किसी ने कहा लोगों के पास पैसे नहीं हैं, फिल्म देखने के लिए. गलत कहा उसने. पैसा है. लेकिन आज दर्शक बनिया हो गए हैं. उपभोक्ता के स्तर पर अर्थशास्त्री हैं. हर खर्च अब रिटर्न के लिए है, वैल्यू प्राप्त करने के लिए है. थियेटर में जाकर फिल्म देखना आज सिर्फ बड़े बैनर, नामचीन स्टारकास्ट और प्रमोशन पर निर्भर नहीं करता. व्यूअर थिएटर का रुख करने के पहले रिसर्च करता है. श्योर होना चाहता है वर्ड ऑफ़ माउथ से कि फिल्म वाकई सब को पसंद आ रही है. बड़ा बैनर, प्रमोशन, स्क्रीन की संख्या, भारी भरकम स्टारकास्ट आदि ज़रूर कंट्रीब्यूट करते हैं पहले दिन और कुछ हद तक वीकेंड खत्म होने तक. फिर काम करता है वर्ड ऑफ़ माउथ यानि माउथ पब्लिसिटी जिसके आधार पर पोटेंशियल दर्शक वर्ग तय हो जाते हैं. अलग अलग दर्शक वर्ग की फिल्म पसंद करने की अलग अलग वजह होती है. स्टार फैन क्लब होता है. कहानी है. एक्शन है. थ्रिल है. देशभक्ति है, रिश्तों की उलझन है. समय के साथ साथ वर्ग विशेष बड़े परदे के लिए सिकुड़ते चले गए हैं, चूंकि उनकी व्यक्तिगत स्वछंदता ने उन्मुक्तता तलाश ली है ओटीटी पर और अन्य ऑनलाइन प्लैटफॉर्म पर. सो यदि फिल्म सिर्फ एक ही विधा पर आधारित है, उससे बॉक्स ऑफिस पर किसी कमाल की उम्मीद करना ही बेमानी है.
व्यूअर पेशेंट हैं, मालूम है देर सबेर किसी न किसी प्लैटफॉर्म पर आ ही जायेगी ! सवाल है फिर थिएटर अपील क्या होगी ? क्या कोई सेट फार्मूला है ? है तो लेकिन फार्मूला फ़ास्ट चेंजिंग है या कहें तो रिपीट का कोई स्कोप है ही नहीं. साथ ही फार्मूला मोहताज है पूर्ण रचनात्मकता का, आधी अधूरी या रीमेक या कॉपी कैट टाइप नहीं. एक ही विषय पर विचारधारा की वजह से रचनाकार की रचना अलग अलग हो...
किसी ने कहा लोगों के पास पैसे नहीं हैं, फिल्म देखने के लिए. गलत कहा उसने. पैसा है. लेकिन आज दर्शक बनिया हो गए हैं. उपभोक्ता के स्तर पर अर्थशास्त्री हैं. हर खर्च अब रिटर्न के लिए है, वैल्यू प्राप्त करने के लिए है. थियेटर में जाकर फिल्म देखना आज सिर्फ बड़े बैनर, नामचीन स्टारकास्ट और प्रमोशन पर निर्भर नहीं करता. व्यूअर थिएटर का रुख करने के पहले रिसर्च करता है. श्योर होना चाहता है वर्ड ऑफ़ माउथ से कि फिल्म वाकई सब को पसंद आ रही है. बड़ा बैनर, प्रमोशन, स्क्रीन की संख्या, भारी भरकम स्टारकास्ट आदि ज़रूर कंट्रीब्यूट करते हैं पहले दिन और कुछ हद तक वीकेंड खत्म होने तक. फिर काम करता है वर्ड ऑफ़ माउथ यानि माउथ पब्लिसिटी जिसके आधार पर पोटेंशियल दर्शक वर्ग तय हो जाते हैं. अलग अलग दर्शक वर्ग की फिल्म पसंद करने की अलग अलग वजह होती है. स्टार फैन क्लब होता है. कहानी है. एक्शन है. थ्रिल है. देशभक्ति है, रिश्तों की उलझन है. समय के साथ साथ वर्ग विशेष बड़े परदे के लिए सिकुड़ते चले गए हैं, चूंकि उनकी व्यक्तिगत स्वछंदता ने उन्मुक्तता तलाश ली है ओटीटी पर और अन्य ऑनलाइन प्लैटफॉर्म पर. सो यदि फिल्म सिर्फ एक ही विधा पर आधारित है, उससे बॉक्स ऑफिस पर किसी कमाल की उम्मीद करना ही बेमानी है.
