भले लोग सहमत नहीं हों, लेकिन वीर भोग्या वसुंधरा वाला सूत्र सिनेमा में भी फिट बैठता है. ऐसा इसलिए, क्योंकि सिनेमा अपने मैक्रो रूप में एक सफल उद्योग है और उसकी अपनी रीति-नीति है. अवार्ड समारोह, फिल्मोत्सव, प्रचार-दुष्प्रचार आदि इस नीति के टूल हैं. अमेरिका की प्रतिष्ठित अकादमी अवार्ड, जिसे आम भाषा में ऑस्कर कहा जाता है, वह भी इस नीति से अछूता नहीं है. अमेरिकी वर्चस्व के अभियान में इसने भी सॉफ्ट वीपन के रूप में अपना योगदान दिया है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता है.
भारत में ऑस्कर इस बार विशेषरूप से चर्चा में है, क्योंकि पहली बार किसी भारतीय फिल्म के गाने को सर्वश्रेष्ठ गाने का पुरस्कार मिला है. पहली बार मिला है, इसका यह अर्थ भी हुआ कि अकादमी अवार्ड के 95 वर्षों के इतिहास में इससे पहले एक भी भारतीय गाना ऐसा नहीं था, जिसे पुरस्कार मिलने लायक समझा गया! आश्चर्य. गाने के अलावा कोई फिल्म भी नहीं. 'मदर इंडिया' में क्या खराबी थी? यही कि ऑस्कर के आकाओं को फिल्म समझ नहीं आई. यही कि एक भारतीय विधवा ने लाला के ऑफर क्यों ठुकरा दिया, यह भारतीय मूल्य उनके गले नहीं उतरा. आज ऑस्कर मिलने पर हम इतरा रहे हैं. इतराना भी चाहिए. लेकिन, मेरी दृष्टि में इसका एक और पक्ष है. इसको ऐसे समझिए.
जिन्हें नहीं पता हो वे जान जाएं कि वैसे भी ऑस्कर एक पॉपुलर अवार्ड कैटगरी है, जो पूरी तरह बाजार सापेक्ष है. जगजाहिर है कि ऑस्कर मिले फिल्मों को अमेरिका-इंग्लैंड में दोबारा रिलीज कर पैसे बनाए जाते हैं, जहां सिनेमाई उत्कृष्टता से अधिक व्यवसाय-विपणन का गणित काम करता है. तेलुगु फिल्म निर्माता तम्मारेड्डी भारद्वाज का कहना है कि 600 करोड़ में बनी आरआरआर को प्रोमोट करने और अपने पक्ष में वोटरों की लॉबी करने के लिए 80 करोड़ रुपए खर्चने पड़े. इतने पैसे में तो कई फिल्में बन जातीं. यानी आकादमी में अर्थ...
भले लोग सहमत नहीं हों, लेकिन वीर भोग्या वसुंधरा वाला सूत्र सिनेमा में भी फिट बैठता है. ऐसा इसलिए, क्योंकि सिनेमा अपने मैक्रो रूप में एक सफल उद्योग है और उसकी अपनी रीति-नीति है. अवार्ड समारोह, फिल्मोत्सव, प्रचार-दुष्प्रचार आदि इस नीति के टूल हैं. अमेरिका की प्रतिष्ठित अकादमी अवार्ड, जिसे आम भाषा में ऑस्कर कहा जाता है, वह भी इस नीति से अछूता नहीं है. अमेरिकी वर्चस्व के अभियान में इसने भी सॉफ्ट वीपन के रूप में अपना योगदान दिया है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता है.
भारत में ऑस्कर इस बार विशेषरूप से चर्चा में है, क्योंकि पहली बार किसी भारतीय फिल्म के गाने को सर्वश्रेष्ठ गाने का पुरस्कार मिला है. पहली बार मिला है, इसका यह अर्थ भी हुआ कि अकादमी अवार्ड के 95 वर्षों के इतिहास में इससे पहले एक भी भारतीय गाना ऐसा नहीं था, जिसे पुरस्कार मिलने लायक समझा गया! आश्चर्य. गाने के अलावा कोई फिल्म भी नहीं. 'मदर इंडिया' में क्या खराबी थी? यही कि ऑस्कर के आकाओं को फिल्म समझ नहीं आई. यही कि एक भारतीय विधवा ने लाला के ऑफर क्यों ठुकरा दिया, यह भारतीय मूल्य उनके गले नहीं उतरा. आज ऑस्कर मिलने पर हम इतरा रहे हैं. इतराना भी चाहिए. लेकिन, मेरी दृष्टि में इसका एक और पक्ष है. इसको ऐसे समझिए.
