कहते हैं दिलीप कुमार हॉलीवुड अभिनेता पॉल म्युनी से बहुत मुतास्सिर थे. ठीक उसी तरह, जैसे देव आनंद पर ग्रेगरी पेक, शम्मी कपूर पर जेम्स डीन और एल्विस प्रेस्ले और राज कपूर पर क्लार्क गैबल और चार्ली चैप्लिन का प्रभाव था. कारण, पॉल म्युनी का अंडरटोन और संयत देहभाषा, और साथ ही आत्ममंथन में डूबी हुई छवि. परदे पर म्युनी को देखकर हमेशा ऐसा लगता था जैसे वे कुछ सोच रहे हैं. सोच में डूबे हुए हैं. हूबहू यही ख़ासियत दिलीप कुमार के अभिनय की भी रही है. एक अंतर्मुखी नायक, जो ख़ुद को मिटा देगा, लेकिन जिसके भीतर झांककर देखने की इजाज़त किसी को मिल नहीं सकेगी. हां, उसके भीतर कैसे ज्वार-भाटे आए हैं, इसका कुछ-कुछ अंदाज़ा ज़रूर हम परदे पर उसको देखकर लगा सकते हैं, और हमारा यह अंदाज़ा दिलीप की अदाकारी के सघन प्रभाव के बरअक़्स ही है. यानी कि एक अभिनेता के रूप में दिलीप का जो प्रभाव हमारे ज़ेहन पर बनता है, वह ठीक वही है, जो उनके भीतर के उतार-चढावों के हमारे हाथ से छूटते चले जाने के क़ायनाती अफ़सोस के चलते हमारे भीतर बना है. एक ख़ामोश गूंज की तरह.
कहने को तो अपनी मैथड एक्टिंग शैली के चलते मार्लन ब्रांडो और दिलीप कुमार के बीच भी समानताएं तलाशी जाती रही हैं. अलबत्ता दिलीप ने कभी मार्लन ब्रांडो की तरह बड़ी चुनौतियां स्वीकार नहीं कीं. लेकिन यह शायद दिलीप से ज्यादा दिलीप के दर्शकों की सीमा थी. एक दफ़े सत्यजीत राय ने भी कहा था कि मैं फ़ेल्लीनी जैसी फिल्में नहीं बना सकता क्योंकि मेरे पास वैसे दर्शक नहीं हैं. दिलीप भी एपोकैलिप्टिक नाऊ और लास्ट टैंगो इन पेरिस जैसी फिल्में नहीं कर सकते थे. अलबत्ता वे गॉडफ़ादर जैसी फिल्मा ज़रूर कर सकते थे, लेकिन किसी ने उनके लिए वैसी फिल्म बनाई ही नहीं. अरसे बाद दिलीप की अभिनय परंपरा के उत्तराधिकारी अमिताभ बच्चन के लिए ज़रूर गॉड फ़ादर स्कूल की फिल्में बनाई गईं.
लेकिन तमाम तुलनाओं के इतर, दिलीप कुमार दिलीप कुमार हैं. वे द दिलीप कुमार हैं. हिंदी सिनेमा के महान त्रासद नायक. सिलेक्टिव इतने कि साठ साल के कॅरियर में साठ...
कहते हैं दिलीप कुमार हॉलीवुड अभिनेता पॉल म्युनी से बहुत मुतास्सिर थे. ठीक उसी तरह, जैसे देव आनंद पर ग्रेगरी पेक, शम्मी कपूर पर जेम्स डीन और एल्विस प्रेस्ले और राज कपूर पर क्लार्क गैबल और चार्ली चैप्लिन का प्रभाव था. कारण, पॉल म्युनी का अंडरटोन और संयत देहभाषा, और साथ ही आत्ममंथन में डूबी हुई छवि. परदे पर म्युनी को देखकर हमेशा ऐसा लगता था जैसे वे कुछ सोच रहे हैं. सोच में डूबे हुए हैं. हूबहू यही ख़ासियत दिलीप कुमार के अभिनय की भी रही है. एक अंतर्मुखी नायक, जो ख़ुद को मिटा देगा, लेकिन जिसके भीतर झांककर देखने की इजाज़त किसी को मिल नहीं सकेगी. हां, उसके भीतर कैसे ज्वार-भाटे आए हैं, इसका कुछ-कुछ अंदाज़ा ज़रूर हम परदे पर उसको देखकर लगा सकते हैं, और हमारा यह अंदाज़ा दिलीप की अदाकारी के सघन प्रभाव के बरअक़्स ही है. यानी कि एक अभिनेता के रूप में दिलीप का जो प्रभाव हमारे ज़ेहन पर बनता है, वह ठीक वही है, जो उनके भीतर के उतार-चढावों के हमारे हाथ से छूटते चले जाने के क़ायनाती अफ़सोस के चलते हमारे भीतर बना है. एक ख़ामोश गूंज की तरह.
