दो दिन पहले आया आदिपुरुष का टीजर सिर्फ 1 मिनट 47 सेकेंड का है. यूट्यूब पर अलग-अलग भाषाओं में टीजर पर अब तक करोड़ों व्यूज (हिंदी में 7.63 करोड़, तमिल में 1.5 करोड़, मलयालम में 80 लाख, तेलुगु में 1 करोड़) आ चुके हैं. व्यूज सिर्फ 36 घंटे भर का है. यह कितना बड़ा है इसका अंदाजा इस बात से भी लगा सकते हैं कि पांच साल पहले एसएस राजमौली की महागाथा बाहुबली के तेलुगु ट्रेलर पर अब तक 12 करोड़ से ज्यादा व्यूज आए हैं. प्रभास की बाहुबली मूलत: तेलुगु की फिल्म थी और दूसरी भाषाओं में हाइप फिल्म की रिलीज होने तक बनी थी. ट्रेलर के वक्त तेलुगु से बाहर बहुत शोर नहीं था.
यूट्यूब पर आदिपुरुष के टीजर के अलावा उसका रिव्यू, उससे जुड़ी खबरों को जोड़ दिया जाए तो मुझ जैसे गणित में कमजोरों लोगों के लिए व्यूज गिनना लगभग असंभव है. अब तक कम से कम लाखों शब्द भी टीजर को लेकर लिखे जा चुके हैं. अनगनित शब्द लिखे जाएंगे. सिर्फ टीजर पर. ट्रेलर तो आया भी नहीं है. रिलीज भी तीन महीने बाद जनवरी में है. बावजूद अगर टीजर का यह हाल है तो आगे क्या कुछ दिखेगा- कल्पना करना मुश्किल नहीं. जादू दिखा रहे यह आदिपुरुष कौन हैं? और भारतीय जनमानस में वह छवि कितनी वजनदार है- साफ़ दिख रहा है. हल्का सा अंदाजा लगा सकते हैं कि आदिपुरुष ग्लोबल सिनेमा में किस क्रांतिकारी बदलाव का नेतृत्व करने में सक्षम है?
खैर, मैं यहां बात आदिपुरुष के टीजर पर आने वाले व्यूज को लेकर कर नहीं रहा. बल्कि उसपर हो रही बहस और बहस में छिपी 'बहरुपिया राजनीति' पर करने जा रहा हूं. आदिपुरुष को लेकर जो पक्ष और विपक्ष बना है- उसमें दोनों मोर्चों पर एक जैसे लोग नजर आ रहे हैं. मेरे लिए यही सबसे हैरान होने आली बात है. जिस तबके को 200 साल पीछे का इतिहास भी ठीक से याद नहीं करने दिया जाता, मगर बहरुपिया राजनीति उसे महिषासुर में मौजूद नायक के पते की पर्ची पकड़ा देता है. बावजूद कि पर्ची लेने और देने वाले मार्कंडेय पुराण या ऐसे तमाम हिंदू धर्मग्रंथों को कपोल कल्पना ही ठहराते आए हैं. मेरे लिए यह घोर आश्चर्य का विषय है कि विदेशी फाउंडशनों से...
दो दिन पहले आया आदिपुरुष का टीजर सिर्फ 1 मिनट 47 सेकेंड का है. यूट्यूब पर अलग-अलग भाषाओं में टीजर पर अब तक करोड़ों व्यूज (हिंदी में 7.63 करोड़, तमिल में 1.5 करोड़, मलयालम में 80 लाख, तेलुगु में 1 करोड़) आ चुके हैं. व्यूज सिर्फ 36 घंटे भर का है. यह कितना बड़ा है इसका अंदाजा इस बात से भी लगा सकते हैं कि पांच साल पहले एसएस राजमौली की महागाथा बाहुबली के तेलुगु ट्रेलर पर अब तक 12 करोड़ से ज्यादा व्यूज आए हैं. प्रभास की बाहुबली मूलत: तेलुगु की फिल्म थी और दूसरी भाषाओं में हाइप फिल्म की रिलीज होने तक बनी थी. ट्रेलर के वक्त तेलुगु से बाहर बहुत शोर नहीं था.
