एक वक्त था जब बॉलीवुड में एक सेट फॉर्मूले पर फिल्मों का निर्माण होता था, लेकिन समय के साथ हिंदी सिनेमा तेजी से बदल रहा है. अब लीक से हटकर ऐसे सामाजिक विषयों पर फिल्म बनाने की परंपरा शुरू हुई, जिसके बार में दर्शक भी अनुमान नहीं लगा पाते. कई बार तो कुछ फिल्म मेकर्स रिस्क लेकर ऐसे विषयों पर फिल्म बनाते हैं, जिनकी सफलता भी संदिग्ध होती है, लेकिन ऐसी फिल्मों को भी दर्शकों का भरपूर प्यार मिलता है. इसकी वजह से फिल्म निर्माताओं को भविष्य में भी रिस्क लेकर फिल्में बनाने के लिए हौसला मिलता है. अब दर्शक प्रगतिशील, सामाजिक स्थिति को आईना दिखाने वाली, यथार्थवादी फिल्मों को पसंद करने लगे हैं.
शूजित सिरकार की फिल्म 'पिंक' भी इसी फेहरिस्त में शामिल है, जिसने आज भी समाज में मौजूद कुप्रथाओं पर करारा प्रहार किया है. आज से पांच साल पहले साल 2016 में रिलीज हुई अमिताभ बच्चन और तापसी पन्नू की इस फिल्म ने यौन उत्पीड़न के मामलों को एक नए नजरिए से पेश किया है. इस फिल्म में ऐसे-ऐसे संवाद हैं, जिन्हें सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं. लड़कों के साथ अकेले लड़कियों को कहीं घूमने नहीं जाना चाहिए. किसी के साथ उन्हें मुस्कुरा कर बातचीत नहीं करनी चाहिए. टच करके तो बिल्कुल भी बात नहीं करनी चाहिए, क्योंकि इसे हिंट समझा जाएगा. लड़कियों को कैरेक्टर सर्टिफिकेट बांटने वालों के ऊपर ये डायलॉग करारा तमाचा हैं.
निर्देशक अनिरुद्ध रॉय चौधरी ने समाज के तथाकथित सभ्य लोगों को कोर्ट रूम ड्रामा में नंगा किया है, जो अपनी बहन-बेटियों को किसी नजर से और दूसरों की अलग नजर से देखते हैं. कोर्ट रूम ड्रामा कई फिल्मों में नजर आई है, लेकिन पिंक में जिस प्रकार से इसे पेश किया गया, वह रोमांचित करता है. शुरू से आखिर...
एक वक्त था जब बॉलीवुड में एक सेट फॉर्मूले पर फिल्मों का निर्माण होता था, लेकिन समय के साथ हिंदी सिनेमा तेजी से बदल रहा है. अब लीक से हटकर ऐसे सामाजिक विषयों पर फिल्म बनाने की परंपरा शुरू हुई, जिसके बार में दर्शक भी अनुमान नहीं लगा पाते. कई बार तो कुछ फिल्म मेकर्स रिस्क लेकर ऐसे विषयों पर फिल्म बनाते हैं, जिनकी सफलता भी संदिग्ध होती है, लेकिन ऐसी फिल्मों को भी दर्शकों का भरपूर प्यार मिलता है. इसकी वजह से फिल्म निर्माताओं को भविष्य में भी रिस्क लेकर फिल्में बनाने के लिए हौसला मिलता है. अब दर्शक प्रगतिशील, सामाजिक स्थिति को आईना दिखाने वाली, यथार्थवादी फिल्मों को पसंद करने लगे हैं.
शूजित सिरकार की फिल्म 'पिंक' भी इसी फेहरिस्त में शामिल है, जिसने आज भी समाज में मौजूद कुप्रथाओं पर करारा प्रहार किया है. आज से पांच साल पहले साल 2016 में रिलीज हुई अमिताभ बच्चन और तापसी पन्नू की इस फिल्म ने यौन उत्पीड़न के मामलों को एक नए नजरिए से पेश किया है. इस फिल्म में ऐसे-ऐसे संवाद हैं, जिन्हें सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं. लड़कों के साथ अकेले लड़कियों को कहीं घूमने नहीं जाना चाहिए. किसी के साथ उन्हें मुस्कुरा कर बातचीत नहीं करनी चाहिए. टच करके तो बिल्कुल भी बात नहीं करनी चाहिए, क्योंकि इसे हिंट समझा जाएगा. लड़कियों को कैरेक्टर सर्टिफिकेट बांटने वालों के ऊपर ये डायलॉग करारा तमाचा हैं.
