मिर्ज़ापुर 2 (Mirzapur Season 2) के स्क्रीनप्ले में ऐसी दसियों बाते हैं जो आपत्तिजनक हैं. ससुर बहु का हौलनाक रिश्ता, बिना मतलब की गालियां, लचर फिलर्स, धीमा होता कथानक या बेहद बचकाना क्लाइमेक्स, ऐसे कई पॉइंट्स हैं जिसको टेक्निकल समझ न रखने वाले भी ये ज़रूर कह सकते हैं कि ‘नहीं यार, मज़ा नहीं आया.’ इन सबसे इतर, एक आपत्ति ऐसी उठी है जो किताबों से दूरी रखने वाला न समझ पायेगा लेकिन वो ख़ामी इन सारे टेक्निकल लापरवाहियों पर भारी है. सीरीज के तीसरे एपिसोड में एक सीन है कि जब कुलभूषण खरबंदा (Kulbhushan Kharbanda) नॉवेल पढ़ रहे हैं, वॉइस-ओवर चल रहा है 'बलराज को अपनी चचेरी बहन अच्छी लगती थी... जब वो स्नान करने के लिए निवस्त्र हुई...' ठीक इसी वक़्त रसिका दुग्गल उनके हाथ से नॉवेल छीन लेती हैं. इस नॉवेल का नाम धब्बा (Dhabba) है और ये सुरेंद्र मोहन पाठक (Surendra Mohan Pathak) साहब के चर्चित पात्र सुनील सीरीज का नॉवेल है. तो इसमें आपत्ति क्या है? आपत्ति ये है कि वॉइस-ओवर में सुनाई कथा बिलकुल बेतुकी है, उस नॉवेल में ऐसा कुछ है ही नहीं.
शो के क्रिएटर पुनीत कृष्णा जो अच्छे लेखक भी हैं, गीतकार भी हैं. उनका कहना था कि वो क्योंकि खुद सुरेन्द्र मोहन पाठक साहब के बहुत बड़े फैन हैं और उनकी बहुत इज्ज़त करते हैं इसलिए उन्होंने अपनी तरफ से ये सम्मान दिया(?) है.
इसे सम्मान कहते हैं?
आप में से ज़्यादातर लोग पल्प फिक्शन / लुगदी कागज़ पर छपी किताबों को गन्दा, सेमी पोर्नों मानते होंगे. बचपन में ताकीद भी मिली होगी कि ये, ऐसे चटकीले कवर वाली किताब नहीं पढ़नी है. इसमें अच्छी बातें नहीं लिखी होतीं. ऐसा कुछ एक में होता भी होगा, इस बात को झुठला...
मिर्ज़ापुर 2 (Mirzapur Season 2) के स्क्रीनप्ले में ऐसी दसियों बाते हैं जो आपत्तिजनक हैं. ससुर बहु का हौलनाक रिश्ता, बिना मतलब की गालियां, लचर फिलर्स, धीमा होता कथानक या बेहद बचकाना क्लाइमेक्स, ऐसे कई पॉइंट्स हैं जिसको टेक्निकल समझ न रखने वाले भी ये ज़रूर कह सकते हैं कि ‘नहीं यार, मज़ा नहीं आया.’ इन सबसे इतर, एक आपत्ति ऐसी उठी है जो किताबों से दूरी रखने वाला न समझ पायेगा लेकिन वो ख़ामी इन सारे टेक्निकल लापरवाहियों पर भारी है. सीरीज के तीसरे एपिसोड में एक सीन है कि जब कुलभूषण खरबंदा (Kulbhushan Kharbanda) नॉवेल पढ़ रहे हैं, वॉइस-ओवर चल रहा है 'बलराज को अपनी चचेरी बहन अच्छी लगती थी... जब वो स्नान करने के लिए निवस्त्र हुई...' ठीक इसी वक़्त रसिका दुग्गल उनके हाथ से नॉवेल छीन लेती हैं. इस नॉवेल का नाम धब्बा (Dhabba) है और ये सुरेंद्र मोहन पाठक (Surendra Mohan Pathak) साहब के चर्चित पात्र सुनील सीरीज का नॉवेल है. तो इसमें आपत्ति क्या है? आपत्ति ये है कि वॉइस-ओवर में सुनाई कथा बिलकुल बेतुकी है, उस नॉवेल में ऐसा कुछ है ही नहीं.
शो के क्रिएटर पुनीत कृष्णा जो अच्छे लेखक भी हैं, गीतकार भी हैं. उनका कहना था कि वो क्योंकि खुद सुरेन्द्र मोहन पाठक साहब के बहुत बड़े फैन हैं और उनकी बहुत इज्ज़त करते हैं इसलिए उन्होंने अपनी तरफ से ये सम्मान दिया(?) है.
इसे सम्मान कहते हैं?
आप में से ज़्यादातर लोग पल्प फिक्शन / लुगदी कागज़ पर छपी किताबों को गन्दा, सेमी पोर्नों मानते होंगे. बचपन में ताकीद भी मिली होगी कि ये, ऐसे चटकीले कवर वाली किताब नहीं पढ़नी है. इसमें अच्छी बातें नहीं लिखी होतीं. ऐसा कुछ एक में होता भी होगा, इस बात को झुठला नहीं सकते. कोई आम राह चलता आदमी जब नेरेटिव फिक्स कर लेता है, स्टीरियोटाइप हो जाता है तो फ़र्क नहीं पड़ता, हंसी आती है. वहीं जब कोई लेखक स्टीरियोटाइप होता है तो दुःख होता है.