यूट्यूब पर आदिपुरुष के टीजर के अलावा उसका रिव्यू, उससे जुड़ी खबरों को जोड़ दिया जाए तो मुझ जैसे गणित में कमजोरों लोगों के लिए व्यूज गिनना लगभग असंभव है. अब तक कम से कम लाखों शब्द भी टीजर को लेकर लिखे जा चुके हैं. अनगनित शब्द लिखे जाएंगे. सिर्फ टीजर पर. ट्रेलर तो आया भी नहीं है. रिलीज भी तीन महीने बाद जनवरी में है. बावजूद अगर टीजर का यह हाल है तो आगे क्या कुछ दिखेगा- कल्पना करना मुश्किल नहीं. जादू दिखा रहे यह आदिपुरुष कौन हैं? और भारतीय जनमानस में वह छवि कितनी वजनदार है- साफ़ दिख रहा है. हल्का सा अंदाजा लगा सकते हैं कि आदिपुरुष ग्लोबल सिनेमा में किस क्रांतिकारी बदलाव का नेतृत्व करने में सक्षम है?
खैर, मैं यहां बात आदिपुरुष के टीजर पर आने वाले व्यूज को लेकर कर नहीं रहा. बल्कि उसपर हो रही बहस और बहस में छिपी 'बहरुपिया राजनीति' पर करने जा रहा हूं. आदिपुरुष को लेकर जो पक्ष और विपक्ष बना है- उसमें दोनों मोर्चों पर एक जैसे लोग नजर आ रहे हैं. मेरे लिए यही सबसे हैरान होने आली बात है. जिस तबके को 200 साल पीछे का इतिहास भी ठीक से याद नहीं करने दिया जाता, मगर बहरुपिया राजनीति उसे महिषासुर में मौजूद नायक के पते की पर्ची पकड़ा देता है. बावजूद कि पर्ची लेने और देने वाले मार्कंडेय पुराण या ऐसे तमाम हिंदू धर्मग्रंथों को कपोल कल्पना ही ठहराते आए हैं. मेरे लिए यह घोर आश्चर्य का विषय है कि विदेशी फाउंडशनों से वित्त पोषित बुद्धिजीवी तबका आदिपुरुष पर शुरू हुई ऐतिहासिक बहस से गायब क्यों है? और वह तबका भी जो आजकल रामायण, महाभारत और त्रिपिटक के बहाने एक अब्राहमिक धर्म के दर्शन की व्याख्या करने की कोशिशों में लगा नजर आता है- खामोश बैठा है. यह लगभग सूरज के पश्चिम से उगने का मामला है.
कम से कम वह इतना तो कह ही सकता था कि रामायण एक महाकाव्य भर है और उसकी कहानी कोरी कल्पना. आदिपुरुष पाखंड का प्रचार है. बावजूद वह चुप बैठा है तो समझिए कुछ गहरा पक रहा है. वह बुद्धिजीवी तबका ऊपर जो व्यूज बताए गए हैं- उससे जरूर डरा हुआ होगा.ऐसा तो हो नहीं सकता कि वह आदिपुरुष के संभावित असर रोकने के लिए प्रयास ना करे. मगर चीजें जब बहरुपिया राजनीति के पक्ष में ही होती दिख रही हैं तो भला उसे श्रम करने की क्या ही जरूरत है? वह इसीलिए चुप बैठा है. ध्यान से देखिए. 'बहरुपिया' चुप भले है मगर उसका काम और दूसरे लोग तो कर ही रहे हैं. आदिपुरुष पर बहरुपिया राजनीति की बहस बिल्कुल वैसे ही है जैसे अकबर ने रामनाम के सिक्के फारसी में जारी कर दिए थे. और भारत को शिक्षित बनाने के लिए शहर कस्बों गांवों में मदरसों का नेटवर्क फैला दिया था. वैसे ही जैसे काशी-मथुरा के आदिस्थलों को तोड़ने वाला औरंगजेब इतिहास में किसी गुमनाम मंदिर को दान देते नजर आता है.