जिन्हें नहीं पता हो वे जान जाएं कि वैसे भी ऑस्कर एक पॉपुलर अवार्ड कैटगरी है, जो पूरी तरह बाजार सापेक्ष है. जगजाहिर है कि ऑस्कर मिले फिल्मों को अमेरिका-इंग्लैंड में दोबारा रिलीज कर पैसे बनाए जाते हैं, जहां सिनेमाई उत्कृष्टता से अधिक व्यवसाय-विपणन का गणित काम करता है. तेलुगु फिल्म निर्माता तम्मारेड्डी भारद्वाज का कहना है कि 600 करोड़ में बनी आरआरआर को प्रोमोट करने और अपने पक्ष में वोटरों की लॉबी करने के लिए 80 करोड़ रुपए खर्चने पड़े. इतने पैसे में तो कई फिल्में बन जातीं. यानी आकादमी में अर्थ के प्रभाव के योगदान से इनकार नहीं किया जा सकता. हालांकि इसका यह मतलब भी नहीं है कि जो इतने पैसे व्यय करेगा, उसे ट्रॉफी मिल ही जाएगी. पुरस्कार कोई आम प्रोडक्ट नहीं है, जिसे एक हाथ से पैसे देकर, दूसरे हाथ से खरीद लिया जाए.
भारत को रिझाने का एक और कारण हो सकता है. कोराना महामारी से पहले, ऑस्कर पुरस्कार समारोह के लिए सबसे कम टीवी दर्शकों की संख्या 32 मिलियन थी, लेकिन 2021 में यह घटकर केवल 14 मिलियन हो गई और 2022 में यह 17 मिलियन हो गई. इसका आधिकारिक टीवी प्रसारक एबीसी के माननीयों को झटका लगा, क्योंकि इसके विज्ञापनदाताओं के लिए दर्शकों की संख्या बहुत मायने रखती है. दर्शकों की संख्या बढ़ाने के लिए विशाल भारतीय आबादी एक आदर्श विकल्प हो सकती है और इस साल यानी 2023 में दर्शकों की संख्या बढ़कर लगभग 19 मिलियन हो गई. क्या दि एलिफैंट व्हिसपर्स और नाटु-नाटु की जीत की खबर का अकादमी अवार्ड शो के दर्शकों की संख्यावृद्धि पर कोई असर पड़ा है? क्या किसी भी तरह की भारतीय भागीदारी भविष्य में इसके दर्शकों की संख्या को बढ़ावा देगी? अगर देगी, तो जाहिर है इनका बाजार बढ़ेगा. जैसे वर्षों पहले विश्व सौंदर्य प्रतियोगिता में भारतीय भागीदारी ने पर्सनल केयर उत्पादों के बाजार को आगे बढ़ाया है. सोचिए!
ऑस्कर विजेता गाना 'नाटु-नाटु' मूलत: हाई ऑक्टेन नोट पर रचा गया एक मसाला गाना है. ऐसे गाने रचने में दक्षिण के संगीतकार दक्ष हैं और उन्होंने दर्जनों ऐसे गाने रचे हैं. आरआरआर चुकी कालजयी फिल्म है, इसलिए गाने की चर्चा हुई. वरना, ऑस्कर की सूची में नामांकित होने के पहले कहां यह गाना यूथ एंथम बन गया था? इससे अधिक चर्चा तो पुष्पा के गाने 'ऊअंतावा' का हुआ. यहां स्पष्ट कर देना चाहिए कि 'नाटु-नाटु' के पुरस्कार मिलने पर किसी को आपत्ति नहीं है, होनी भी नहीं चाहिए. बल्कि, आपत्ति इस बात पर है कि 'नाटु-नाटु' के मुकाबले कई भारतीय गाने हैं, जो अतिलोकप्रिय हैं और कालजयी भी. फिर उन्हें आजतक ऑस्कर वालों द्वारा क्यों नजरअंदाज किया गया? प्रश्न तो बनता है.