जब कोई आर्टिस्ट ढाक के तीन पाथ गिनता है तो अफ़सोस होता है, क्योंकि यही तो काम है तुम्हारा? इसी बात के तो कलाकार हो न कि स्टीरियोटाइप को तोड़ सको. भगवान कृष्ण की कोई पेंटिंग तुमने घर की दीवार से देखकर बनाई तो क्या बनाई? तुमने भी उन्हें ‘नीला’ रंग दिया तो क्या तीर मार लिया? दुनिया कहती है कि पल्प फिक्शन में पॉर्न है, वॉयलेंस है, पड़ी कहती रहे. दुनिया सिर्फ कहती है, पढ़ती नहीं है. आप एक राइटर हो तो आपकी पहली ज़िम्मेदारी पढ़ना है, समझना है, अपना वर्शन क्रिएट करना है. लिखना दूर की कौड़ी है.
जब एक फिल्म शूट होती है तो उसके डबिंग, वॉइस ओवर वगैरह बाद में रिकॉर्ड किए जाते हैं. जब इस सीन का voice-over रिकॉर्ड किया गया तो आवाज़ भी कुलभूषण खरबंदा की लेनी ज़रूरी न समझी, किसी अन्य आवाज़ में ये मनघडंत लाइन्स पढ़ दीं. क्यों? ऐसा क्यों किया? क्योंकि ये जताना था कि सत्यानन्द त्रिपाठी ठरकी बुड्ढा है, वो पढ़ेगा तो यही सब पढ़ेगा. इसपे तुर्रा ये भी कि कुलभूषण खरबंदा भी पाठक साहब के प्रशंसक हैं.कैसे प्रशंसक हैं ये सब? पाठक साहब की किताब दिखाकर कुछ भी पोर्नो सुना देना, ये प्रशंसा की श्रेणी में आता है?
मैं बताता हूँ प्रशंसक कैसे होते हैं. धब्बा सुनील सीरीज की एक बहतरीन मर्डर मिस्ट्री थ्रिलर है. इसकी शुरुआत में एक मुशायरा है, मैं गेरेंटी देता हूं कि खडूस से खडूस आदमी भी उसे पढ़ेगा तो हंसते-हंसते लोट-पोट हो जायेगा। ये नॉवेल ख़ास इस वजह से हमें याद रहता ही है. पाठक साहब ने एक-दो अपवाद छोड़ कभी ये नंगा-नाच न लिखा. ये सीन जब राजीव रौशन ने देखा, तो तुरंत आपत्ति जताई और ट्वीट कर एक्सेल एंटरटेनमेंट, फ़रहान अख्तर, पुनीत कृष्णा को टोका.
सब यारों ने मिलकर ढेर रीट्वीट किये. बात पाठक साहब तक पहुंचनी ही थी, पहुंची. उन्होंने लिखित आपत्ति पुनीत और फ़रहान को भेजी, उनका जवाब आया और उन्होंने माफ़ी मांगते हुए तीन हफ्ते का समय मांगा और निश्चित किया कि या तो उनके कवर को ब्लर कर दिया जायेगा या वॉइस ओवर हटा दिया जायेगा.
पुनीत के इस प्रांप्ट रिस्पांस के लिए धन्यवाद बनता है, अच्छा है. लेकिन voice-over हटाने या कवर ब्लर करने का क्या तुक है ये मेरी समझ से बाहर है. आपको मात्र इतना करना है कि किताब की एक लाइन अपने कलाकार से पढ़वा देनी है, बस! एक लाइन. किसी भी हिन्दी पढ़ सकने वाले शख्स के लिए सबसे आसान काम क्या होगा? यही कि सामने लिखा हो पढ़ लें, अरे चश्मा लगा के पढ़ लें, पर इस सीधे से मिनट भर के काम को आगरा वाया सहारनपुर बनाकर कॉम्प्लीकेट करने की ज़रूरत मुझे समझ नहीं आती.
बस बाहुबली का एक डायलॉग याद आता है, बड़ा साम्राज्य ऊंची प्रतिमाओं और सोने की मुद्राओं से बड़ा नहीं होता।बड़ा प्रोडक्शन हाउस, बहुत बड़ी वेब सीरीज सिर्फ अपने मोटे बजट से बड़ी नहीं होती, अपने स्क्रीनप्ले से, अच्छी क्वालिटी मेंटेन करने से होती है. आप ब्रेकिंग बैड बनानी की नकल भर कर सकते हैं पर बना नहीं सकते, क्योंकि विन्स गिलिगन ने ब्रेकिंग बैड किसी अन्य सिरीज़ को देखकर नहीं बनाई थी.
बाकी समस्त लेखकों से विनती है, वो चाहें कहानी लिखते हों, पटकथा लिखते हों या कामर्शियल विज्ञापन लिखते हों, पढ़ें; ख़ूब पढ़ें और फिर लिखें क्योंकि अनपढ़ा लेखन बहुत किरकिरी कराता है.
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