निर्देशक अनिरुद्ध रॉय चौधरी ने समाज के तथाकथित सभ्य लोगों को कोर्ट रूम ड्रामा में नंगा किया है, जो अपनी बहन-बेटियों को किसी नजर से और दूसरों की अलग नजर से देखते हैं. कोर्ट रूम ड्रामा कई फिल्मों में नजर आई है, लेकिन पिंक में जिस प्रकार से इसे पेश किया गया, वह रोमांचित करता है. शुरू से आखिर तक फिल्म बांधे रखती है. आगे क्या होगा, इसकी उत्सुकता बनी रहती है. इसकी कहानी भले दिल्ली की है, लेकिन ऐसी हालत कमोबेश हर शहर में लड़कियों को सामना करना पड़ता है. अमिताभ बच्चन ने इस फिल्म के जरिए साबित किया है कि बढ़ती उम्र में उनका अभिनय और निखरा है. फिल्म भले वुमन ओरिएंटेड है, लेकिन सबके लिए है.
आइए आपको फिल्म के पांच दमदार डायलॉग बताते हैं...
1. किसी भी लड़की किसी भी लड़के के साथ बैठकर शराब नहीं पीना चाहिए, क्योंकि अगर वो ऐसा करती है तो लड़के को ये इंडिकेट होता है कि अगर लड़की मेरे साथ बैठकर शराब पी सकती है, तो वो उसके साथ सोने से भी कतराएगी नहीं.
2. ना सिर्फ एक शब्द नहीं, अपने आप में एक पूरा वाक्य है. इसे किसी तरह के स्पष्टीकरण, एक्सप्लेनेशन या व्याख्या की जरूरत नहीं होती. ना का मतलब सिर्फ ना ही होता है.
3. इन लड़कों को ये जरूर एहसास होना चाहिए, ना का मतलब ना होता है. उसे बोले वाली कोई परिचित हो, गर्लफ्रेंड हो, कोई सेक्स वर्कर हो या आपकी अपनी बीवी ही क्यों ना हो. नो मींस नो, और जब ऐसा कोई कहे, तो आपको तुरंत रुक जाना चाहिए.
4. हमारे यहां घड़ी की सुई, कैरेक्टर डिसाइड करती है.
5. शहर में लड़कियों को अकेला नहीं रहना चाहिए. लड़के रह सकते हैं पर लड़कियां नहीं. अकेली इंडिपेंडेंट लड़कियां, लड़कों को कंफ्यूज कर देती हैं.
फिल्म की कहानी
दिल्ली के सर्वप्रिय विहार में किराए के मकान में रहने वाली मीनल (तापसी पन्नू), फलक (कीर्ति कुल्हाड़ी) और एंड्रीया (एंड्रीया तारियांग) के ईर्द-गिर्द पूरे फिल्म की कहानी घूमती है. एक रात फरीदाबाद के सूरजकुंड के इलाके में रॉक कॉन्सर्ट के बाद ये तीनों लड़कियां वहां मौजूद तीन लड़कों के साथ पास के ही घर में पार्टी करने चली जाती हैं. वहां देर रात तक शराब पीने के बाद लड़के इन लड़कियों का यौन उत्पीड़न करने लगते हैं. उनका रेप करना चाहते हैं, लेकिन लड़कियां अपना बचाव करती हैं.
इसी दौरान आपसी झड़प में एक लड़के राजवीर (अंगद बेदी) की आंख के पास गहरी चोट लग जाती है. लड़कियां वहां से भाग लेती हैं. राजवीर के परिजन उन लड़कियों के खिलाफ केस दर्ज करा देते हैं. पुलिस तीनों को पकड़ कर ले जाती है. केस कोर्ट में पहुंचता है, तो रिटायर्ड वकील दीपक सहगल (अमिताभ बच्चन) सामने आकर तीनों लड़कियों की तरफ से केस लड़ते हैं. दीपक की शानदार दलील एक तरफ अदालत को संतुष्ट करती है, तो दूसरे तरफ सामाजक के ठेकेदारों पर करारा तमाचा मारती है.
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