यह सुंदर बात है कि भारत में निर्मित एक ऐसे लघु वृत्तचित्र को ऑस्कर पुरस्कार दिया गया है, जिसकी मूल्य-दृष्टि अचूक है. उसका मर्म अपने सही स्थान पर है. यह फ़िल्म पशुओं में एक चेतना का दर्शन करती है, उन्हें बुद्धिमान, भावुक, सजल प्राणपुंज की तरह प्रदर्शित करती है, मनुष्यों और पशुओं के बीच एक आत्मीय, रागात्मक सम्बंध का चित्रण करती है और एक ऐसी दुनिया की झांकी प्रस्तुत करती है, जिसमें प्रकृति की संतानें- मनुष्य और पशु- साथ-साथ सुख से जीते हों, उनकी समान अस्मिता-गरिमा हो, उनके जीवन का समान मोल हो, और उनके बीच परस्पर संघर्ष नहीं, समरसता हो. यह संदेश साधारण नहीं है!
जब अकादमी पुरस्कारों के लिए फ़िल्में शॉर्टलिस्ट होती हैं तब उनकी गुणवत्ता निर्विवाद होती है. अमूमन नामांकित की गई पांच फ़िल्में समान रूप से उत्कृष्ट होती हैं. तब किसी एक फ़िल्म को पुरस्कृत करने का निर्णय उसकी मूल्य-दृष्टि के आधार पर लिया जाता है. पश्चिम में आज जलवायु-परिवर्तन बड़ा प्रश्न है. भारत में अभी उस व्याकुलता का अंश भी नहीं पहुंचा है, लेकिन पश्चिम की देखादेखी जल्द ही पहुंचेगा. वहां पर यह मुख्यधारा की चिंता बन चुकी है- चुनाव जिताने, हराने वाली.
जब वे उस दिशा में सोचते हैं और ज़ीरो कार्बन का मूलमंत्र जपते हैं तो स्वत: ही वो स्वयं को उन मूल्यों की ओर यात्रा करते पाते हैं, जिसमें पर्यावरण का संरक्षण, मनुष्य और प्रकृति के बीच सामंजस्य, पशुओं के अधिकार और आदिवासियों की अस्मिता का पुनर्वास आदि गुंथे होते हैं. कार्तिकी गोंज़ाल्विस की फ़िल्म 'द एलीफ़ैंट व्हिस्परर्स' (यानी हाथियों के कानों में फुसफुसाकर उनसे बातें करने वाले लोग) में उन्हें यह पूरा पैकेज एकसाथ मिल गया. इसने उन्हें मुग्ध किया, क्योंकि बात न केवल मर्म को छूती थी, उसकी उनके लिए एक तात्कालिक प्रासंगिकता भी थी.
ट्राइबल्स और इंडीजीनियस...
यह सुंदर बात है कि भारत में निर्मित एक ऐसे लघु वृत्तचित्र को ऑस्कर पुरस्कार दिया गया है, जिसकी मूल्य-दृष्टि अचूक है. उसका मर्म अपने सही स्थान पर है. यह फ़िल्म पशुओं में एक चेतना का दर्शन करती है, उन्हें बुद्धिमान, भावुक, सजल प्राणपुंज की तरह प्रदर्शित करती है, मनुष्यों और पशुओं के बीच एक आत्मीय, रागात्मक सम्बंध का चित्रण करती है और एक ऐसी दुनिया की झांकी प्रस्तुत करती है, जिसमें प्रकृति की संतानें- मनुष्य और पशु- साथ-साथ सुख से जीते हों, उनकी समान अस्मिता-गरिमा हो, उनके जीवन का समान मोल हो, और उनके बीच परस्पर संघर्ष नहीं, समरसता हो. यह संदेश साधारण नहीं है!
जब अकादमी पुरस्कारों के लिए फ़िल्में शॉर्टलिस्ट होती हैं तब उनकी गुणवत्ता निर्विवाद होती है. अमूमन नामांकित की गई पांच फ़िल्में समान रूप से उत्कृष्ट होती हैं. तब किसी एक फ़िल्म को पुरस्कृत करने का निर्णय उसकी मूल्य-दृष्टि के आधार पर लिया जाता है. पश्चिम में आज जलवायु-परिवर्तन बड़ा प्रश्न है. भारत में अभी उस व्याकुलता का अंश भी नहीं पहुंचा है, लेकिन पश्चिम की देखादेखी जल्द ही पहुंचेगा. वहां पर यह मुख्यधारा की चिंता बन चुकी है- चुनाव जिताने, हराने वाली.
जब वे उस दिशा में सोचते हैं और ज़ीरो कार्बन का मूलमंत्र जपते हैं तो स्वत: ही वो स्वयं को उन मूल्यों की ओर यात्रा करते पाते हैं, जिसमें पर्यावरण का संरक्षण, मनुष्य और प्रकृति के बीच सामंजस्य, पशुओं के अधिकार और आदिवासियों की अस्मिता का पुनर्वास आदि गुंथे होते हैं. कार्तिकी गोंज़ाल्विस की फ़िल्म 'द एलीफ़ैंट व्हिस्परर्स' (यानी हाथियों के कानों में फुसफुसाकर उनसे बातें करने वाले लोग) में उन्हें यह पूरा पैकेज एकसाथ मिल गया. इसने उन्हें मुग्ध किया, क्योंकि बात न केवल मर्म को छूती थी, उसकी उनके लिए एक तात्कालिक प्रासंगिकता भी थी.