कहने को तो अपनी मैथड एक्टिंग शैली के चलते मार्लन ब्रांडो और दिलीप कुमार के बीच भी समानताएं तलाशी जाती रही हैं. अलबत्ता दिलीप ने कभी मार्लन ब्रांडो की तरह बड़ी चुनौतियां स्वीकार नहीं कीं. लेकिन यह शायद दिलीप से ज्यादा दिलीप के दर्शकों की सीमा थी. एक दफ़े सत्यजीत राय ने भी कहा था कि मैं फ़ेल्लीनी जैसी फिल्में नहीं बना सकता क्योंकि मेरे पास वैसे दर्शक नहीं हैं. दिलीप भी एपोकैलिप्टिक नाऊ और लास्ट टैंगो इन पेरिस जैसी फिल्में नहीं कर सकते थे. अलबत्ता वे गॉडफ़ादर जैसी फिल्मा ज़रूर कर सकते थे, लेकिन किसी ने उनके लिए वैसी फिल्म बनाई ही नहीं. अरसे बाद दिलीप की अभिनय परंपरा के उत्तराधिकारी अमिताभ बच्चन के लिए ज़रूर गॉड फ़ादर स्कूल की फिल्में बनाई गईं.
लेकिन तमाम तुलनाओं के इतर, दिलीप कुमार दिलीप कुमार हैं. वे द दिलीप कुमार हैं. हिंदी सिनेमा के महान त्रासद नायक. सिलेक्टिव इतने कि साठ साल के कॅरियर में साठ के लगभग ही फिल्में. परफ़ेक्शकनिस्टस ऐसे कि कोहिनूर फिल्म के महज़ एक दृश्य के लिए तीन महीने अभ्यास कर सितार बजाना सीखा. 1950 के दशक में अवाम के अवचेतन में जिस तरह से दिलीप ने पैठ बनाई थी, वह अभूतपूर्व था. अशोक कुमार को दर्शकों ने तब सराहा था, जब उन्होंने किस्मत में एक खिलंदड़ और बेपरवाह शख़्स की भूमिका निभाई थी. राज कपूर का जूता जापानी था, देव आनंद इतराते शहराती अदाकार थे और शम्मी कपूर का याहू चतुर्दिक गूंजता था. ऐसे में दिलीप ने त्रासद नायक बनने का चयन किया, या शायद नियति ने उन्हें इसके लिए चुना. एक त्रासद नायक के लिए आवश्याक तमाम भौतिक एसेट्स कु़दरत ने उन्हें मुहैया कराए थे : गहरी आंखें, लरज़ती आवाज़, चेहरे पर करुणार्त राग, घनी बरौनियां, पेशानी पर लकीरें. और एक धूप-छांही व्यक्तित्व. आत्म ध्वंस के सूफियाने रूपक का निर्वाह करने का एक अनर्जित गुरुभार. ग्रीक त्रासदियों के महान नायकों की तरह दिलीप कुमार की वह त्रासद छवि तब अवाम के दिल में गहरे घर कर गई थी : किसी अंदरूनी घाव की तरह.