कम मजेदार नहीं है कि आदिपुरुष के लिए वाल्मीकि से लेकर तुलसीदास तक के लिखे को बेंचमार्क की तरह पेश किया जा रहा है. वह रामानंद सागर का भी बेंचमार्क प्रस्तुत करते दिखेगा. सिनेमा के लिए रिसर्च के महत्व को समझाते नजर आएगा. भारत की पीड़ा यह रही है कि वह 'पराधीनता और अपमान की पीढ़ीगत स्मृति' के बावजूद बहरूपियों के मकड़जाल में उलझकर अपने मकसद से भटक जाता है. ओम राउत ने दुनियाभर में नई पीढ़ी के लोगों के लिए जो भी प्रयास किया है- उसके असर को भोथरा करने के लिए वह सक्रिय हो चुका है. आदिपुरुष पर एकबार फिर से बहसों को ध्यान से देखिए.
रामानंद सागर की रामायण के चरित्रों से आदिपुरुष के चरित्रों की तुलना की जा रही है. फिल्म का ट्रेलर आने या उसके रिलीज होने से पहले ही फैसला सुना दिया गया कि आदिपुरुष पूरी तरह से बकवास है. यहां तक कि रिचर्ड एडिनबरो की गांधी और आमिर खान की लगान तक से तुलना की जा रही कि कैसे दोनों ने अपनी फिल्मों के लिए रिसर्च किया. कई और महान फिल्मों के उदाहरण सामने रखे जा रहे हैं. ब्रह्मास्त्र का विरोध करने वालों ने भी इतनी तैयारी नहीं की थी. गांधी पर बनी फिल्म को लेकर लिखा जा रहा कि भानु अथैया ने गांधी के किरदार को गढ़ने के लिए किस तरह बारीकी से और किन-किन प्रक्रियाओं से होकर गईं. उन्होंने कितने लोगों से मुलाक़ात की, कितने मूर्तिकारों से मिलीं. उन्हें इसके लिए ऑस्कर भी मिला था.
एक मिनट के लिए मान लिया जाए कि आदिपुरुष के लिए ओम राउत ने सतही रिसर्च किया. आदिपुरुष के सामने रामानंद सागर, गांधी और लगान का उदाहरण पेश करने वालों से मेरे साधारण सवाल हैं. क्या भारतीय जनमानस में रामानंद सागर की रामायण से पहले राम की कोई छवि नहीं थी? क्या 40 साल पहले रामायण नहीं था? रामलीलाओं में राम की छवि किस तरह से थी? रामलीलाओं में राम की छवि तो बाल रूप है. आज भी. सीता के साथ स्वयंवर के वक्त राम थे भी तो 14 वर्ष के ही. अरुण गोविल तो 14 वर्ष के कहीं नहीं लगे स्वयंबर और उससे पहले. बहुत अलग थे. जब बाल राम की जगह प्रौढ़ अरुण गोविल को दर्शकों ने स्वीकार कर लिया. उनकी पूजा राम के रूप में की गई फिर आदिपुरुष में राघव के रूप में प्रभास को दर्शक क्यों नहीं स्वीकार करेंगे? लोग किन तर्कों में उलझकर बहस कर रहे हैं यह समझ से परे है.
