एक ऐसा शख्स जो अपने वक्त से आगे की सोचता था. एक ऐसा शख्स जिसने ऐसे अफसाने और किरदार गढ़े जिन्हें पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं, आत्मा हिल जाती है, वो खुद आज एक अफसाना बन गया है. एक किरदार बन गया है. माने आज की पीढ़ी कम से कम मेरे इस पसंदीदा लेखक सआदत हसन मंटो को भले ही उनके लिखे से ना जाने, नंदिता दास की फिल्म मंटो से जानने तो लगेगी. और फिर पढ़ेगी उनके लिखे अफसाने जो आज की पीढ़ी के लिए पढ़ना बहुत जरूरी है क्योंकि मंटो आज की जरूरत है, हर युग की जरूरत है.
फिल्म फिराक से डायरेक्शन में उतरीं नंदिता ने 1 घंटा 56 मिनट में मंटो के किरदार को जिस बारीकी से, जिस गहराई से रचा है वो मंटो को समझने के लिए काफी है. नंदिता ने मंटो की काल्पनिकता और यथार्थ की उलझनों के साथ उनकी कहानियों के टुकड़े ऐसे संजोए हैं कि लगता है मंटो की अपनी जिंदगी में कैसे उनके किरदार हावी हुए हैं. हालांकि नंदिता ने मंटो के जीवन के महज चार सालों को ही फिल्म में उकेरा है लेकिन मंटो को जानने वाले जानते हैं कि ये चार साल ही वो चार साल हैं जिन्होंने मंटो को खुद एक अफसाना बना दिया.
फिल्म देखने के बाद कुछ लोगों का यह मानना था और मंटो के जीवन में झांकने वाले भी यह मानते हैं और फिल्म में ऐसा स्थापित सा भी लगा कि विभाजन के बाद हिंदुस्तान छोड़ना मंटो की सबसे बड़ी गलती थी वो डर गए इसलिए चले गए लेकिन मैं इससे इत्तेफाक नहीं रखती दरअसल मंटो सा संवेदनशील, भावुक, स्पष्टवादी,...
एक ऐसा शख्स जो अपने वक्त से आगे की सोचता था. एक ऐसा शख्स जिसने ऐसे अफसाने और किरदार गढ़े जिन्हें पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं, आत्मा हिल जाती है, वो खुद आज एक अफसाना बन गया है. एक किरदार बन गया है. माने आज की पीढ़ी कम से कम मेरे इस पसंदीदा लेखक सआदत हसन मंटो को भले ही उनके लिखे से ना जाने, नंदिता दास की फिल्म मंटो से जानने तो लगेगी. और फिर पढ़ेगी उनके लिखे अफसाने जो आज की पीढ़ी के लिए पढ़ना बहुत जरूरी है क्योंकि मंटो आज की जरूरत है, हर युग की जरूरत है.
फिल्म फिराक से डायरेक्शन में उतरीं नंदिता ने 1 घंटा 56 मिनट में मंटो के किरदार को जिस बारीकी से, जिस गहराई से रचा है वो मंटो को समझने के लिए काफी है. नंदिता ने मंटो की काल्पनिकता और यथार्थ की उलझनों के साथ उनकी कहानियों के टुकड़े ऐसे संजोए हैं कि लगता है मंटो की अपनी जिंदगी में कैसे उनके किरदार हावी हुए हैं. हालांकि नंदिता ने मंटो के जीवन के महज चार सालों को ही फिल्म में उकेरा है लेकिन मंटो को जानने वाले जानते हैं कि ये चार साल ही वो चार साल हैं जिन्होंने मंटो को खुद एक अफसाना बना दिया.
फिल्म देखने के बाद कुछ लोगों का यह मानना था और मंटो के जीवन में झांकने वाले भी यह मानते हैं और फिल्म में ऐसा स्थापित सा भी लगा कि विभाजन के बाद हिंदुस्तान छोड़ना मंटो की सबसे बड़ी गलती थी वो डर गए इसलिए चले गए लेकिन मैं इससे इत्तेफाक नहीं रखती दरअसल मंटो सा संवेदनशील, भावुक, स्पष्टवादी, सहज, सरल, निडर कोई हो ही नहीं नहीं सकता. वो गए क्योंकि वो विभाजन के दौरान आहत हुए. वो गए क्योंकि सबसे अजीज दोस्त सुपरस्टार श्याम ने गुस्से में दोस्ती को हिंदू मुसलमान में बांट दिया उनकी भावनाएं ठगी गई. उन्हें ठेस लगी. मंटो तभी तो कहते थे कि मजहब का दिल से उतरकर सिर पर चढ़ जाना ही तो बुरा है. यह सच है कि हिंदुस्तान को वो दिल से कभी जुदा नहीं कर पाए. वो पाकिस्तान में खुद को परकटा पंछी ही मानते रहे जिसके लिए आजादी के मायने कुछ भी नहीं. और इसीलिए वो रच देते हैं विभाजन के दौरान ठंडा गोश्त, खोल दो और टोबाटेक सिंह जैसे अफसाने.
मंटो ने वो लिखा है जिसे आज तक कोई लिखने का साहस नहीं कर पाया. मंटो जीवन को जस का तस लिखना जानते थे लिखते थे. तभी तो उस दौर के लेखक तक उनसे जलते थे. जब ठंडा गोश्त को लेकर उन पर अश्लील साहित्य का केस चल रहा था, तब फैज जैसे प्रोग्रेसिव शायर ने भी गवाही में उनकी लेखनी को साहित्य के मापदंडों पर खरा नहीं बताया था. वो फिर आहत हुए थे. दरअसल मंटो की मौत का असल जिम्मेदार समाज है जो मंटो जैसी दौलत को सहेज नहीं पाया. लेकिन मंटो वक्त से आगे थे उस दौर ने भले उन्हें ना समझा आज उन्हीं का है.
मंटो की भूमिका में जो संजीदगी चाहिए थी नवाजुद्दीन ने उसमें कोई कसर नहीं छोड़ी है. मंटो की पत्नी सोफिया की भूमिका में रसिका दुग्गल ने भी गजब की छाप छोड़ी है. फिल्म कुल मिलाकर शानदार है. बस मेरी राय में मंटो को पढ़कर फिल्म देखने जाएंगे तो ज्यादा लुत्फ उठा पाएंगे.
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