व्यूअर पेशेंट हैं, मालूम है देर सबेर किसी न किसी प्लैटफॉर्म पर आ ही जायेगी ! सवाल है फिर थिएटर अपील क्या होगी ? क्या कोई सेट फार्मूला है ? है तो लेकिन फार्मूला फ़ास्ट चेंजिंग है या कहें तो रिपीट का कोई स्कोप है ही नहीं. साथ ही फार्मूला मोहताज है पूर्ण रचनात्मकता का, आधी अधूरी या रीमेक या कॉपी कैट टाइप नहीं. एक ही विषय पर विचारधारा की वजह से रचनाकार की रचना अलग अलग हो सकती है लेकिन यदि विषय ज्वलंत है और प्रस्तुति में दम है तो यकीन मानिये एंटी भी खूब देखेंगे बल्कि ज्यादा देखेंगे.
परंतु ज़रूरी नहीं है कि क्रिटिकली एक अच्छी फिल्म बॉक्स ऑफिस पर पास होगी ही, वजह कुछ भी हो सकती है एंटरटेनमेंट की कमी कहें या पब्लिक कनेक्ट का अभाव कहें या समय कहें ! कुल मिलाकर आज फिल्म को लेकर पब्लिक का मिजाज भांपना संभव नहीं है, कौन सी पसंदगी सुपरहिट की हद तक ले जायेगी, नो प्रेडिक्शन प्लीज़ ! प्रयास बंद तो नहीं होंगे ना ! फ़िल्में बनेगी , हिट होने की उम्मीदें भी रहेंगी.
कंटेंट का मौलिक होना और साथ ही यथासंभव अभिनव होना ज़रूरी है. हिट, सुपर हिट या ब्लॉक बस्टर नहीं भी होगी तो देर सबेर बिजनेस निकाल ही लेगी ! जहां तक सोशल मीडिया जनित चिड़िया 'हैशटैग बॉयकॉट' का सवाल है, इसने संबंधित फिल्म को ऊंचाइयां ही दी है बशर्ते निर्माताओं ने और कलाकारों ने संयम रखा हो इन तमाम हैशटैगों से ! उन्होंने रियेक्ट किया नहीं हैशटैग ने रंग दिखाना शुरू कर दिया !
आमिर स्टार्रर 'लाल सिंह चड्डा' और अनुराग कश्यप की तापसी स्टार्रर 'दोबारा' एक हद तक यही पॉइंट प्रूव करती है. आमिर की अपार मेहनत और लगन के बावजूद तक़रीबन २०० करोड़ की लागत वाली 'लाल सिंह चड्डा' का हश्र देख ही रहे हैं. छुट्टियां भरे दो सप्ताह मिले लेकिन घरेलू बाजार ने धता बता दी. वो तो कुछ फॉरेन टेरिटरी ने साथ दे दिया कि फिल्म 100 करोड़ क्रॉस कर चुकी है लेकिन फिल्म फ्लॉप है, दो राय हो ही नहीं सकतीं.
वजहें देखें तो स्पष्ट हैं - पहली तो फिल्म का तीन दशक पहले बनी एक अमेरिकन फिल्म का रीमेक होना है. तब मोटिवेशनल फैक्टर्स जो थे वे आज सामयिक नहीं है. दूसरे इस बार आमिर खान हैशटैग पर संयम नहीं रख पाए और फिर करीना ने भी हेकड़ी दिखा दी. यकीन मानिये कलाकारों के अभिनय की पराकाष्ठा के साथ बनी एक अच्छी फिल्म को हर वह शख्स, जो फिल्म देखता है, देर सबेर फिल्म देखेगा ही लेकिन अपने ड्राइंग रूम में.
अक्षय कुमार स्टार्रर 'रक्षाबंधन' अपने घिसे पिटे और बार बार दोहराये गए कंटेंट की वजह से औंधे मुंह खुद तो धराशायी हुई ही, 'लाल सिंह चड्ढा' को भी ले डूबी; थियेटरों पर साथ साथ आकर वीकेंड ऑप्शन जो बढ़ा दिए दर्शकों के लिए ! इन दो कथित 'महान' फिल्मों के साथ साथ साउथ इंडियन मूवी कार्तिकेय -2 हिंदी में भी रिलीज़ हुई थी. शो लिमिटेड थे फिर भी कार्तिकेय का बॉक्स ऑफिस का ग्राफ बढ़ते हुए प्रतिफल के नियम को फॉलो कर गया, शुरुआत पहले दिन मात्र 7 लाख से हुई, दूसरे दिन 28 लाख , तीसरे दिन 1.10 करोड़ , चौथे दिन 1.28 करोड़ , पांचवें दिन 1.38 करोड़ , छठे दिन 1.64 करोड़ और फिर सातवें दिन 'हाथी घोडा पालकी जय कन्हैया लाल की' को सार्थक करते हुए फिल्म ने 2.46 करोड़ बटोर लिए !