इससे ज्यादा मजेदार तो गांधी वाला तर्क है. गांधी पर रिसर्च करना आसान है. गांधी का पहली और आख़िरी फोटो तलाशना कोई श्रमसाध्य कार्य है क्या. वे कैसे दिखते थे कैसे रहते थे, क्या पहनते थे उनके वक्त का देशकाल कैसा था- प्रामाणिक रूप से इसका पता लगाना असंभव नहीं. गांधी की अनंत छवियां नहीं हैं. लेकिन राम के लिए भी रिचर्ड एडिनबरो जैसे रिसर्च की जिद करने वालों की बुद्धि पर क्या ही कहा जाए. अब उनसे पूछिए- राम की पहली प्रतिनिधि छवि आप किसे मानेंगे? तस्वीरें तो थीं नहीं. क्योंकि गुजरात के गायकवाड राजपरिवार ने बस अब से कुछ साल पहले ही राजा रवि वर्मा को हिंदू देवी देवताओं की तस्वीरें बनाने का कार्य सौंपा. समझ में नहीं आता कि अपनी मूर्तियों और चित्रकारी के लिए दुनियाभर में मशहूर भारत देवताओं की छवि कागज़ या कपड़ों पर क्यों नहीं उकेर पाया था. या उकेरता था तो बंद क्यों कर दिया. कोई मजबूरी थी क्या? बहरुपिया राजनीति यह रिसर्च करने के लिए जोर नहीं लगा पाती मगर आदिपुरुष के लिए पता नहीं किस मकसद से अपेक्षा है कि सात हजार साल पहले राम कैसे थे, रावण कैसा था वह देशकाल कैसा था- ओम राउत उसे खोजकर दिखाए.
स्वाभाविक है कि राम की छवि किसी मंदिर में किसी शिल्पकार ने मूर्ति के रूप में गढ़ी होगी. आप पूरा देश घूम लीजिए. हर मंदिर में आपको राम की छवियां अलग-अलग दिखेंगी. और यह सिर्फ राम के साथ नहीं है सभी देवताओं के साथ है. हमारे बुद्ध भी तो उतने ही अलग हैं. चीन में उनकी नाक नक्श अलग है. तिब्बत में अलग. जापान में और अलग. श्रीलंका में उनकी छवि बिल्कुल अलग दिखती है. म्यांमार में और ज्यादा अंतर है. बावजूद कि बुद्ध की मूल छवि हमें नेपाल से भारत तक मिलती है. लेकिन उपमाहद्वीप से बाहर भूगोल की यात्रा में वह बदल गई. लेकिन राम के बारे में यह तो कल्पना से परे की चीज है. रामायण वाल्मीकि ने लिखी और उसे ही सभी अलग-अलग भाषाओं में अडाप्ट किया गया. वाल्मीकि, राम के समय में थे, उन्होंने सीता को आश्रय दिया. लवकुश को शस्त्र शास्त्र की शिक्षा दी. निश्चित ही वे राम की छवि से भलीभांति परिचित होंगे. अगर वह मिथक इतिहास का ही हिस्सा है तो. और वाल्मीकि ने राम या रामायण के दूसरे व्यक्तित्व, स्थान आदि का शब्दचित्र अपने ग्रन्थ में दर्ज किया. उसे प्रामाणिक माना जा सकता है.
शब्दचित्रों को हर किसी ने अपनी तरह से उकेरा. लेखक, राधेश्याम जैसे नाटककार, फिल्म बनाने वाले. राम श्याम वर्णी थे. अब कौन से श्याम वर्ण के थे इसका पता कैसे लगाएंगे. चपटी नाक भी तो कई तरह की होती है और पिंपल भी नाना प्रकार के हैं. राम को तो जिसने जैसा महसूस किया, वैसा ही चित्र बनाया. चूंकि वे मानवीय थे तो मनुष्य की तरह ही उन्हें उकेरा गया. राम की सहज मनुष्यता ओम राउत तक दिखती है. ओम राउत पर राम की छवि को लेकर सवाल करने वाले क्या बता सकते हैं कि वे कैसे थे? हम वास्तविक रामायण देखना चाहते हैं. कोई आए और बना दे. तुलसीदास ने एक सवैया में राम की बाल छवि कुछ यूं बताई है-
बर दंत की पंगति कुंदकली अधराधर-पल्लव खोलन की,
चपला चमकैं घन बीच जगै छबि मोतिन माल अमोलन की.