अंदाज़, मेला, दाग़, दीदार, बाबुल, शिकस्ती, फ़ुटपाथ, अमर, देवदास, मधुमती और मुग़ले आज़म. एक के बाद एक सुपरहिट फिल्में आती रहीं. लोग दिलीप कुमार को आंसू बहाते और परदे पर तड़प-तड़पकर दम तोड़ता देखने के लिए लंबी-लंबी क़तार में लगकर उनकी फिल्मों के टिकट ख़रीदते. दिलीप कुमार की फिल्म लगने का मतलब होता था, बॉक्स ऑफिस पर कलदार बरसना. इन संजीदा मिजाज़ वाली फिल्मों के इतर दिलीप कुमार ने हल्की-फुल्की भूमिकाओं वाली फिल्में भी कीं, जैसे आन, आज़ाद, कोहिनूर, नया दौर. यह तो ख़ैर अब एक किंवदंती ही है कि देवदास के बाद किस तरह से मनोचिकित्सकों ने दिलीप को सलाह दी थी कि वे कॉमिक रोल करें, अन्यथा अवसाद में गहरे धंस जाएंगे. इसके बाद उन्होंने आज़ाद की थी. मैथड स्कूल के एक सच्चे कलाकार की ही यह बानगी है कि वह अपनी भूमिका में इतने गहरे उतर जाए कि असल जिंदगी की भूमिकाएं उसके सामने एक प्रकारांतर-सी लगने लगें.
1960 के दशक के प्रारंभ में विनोबा भावे की प्रेरणा से एक तरफ़ जहां भूदान आंदोलन को गति मिली, वहीं दूसरी तरफ़ अनेक दस्युओं द्वारा भी उनके समक्ष समर्पण किया गया था. इसी के साथ हिंदी सिनेमा की कुछ चर्चित दस्यु्-फिल्मों का निर्माण उस दौर में हुआ, जैसे कि जिस देश में गंगा बहती है और मुझे जीने दो. दिलीप कुमार की अमर दस्यु-फिल्म गंगा-जमुना भी इसी दौर की है. इसमें अभिनय सम्राट का यादगार अभिनय एक नई मिसाल क़ायम कर गया. ख़ास बात यह कि इस फिल्म में दिलीप ने अपने तमाम कंफ़र्ट ज़ोन को ध्वस्त. कर दिया था : शहराती के बजाय गंवई नायक, अंडरप्ले के बजाय मेलोड्रामा, कातर भाव के बजाय पौरुषपूर्ण भंगिमा. ट्रेजेडी अलबत्ता वहां पर अब भी थी, और माशाअल्ला बहुत शिद्दत के साथ थी.
दिलीप कुमार ने हिंदी सिनेमा में अभिनय के मानकों को पूरी तरह बदल डाला. उनके बाद आने वाले हर नायक पर दिलीप कुमार का अनिवार्य प्रभाव रहा है. वे हिंदी सिनेमा के काफ़्का हैं. और जिस तरह से लगभग समूचे आधुनिक साहित्यक पर काफ़्का का साया मंडराता है, उसी तरह से एक शलाकापुरुष की तरह दिलीप कुमार की लंबी छाया भी हिंदी सिनेमा की एक पूरी अधसदी पर छाई हुई है. अमिताभ से लेकर शाहरुख़ तक, कोई भी दिलीप के प्रभाव से बच नहीं सका. हां, संजीव कुमार जैसे अभिनेता और नसीर, फ़ारूक जैसे मिनिमलिस्ट नायक ज़रूर अपनी एक स्वतंत्र छवि विकसित करने में क़ामयाब रहे हैं. दिलीप कुमार ने परदे पर और परदे के इतर कामिनी कौशल, मधुबाला और वैजयंती माला से प्रेम किया, लेकिन अंतत: ब्याह रचाया 44 की उम्र में अपने से आधी उम्र की सायरा बानो से. नया दौर में पहले मधुबाला उनकी नायिका की भूमिका निभाने वाली थीं, लेकिन दोनों के रिश्तों में खटास आने के बाद वैजयंती माला ने यह भूमिका निभाई. आखिरकार मुग़ले आज़म में दिलीप-मधुबाला एक बार फिर परदे पर नज़र आए. तब तक दोनों के बीच मनमुटाव का आलम अबोले की स्थिति तक चला गया था, इसके बावजूद परदे पर दोनों ने लाजवाब और सघन प्रणय दृश्यों को साकार किया. शायद, यह दिलीप के अभिनेता की सबसे बड़ी मिसाल है. वे ख़ुद को भी इतनी ही शिद्दत से भुलावे में रख सकते थे, जैसे कि अपने दर्शकों को.
नाज़ रहेगा इस भारत रत्न पर.
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