जिन्हें नहीं पता हो वे जान जाएं कि वैसे भी ऑस्कर एक पॉपुलर अवार्ड कैटगरी है, जो पूरी तरह बाजार सापेक्ष है. जगजाहिर है कि ऑस्कर मिले फिल्मों को अमेरिका-इंग्लैंड में दोबारा रिलीज कर पैसे बनाए जाते हैं, जहां सिनेमाई उत्कृष्टता से अधिक व्यवसाय-विपणन का गणित काम करता है. तेलुगु फिल्म निर्माता तम्मारेड्डी भारद्वाज का कहना है कि 600 करोड़ में बनी आरआरआर को प्रोमोट करने और अपने पक्ष में वोटरों की लॉबी करने के लिए 80 करोड़ रुपए खर्चने पड़े. इतने पैसे में तो कई फिल्में बन जातीं. यानी आकादमी में अर्थ के प्रभाव के योगदान से इनकार नहीं किया जा सकता. हालांकि इसका यह मतलब भी नहीं है कि जो इतने पैसे व्यय करेगा, उसे ट्रॉफी मिल ही जाएगी. पुरस्कार कोई आम प्रोडक्ट नहीं है, जिसे एक हाथ से पैसे देकर, दूसरे हाथ से खरीद लिया जाए.
ठीक है लोकप्रियता के अलावा गुणवत्ता भी कोई चीज़ होती है. यही न तो सी. रामचंद्र, सचिन, पंचम, खय्याम, नौशाद, नय्यर की गुणवत्ता पर ऑस्कर वालों को संदेह था क्या? अब तक क्यों नहीं आया ऑस्कर? उल्टे देखा गया है कि गानों से सुसज्जित भारतीय फिल्मों को म्यूजिकल स्पूफ कहकर पश्चिम द्वारा तंज कसा जाता था. क्यों? क्योंकि तब भारत कमजोर था. गेहूं के लिए हाथ फैलाने वाला भारत. आज स्थिति अलग है, क्योंकि आज भारत सामर्थ्यवान है. इतना कि कोरोनाकाल में संकट में फंसे अमेरिका तक को दवा भेज दी. इतना सामर्थ्यवान कि यूरोप के कई विकसित देशों के सैटेलाइट भारतीय अंतरिक्ष केंद्र से प्रक्षेपित किए जा रहे हैं. इतना सामर्थ्यवान कि रूस-यूक्रेन युद्ध पर अमेरिका भी मान रहा है कि भारत को इसमें हस्तक्षेप करना चाहिए.
इसलिए, अब इतने सामर्थ्यवान भारत को कोई अंतर्राष्ट्रीय ट्रॉफी मिले या न मिले, लेकिन भारत पर पूर्व की भांति अब तंज कसना कोई अफोर्ड नहीं कर सकता. ऑस्कर वालों को यह बात पता है. भारत में क्रिकेट कूटनीति लोकप्रिय है, उसी तरह अमेरिका में सिने कूटनीति. जो लोग इस के गूढ़ार्थ को समझते हैं, उन्हें पता है कि ऑस्कर समारोह में होने वाले प्रदर्शन, मजाक, ईनाम कोई संयोग नहीं, बल्कि प्रयोग होते हैं. क्रिएटिविटी, टैलेंट, आर्ट ये सब मंच पर दिखाने के लिए... हाथी की दांत की तरह. पर्दे के पीछे केवल प्रताप काम करता है. 21वीं सदी में भारत तेजी से बढ़ रहा है. याद कीजिए, कुछ वर्ष के अंदर भारत में विश्व सुंदरियों की लाइन लग गई थी. फिर सूखा पड़ गया. क्यों? सोचिए. हो सकता है कि आने वाले अगले कुछ सालों में भारत को ताबड़तोड़ ऑस्कर थमा दिए जाएं. बेस्ट फिल्म कैटगरी वाला भी.
तीन वर्ष पहले ऑस्कर के 92 वर्ष के इतिहास में पहली बार किसी गैर अंग्रेज़ी फिल्म 'पैरासाइट' (कोरियन) को सर्वश्रेष्ठ फिल्म का इनाम मिला. यानी अंग्रेजी से बाहर देखने में ऑस्कर को पूरे 92 साल लग गए. इन 92 सालों में गोदार, त्रुफो, रोसेलिनी, फेलीनी, डि सिका, बर्गमैन, रे, कुरोसावा, टार, माजिदी, घटक, दत्त, अडूर, बेनेगल, घोष, रत्नम. इन महान फिल्मकारों में से किसी की भी फिल्म बेस्ट नहीं थी? क्यों? केवल इसलिए कि ये लोग अंग्रेजी भाषा में फिल्में नहीं बनाते थे. वाकई. इनके लिए एक फॉरेन लैंग्वेज कैटगरी का लेमनचूस थमा दिया जाता है. दूसरा उदाहरण देखिए, इस बार के ऑस्कर पुरस्कारों में मलेशियाई अभिनेत्री मिशेल योह को सर्वश्रेष्ठ अदाकारा का ट्रॉफी मिला.