ट्राइबल्स और इंडीजीनियस समुदायों के प्रति पश्चिम में एक एंथ्रोपोलॉजिकल उत्सुकता रही आई है. उन्हें उनकी जीवन-झांकियां अतीत में भी आकृष्ट करती रही हैं. यह उनके लिए एक अभिनव ह्यूमन-लैंडस्केप होता है. एक पैगन क़िस्म की प्रकृति-पूजक सम्वेदना भी उन्हें कौतूहल से भरती है, जो भारत में रची-बसी है. 'द एलीफ़ैंट व्हिस्परर्स' में गजराज का पूजन गणपति के प्रतीक के रूप में करना, उन्हें फूलमालाओं से सज्जित करना, उनके शरीर पर अल्पना सजाना आदि ऐसी चीज़ें हैं, जो पश्चिम के लिए आश्चर्यलोक से कम नहीं. भारत में तो यह दैनन्दिन के चित्र हैं. हाथियों और महावतों, नागों और संपेरों का यह देश वृक्षों, नदियों, प्राणियों में देवता के दर्शन करके उन्हें पूजता रहा है.
इससे किसी को यहां ईशद्रोह की अनुभूति नहीं हुई है. लेकिन पशु-अधिकार, वीगनिज़्म, पर्यावरण-संरक्षण, स्वच्छ-ऊर्जा की चिंताओं के प्रति निरंतर सजग हो रहा पश्चिम इन प्रतीकों को एक अतिरिक्त ऊष्मा से देखता-निहारता है. उसी के प्रभाव में आकर उसने इस वृत्तचित्र को सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार से नवाज़ा है. अब द्रविड़-हरीतिमा के नयनाभिराम चित्रों से सजी 41 मिनटों की यह फ़िल्म पूरी दुनिया में देखी जा रही है. अपने नैसर्गिक, निष्कलुष संदेश के साथ यह जहां-जहां जाएगी, शुभत्व और सम्वेदना का संचार ही करेगी.
तमिलनाडु के कट्टुनायकन समुदाय के बोम्मन और बेल्ली अधेड़ आयु में होने के बावजूद केवल इसलिए विवाह कर लेते हैं, ताकि साथ रहकर दो नन्हें हाथियों की देखभाल कर सकें. वे उन हाथियों को अपने बच्चों की तरह स्नेह से पालते-पोसते हैं, क्योंकि वो अपने झुण्ड से बिछड़ गए हैं. परिवार-संस्था की यह अभिनव और व्यापक दृष्टि पश्चिम को लुभा गई. फ़िल्म की निर्देशिका कार्तिकी गोंज़ाल्विस ने बेंगलुरू से ऊटी तक की यात्रा के दौरान नीलगिरि के जंगलों में बोम्मन को उनके गजशिशु रघु के साथ देखा था. उन्होंने पाया कि उनका परस्पर स्नेह असामान्य था. वे थेप्पाकाडु के इस क्षेत्र से परिचित थीं, जहां एक एलीफ़ैंट कैम्प है.
उन्होंने बोम्मन, बेल्ली और उनके दोनों 'बच्चों' रघु और अम्मु के साथ लम्बा समय बिताया. फिर धीरे-धीरे उनकी गतिविधियों का फ़िल्मांकन करने लगीं. यह सब अनियोजित रूप से शुरू हुआ. पांच वर्षों के अंतराल में उन्होंने 400 घंटे के फ़ुटेज शूट किए, जिन्हें बाद में नेटफ़्लिक्स की पेशेवर टीम की मदद से सम्पादित करके 40 मिनटों में समेटा गया. यह कार्तिकी का पहला ही वृत्तचित्र है. इसे पश्चिम में प्रदर्शित कर पाना उनकी बड़ी सफलता थी, जिसके चलते फ़िल्म को ऑस्कर का नामांकन मिला. उसके बाद उसका जीतना सहज था. मुझे संदेह नहीं कि शॉर्टलिस्ट में और बेहतर वृत्तचित्र भी होंगे, पर इसमें प्रदर्शित मूल्य-दृष्टि पश्चिम को उसके मौजूदा परिप्रेक्ष्यों के आलोक में लुभा गई है.
यह फ़िल्म अब पुरस्कृत होने के बाद वन्य-पशुओं के कल्याण-संरक्षण की चेतना को विश्वभर में और मुखर ही बनावेगी और यही उसकी सफलता में निहित संतोष का प्रसंग है. मनुष्य और पशु प्रकृति के मण्डप में, एक-दूसरे को क्षति पहुंचाए बिना, स्नेह और सामंजस्य से साथ रह सकते हैं- इससे बड़ा संदेश आज संसार के लिए कोई दूसरा नहीं हो सकता. सबकुछ इस पर निर्भर करता है- मनुष्यता का समूचा नैतिक-भविष्य- कि अपने पर्यावास के प्रति उसके रुख़ में कितनी करुणा, अहिंसा, विवेकशीलता और स्नेह-ऊष्मा है. पृथ्वी की रक्षा अगर होगी तो कोमल फुसफुसाहटों सरीखे इन अश्रव्य जीवन-मूल्यों से ही होगी- हाथियों के कानों में अस्फुट स्वरों से भरे उच्छ्वास! शुभमस्तु.
'दी एलिफेंट व्हिस्परर्स' का ट्रेलर देखिए...
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