ताज्जुब तब हुआ जब जन्माष्टमी ही के दिन 370 स्क्रीन पर रिलीज़ हुई अनुराग कश्यप की तापसी पन्नू स्टार्रर 'दोबारा' कहीं ज्यादा शो के बावजूद भी मात्र सत्तर लाख ही बटोर पाई ! निःसंदेह अनुराग कश्यप अच्छे निर्माता हैं और तापसी कमाल की एक्ट्रेस है लेकिन दोनों ही बोल बच्चन भी हैं ! सो 'दोबारा' के साथ भी दो ही बातें हुई हैं, एक तो ये स्पैनिश फिल्म 'मिराज' की रीमेक है और दूसरे बड़बोलेपन में तापसी का 'कृपया सभी लोग हमारी फिल्म दोबारा का बहिष्कार करें, अगर आमिर खान और अक्षय कुमार जैसे अभिनेताओं का बहिष्कार किया जा रहा है, तो मैं भी इसमें शामिल होने चाहती हूं'
कहना और अनुराग का आदतन पोलिटिकल होकर "#BoycottKashyap' ट्रेंड करने की चाहत जाहिर करना या एक प्रकार से विक्टिम कार्ड चलना ! दोनों हो बातों की खीझ का खामियाजा एक अच्छी खासी फिल्म को भुगतना पड़ रहा है ! बॉलीवुड दिग्गजों की फिल्मों के बीच फंसकर भी दक्षिण से डब होकर आयी कार्तिकेय -2 के शो एक ही सप्ताह में न सिर्फ लगभग सौ गुना बढ़ाने पड़े, बल्कि इसकी टीम भी हिंदी इलाकों में प्रचार के लिए पहुंच गई.
नतीजा यह हुआ कि तेलुगू से डब होकर आई इस फिल्म को हिंदी के बाजार में भी खूब देखा जा रहा है. यह फिल्म पौराणिक विवरणों को आज के समय से जोड़ कर एक ऐसी काल्पनिक कहानी कहती है जिस पर यकीन कर लेने का मन होता है. फिल्म पुरजोर तरीके से कहती है श्रीकृष्ण इतिहास का हिस्सा हैं, देवता या मिथक नहीं. एक तरह से इस फिल्म ने संदेश देने की कोशिश की है कि निर्माता रीमेकों और कॉपी कैट से बाज आएं.
वे अपने पुराणों और इतिहास को खंगाल कर कहानियां तलाशें और आधुनिक समय से उनके रिश्ते जोड़कर एक कहानी कहें. है ना अभिनव आईडिया ! शायद क्लिक कर जाए कुछ समय के लिए ! एक और बात, साउथ की फ़िल्में माइलेज ले पा रही हैं चूंकि कंटेंट वाकई अनकहे और विषयपरक हैं. एक समय था जब डब की गई साउथ इंडियन फिल्म के मायने ही थर्ड ग्रेड फिल्म हुआ करता था !
आज तो चुन चुन कर फ़िल्में बाद में भी डब की जा रही हैं और उन्हें दर्शक भी मिल रहे हैं. सो दम तो हैं तभी तो व्यूअर अनजाने चेहरों से भी कनेक्ट कर लेता है ! वहीं हिंदी फिल्मों का साउथ इंडियन भाषाओं में डब किया जाना कब सुनते हैं ? हां , कुछ फ़िल्में हिंदी के साथ साथ किसी दक्षिणी भाषा में बनी भी है तो मूलतः साउथ की ही कहलाती हैं एक्टरों की वजह से या मेकर टीम की वजह से, मसलन 'हे राम(कमल हसन)', 'युवा(मणिरत्नम)', 'विश्वरूप(कमल हसन)' , 'राधे श्याम' , 'मेजर' , 'साहो' , 'बाहुबली' आदि ! स्पष्ट है रचनात्मकता कहीं न कहीं कोम्प्रोमाईज़ हो रही है बॉलीवुड में ! या फिर बॉलीवुड में निर्माता, निर्देशक और रचनाकार ओवर द टॉप (OTT) चले गए हैं !
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.