इस तरह वे यह पुरस्कार पाने वाली पहली एशियाई महिला बनीं. फिर वही सवाल कि इतने सालों में एशिया से कोई प्रतिभा वाली कलाकार ऑस्कर वालों को नहीं मिला. यानी क्षेत्रीय व भाषाई नस्लवाद की कुंठा में डूबे लोग आज विश्व के मानक स्थापित करने लगे हैं. जब आंख में थोड़ी सी लाज बची तो कोलकाता आकर रे साहब को ट्रॉफी पकड़ा दी. उससे पहले अकादमी अवार्ड वालों ने रे की फिल्में नहीं देखी थीं क्या?
ऑस्कर वाले मदर इंडिया के समय भारत को नहीं समझ पाए थे, क्योंकि उनकी नजर में भारत तब एक कमजोर देश था. लेकिन, दु:ख है कि वे आज भी भारत को नहीं समझ पाए हैं, जबकि अब यह एक शक्तिशाली राष्ट्र बन गया है. यह उनकी नासमझी है. इसका उदाहरण ऑस्कर पुरस्कार के होस्ट जिम्मी किमेल ने आरआरआर को बॉलीवुड फिल्म कह दिया. बाद में जब सोशल मीडिया पर उनकी खींचाई हुई, तब उन्हें गलती का एहसास हुआ. लेकिन, यह सच में एक मानवीय भूल थी या जानबूझकर की गई गलती? यह महत्वपूर्ण है क्योंकि अस्सी के दशक में बंबईया सिनेमा को उपहास स्वरूप पश्चिम ने बॉलीवुड की संज्ञा दी थी. यानी हॉलीवुड की जो नकल बंबई में किया जाए, वह बॉलीवुड है. यूरोप से लेकर मध्यपूर्व तक व अफ्रीका से लेकर जापान तक, किसी भी सिने उद्योग को 'वुड' नहीं कहा जाता, सिर्फ भारत को छोड़कर. सोचिए, क्यों?
बात थोड़ी कड़वी व अटपटी लगेगी, लेकिन सच है कि यह पूर्वाग्रह से भरे लोगों की जमात है, जो अपनी सुविधानुसार सर्टिफिकेट बांटते फिरते हैं. हमारा सिनेमा श्रेष्ठ है, यह हम जानते हैं. और हम ही अपनी श्रेष्ठता का सर्टिफिकेट स्वयं को देंगे. इतने दिनों से पश्चिम भी तो यही करता है न. हमारी मदर इंडिया बेस्ट थी, ऐसे हमारी तीसरी कसम, जागृति, नीचा नगर, झनक—झनक पायल बाजे भी बेस्ट ही थीं. और आज हमारी बाहुबली बेस्ट है, इसी प्रकार आरआरआर, तानाजी, रॉकेट्री, ए वेडनेसडे, पैडमैन, असुरन, कर्णन, कांतारा आदि भी बेस्ट हैं. देर-सबेर उनको यह बात समझ आएगी.
दस वर्ष पहले स्लमडॉग मिलेनियर के 'जय हो' गाने के लिए गीतकार गुलजार एवं संगीतकार रहमान को ऑस्कर मिले थे, हालांकि अमेरिकी प्रोडक्शन हाउस का वह प्रोजेक्ट था. आज आरआरआर के गाने व 'दि एलिफैंट व्हिस्पर्स' वृत्तचित्र को ऑस्कर मिले हैं. यह भारत पर कोई फेवर नहीं, बल्कि उनकी जरूरत ळै. ऐसे पुरस्कार आगे भी मिलेंगे. या नहीं भी मिलेंगे. लेकिन, एक बात ब्रह्मांडीय सत्य है कि हमारी फिल्में न केवल भारतीय संस्कृति की संवाहक हैं, बल्कि विश्व का सबसे बड़ा सिनेउद्योग भी हैं, जिन्होंने भारत के व भारत के बाहर के हजारों लोगों को रोजगार दिया है. सबसे बड़ी बात है कि विश्व की एक प्राचीन सभ्यता को भारतीय सिनेमा ने नए युग में विश्व क्षितिज पर प्रचारित व स्थापित किया है. इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत और उसका सिनेमा उत्कृष्ट स्तर का है. बस, विश्व द्वारा स्वीकारने भर की देरी है. झुकती है दुनिया, झुकाने वाला चाहिए.
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