड़की ने अपराध का विरोध किया. महिलाओं को जागृत करके एक साथ किया. अक्कु यादव जैसे आदतन गुंडे के जुल्मों से आजादी दिलाई.
फिल्म की कहानी
फिल्म की कहानी चूंकि सच्ची घटना पर आधारित है, इसलिए फिल्मकार ने उससे छेड़छाड़ नहीं की है. शुरूआत कोर्ट से होती है, जहां 200 महिलाओं का एक झुंड हाथ में हथियार लिए कोर्ट रूम में घुस जाता है. जज और पुलिस की मौजूदगी में लोकल गुंडे बल्ली चौधरी (साहिल खट्टर) चाकू, कैंची और स्क्रू ड्राइवर से छलनी कर देता है. यहां तक कि उसका प्राइवेट पार्ट भी काट देता है. इसके बाद महिलाएं गायब हो जाती हैं. पुलिस किसी का चेहरा तक नहीं देख पाती. चुनाव नजदीक होने की वजह से इस हाईप्रोफाइल केस को नेताओं के इशारे पर पुलिस सुलटाने में लग जाती है. पुलिस की एक टीम नागपुर के राही नगर की पांच महिलाओं को गिरफ्तार कर लेती है. उनको थाने लाकर थर्ड डिग्री देकर सच कबूल करने के लिए कहा जाता है, लेकिन कोई भी महिला अपना मुंह नहीं खोलती. उनके साथ पुलिस बहुत सख्ती करती है.
इधर महिलाओं को रिहा कराने के लिए एक दलित युवती आशा सुर्वे (रिंकू राजगुरु) आंदोलन करती है. महिलाओं की गिरफ्तारी का मुद्दा बड़ा बनता देख राजनीतिक दबाव में आकर महिला आयोग एक जांच कमेटी बना देती है. रिटायर्ड जज विट्ठल डांगले (अमोल पालेकर) इसका अध्यक्ष बना दिया जाता है, जो एक वकील, प्रोफेसर और पत्रकार के साथ मामले की जांच शुरू करते हैं. विट्ठल डांगले की जांच में परत-दर-परत जब मामले का खुलासा होता है, तब जाकर पता चलता है कि बल्ली चौधरी जैसे गुंडे कैसे सामाजिक ताने-बाने और राजनीतिक रसूख का फायदा उठाकर शोषण करते हैं. पुलिस भी उनका साथ देती है. ऐसे में विवश जनता मजबूर होकर अपनी नरक भरी जिंदगी को सच मान लेती है. लेकिन जब आशा सुर्वे के रूप में आशा किरण दिखाई देती है, तो इन्हीं लोगों में हिम्मत और साहस का संचार हो जाता है.
फिल्म में दलित विमर्श के पन्ने धीरे-धीरे खुलते चले जाते हैं. रिटायर्ड जज विट्ठल डांगले खुद दलित हैं, लेकिन उन्होंने अपनी सामाजिक हैसियत उठने के बाद मुड़कर नहीं देखा. वह दोषी करार दी गई महिलाओं के लिए लड़ने वाली दलित युवती आशा सुर्वे (रिंकू राजगुरु) की बातों से शुरुआत में सहमत नहीं होते मगर धीरे-धीरे स्थितियां बदलती हैं. उन्हें लगने लगता है कि कानून की आंखों पर बंधी पट्टी को अब खोल देना चाहिए क्योंकि आज बंद आंखों से नहीं बल्कि निगाहें चौकन्नी रख कर न्याय करना जरूरी हो गया है. इधर सरकार महिलाओं को सजा मिल जाने के बाद जांच कमेटी भंग कर देती है. लेकिन विट्ठल डांगले और आशा सुर्वे की वजह से केस रिओपेन होता है. इस तरह एक घटना के जरिए दलितों, महिलाओं, अपराधियों और राजनेताओं के गठजोड़ को बखूबी दिखाया गया है.