घुंघरारि लटैं लटकैं मुख ऊपर कुंडल लोल कपोलन की,
नेवछावरि प्रान करै तुलसी बलि जाऊं लला इन बोलन की.
तुलसी के मुताबिक़ चार चित्रकारों को राम की बाल छवि बनाने का कार्य सौंपा जाए तो गारंटी से तुलसी का विवरण पर सभी बाल छावियों में मिलेगी. मगर राम के चार अलग-अलग रूप वाले चित्र बनेंगे. तुलसी के आधार पर आप राम के किस रूप को परफेक्ट मानेंगे. हमने बात राम की छवि के बहाने की लेकिन यही बात लक्षमण, हनुमान आदि तमाम किरदारों के लिए भी लागू होती हैं.
...तो आदिपुरुष को लेकर हो रही तमाम बहसें व्यर्थ हैं. जबरदस्ती के तर्क खड़ाकर नए जमाने की रामायण यानी आदिपुरुष को अलोकप्रिय बनाने की बिल्कुल साजिश है यह. जबकि ऐसा भी नहीं है कि कुछ गंभीर सवाल नहीं हैं ओम राउत की आदिपुरुष के लिए. रावण की छवि और लंका के रूपांतरण ने जरूर निराश किया है. रावण अनन्य शिवभक्त था. कर्मकांडी भी था और विद्वान भी. प्रतापी था और उसके तमाम राजघरानों से संपर्क का उल्लेख आता है. वह सनातनी और त्रिपुंडधारी था. ओम राउत ने उसके जनेऊ और त्रिपुंड को कई जगह गायब कर दिया है. वह रावण के करीब नहीं दिखता.
लंका हॉरर फिल्मों का भूत बंगला नहीं था. जैसे दिखाते नजर आ रहे हैं ओम राउत. वह स्वर्ण नगरी थी. उसे भगवान विश्वकर्मा ने बनाया था. वह भगवान कुबेर की नगरी थी जिसपर उन्हीं के सौतेले भाई रावण ने कब्जा कर लिया था. रावण के कर्म राक्षसी थे. लेकिन वह भी प्रतापी मनुष्य ही था. वह मायावी सिद्ध जनजाति से था. और उनमें भी उच्च मानवीय पारिवारिक मूल्य मिलते हैं. रावण को उसकी पत्नी मंदोदरी से लेकर सभी भाइयों और रिश्तेदारों ने अधर्म की राह पर जाने से हर संभव तरीके से रोका. कुम्भकर्ण जैसे योद्धा मनुहार करके थक गए, भाई नहीं माना तब भाई के प्रेम में युद्ध का वरण किया. यह जानते हुए भी कि अन्याय का रास्ते है यह.
मायावी और महाप्रतापी होने के बावजूद रावण ने सीता पर बलप्रयोग नहीं किया. वह स्त्री के अपने निर्णय का कुछ कम सम्मान थोड़े करता था. ओम राउत रावण के मामले में बहके नजर आ रहे हैं. यहां सवाल जायज हैं.
वैसे टीजर का जिस तरह बेमतलब का रिव्यू हो रहा है वह कुछ ज्यादा जल्दबाजी में किया जा रहा है. राम की तुलना गांधी और लगान से होना बताता है कि कुछ लोग नए जमाने की रामायण (आदिपुरुष) के असर को लेकर हद से ज्यादा परेशान हैं. बावजूद कि यह तय है आदिपुरुष भी एक महागाथा है. इस बार राम की कहानी का जादू सिर्फ भारत नहीं समूची दुनिया देखेगी. बाकी नरोत्तम मिश्रा जैसे भाजपा के ज्ञानी नेताओं के बारे में क्या ही कहा जाए. मंत्री भी साधारण मनुष्य होते हैं उनपर ज्यादा ध्यान ना दीजिए.
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