फिल्म की समीक्षा
फिल्म '200 हल्ला हो' के जरिए दिग्गज अभिनेता अमोल पालेकर करीब एक दशक बाद फिल्मों में वापसी कर रहे हैं. उन्होंने हमेशा की तरह अपने किरदार के साथ पूरा न्याय किया है. यहां तक कि उनके सह-कलाकार भी उनकी वजह से अपनी बेहतर परफॉर्मेंस देते हुए नजर आते हैं. पालेकर का सधा-संतुलित अभिनय कमाल का है. उनकी सहज संवाद अदायगी में सादगी का जादू आज भी कायम है. मराठी फिल्म 'सैराट' फेम एक्ट्रेस रिंकू राजगुरु ने भी शानदार अभिनय किया है. दलित युवा आशा सुर्वे के किरदार में वो इस कदर समां गई हैं कि एक मिनट के लिए भी उनसे नजरें नहीं हटती. पालेकर और रिंकू राजगुरू दलितों की दो विपरीत छोर पर खड़ी पीढ़ियों का प्रतिनिधित्व करते हैं. एक जिसने तरक्की के बाद अपनी जड़ें छोड़ दी और दूसरी जो पढ़-लिख कर आगे बढ़ जाने के बजाय अपनी दुनिया को ही सुंदर बनाना चाहती है.
एक तेज-तर्रार और निडर पत्रकार सोनी के किरदार में सलोनी बत्रा, एक भ्रष्ट पुलिस वाले के किरदार में उपेंद्र लिमये और एक वकील के किरदार में बरुन सबोती ने अपने-अपने हिस्से का मजबूत योगदार दिया है. सबसे ज्यादा खटका है गुंडे बल्ली चौधरी का किरदार, जिसे साहिल खट्टर ने निभाया है. यह किरदार जितना खूंखार और वहशी है, साहिल उस तरह खुद को दिखा नहीं पाए हैं. कई जगह तो वो बनावटी लगते हैं. स्टार्स की परफॉर्मेंस के बाद यदि पटकथा और संवाद की बात की जाए, तो दोनों ही बेहतर है. फिल्म की पटकथा निर्देशक सार्थक दासगुप्ता ने अभिजीत दास और सौम्यजित रॉय के साथ मिलकर लिखी. कई संवाद ऐसे हैं, जो फिल्म खत्म होने के बाद भी जेहन में गूंजते रहते हैं. जैसे- 'जेल बाहर की दुनिया से अच्छी है, यहां कोई दलित नहीं कोई ब्रह्माण नहीं', 'संविधान में लिखे शब्दों का याद होना नहीं उनका इस्तेमाल होना जरूरी है' और 'दलित होना किसी की मॉरैलिटी का सबूत नहीं'. ये डायलॉग फिल्म को डिलिवर करने में कामयाब रहते हैं.
देखनी चाहिए या नहीं?
जहां तक फिल्म के तकनीकी पक्ष की बात है, तो छायांकन कुछ दृश्यों में शानदार है, लेकिन कहीं-कहीं बहुत कमजोर भी नजर आता है. उदाहरण के लिए कोर्ट में दलित महिलाओं द्वारा अपराधी पर हमला करने वाले दृश्य को बढ़िया दर्शाया गया है, लेकिन बस्ती के अंदर शूट किए गए कुछ दृश्य धुंधले से दिखते हैं. फिल्म संपादन अच्छा है. 2 घंटे से कम समय में एक बड़ी घटना को पूरा समेट देना भी किसी चुनौती से कम नहीं है, जिसे संपादक ने स्वीकार किया है. कुल मिलाकर, फिल्म '200 हल्ला हो' बिना किसी हो हल्ला के रिलीज हुई एक सच्ची घटना पर आधारित एक गंभीर फिल्म है, जो बिना शोर-शराबे के अपना संदेश दे जाती है. इसे देखा जाना चाहिए.
iChowk.in रेटिंग- 5 में से 3 स्टार
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