हर फिल्म में एक कहानी होती है. कोई दर्शक उसे देखकर मान लेता है कि असल में जो दिख रहा है वही 'कहानी' है. वह उसके आगे पीछे सोचता ही नहीं. उसे मौका भी नहीं दिया जाता. सबकुछ सफाई और चालाकी से होता है. फिल्म निर्माता मुद्दों और विषय पर अपनी बात रख निकल जाता है, लेकिन असल में जिस सवाल को रखने का स्वांग रचता है उसे कहीं पीछे ही छोड़ देता है या कि दबा देता है. और आखिर में वो चाहता है कि इसी काम के लिए उसे शाबासी दी जाए. दर्शकों की तालियां मिले. सम्मान मिले. समीक्षक सिनेमा को बदलाव बिंदु मान बैठते हैं. और लिखते हैं- क्या फिल्म थी. बहुत ही क्रांतिकारी.
ऊपरी तौर पर देखने में ये कहानियां यूनिक और क्रांतिकारी तो लगती हैं. पर हकीकत में शातिर, चालाक और बहुत राजनीतिक होती हैं. कुछ साल पहले आई नीरज घेवान की 'मसान' और ठीक अभी डिजनी प्लस हॉटस्टार पर स्ट्रीम हो रही आनंद एल रॉय की 'अतरंगी रे' ऐसी ही कहानियां हैं. अतरंगी रे और मसान- दोनों दो अलग ध्रुव पर खड़ी हैं. आपस में दोनों की तुलना नहीं हो सकती. मगर वास्तव में दोनों की जमीनी सोच एक ही है.
यही दोनों फ़िल्में ही क्यों, अगर बॉलीवुड फिल्मों में दिखे रेप विक्टिम किरदारों को भी इसमें जोड़ लिया जाए तो मसान, अतरंगी रे के साथ पिछले 60-70 साल में आई तमाम फ़िल्में जिस बुद्धि का प्रतिफल हैं- उनका जन्म एक ही कुल में हुआ दिखता है. अच्छा यह होगा कि यह आर्टिकल पढ़ने से पहले आप अतरंगी रे देख चुके होंगे. वर्ना आर्टिकल पढ़ने के बाद फिल्म देखने का मजा किरकिरा हो सकता है.
जातीय कहानियों पर सवर्णवादी नजरिया हावी
मसान से जुड़े क्रिएटर्स की राजनीतिक पक्षधरता सामने आती रही. उन्हें 'वामपंथी' घोषित किया जा चुका है. इसमें कोई शक नहीं कि...
हर फिल्म में एक कहानी होती है. कोई दर्शक उसे देखकर मान लेता है कि असल में जो दिख रहा है वही 'कहानी' है. वह उसके आगे पीछे सोचता ही नहीं. उसे मौका भी नहीं दिया जाता. सबकुछ सफाई और चालाकी से होता है. फिल्म निर्माता मुद्दों और विषय पर अपनी बात रख निकल जाता है, लेकिन असल में जिस सवाल को रखने का स्वांग रचता है उसे कहीं पीछे ही छोड़ देता है या कि दबा देता है. और आखिर में वो चाहता है कि इसी काम के लिए उसे शाबासी दी जाए. दर्शकों की तालियां मिले. सम्मान मिले. समीक्षक सिनेमा को बदलाव बिंदु मान बैठते हैं. और लिखते हैं- क्या फिल्म थी. बहुत ही क्रांतिकारी.
ऊपरी तौर पर देखने में ये कहानियां यूनिक और क्रांतिकारी तो लगती हैं. पर हकीकत में शातिर, चालाक और बहुत राजनीतिक होती हैं. कुछ साल पहले आई नीरज घेवान की 'मसान' और ठीक अभी डिजनी प्लस हॉटस्टार पर स्ट्रीम हो रही आनंद एल रॉय की 'अतरंगी रे' ऐसी ही कहानियां हैं. अतरंगी रे और मसान- दोनों दो अलग ध्रुव पर खड़ी हैं. आपस में दोनों की तुलना नहीं हो सकती. मगर वास्तव में दोनों की जमीनी सोच एक ही है.
यही दोनों फ़िल्में ही क्यों, अगर बॉलीवुड फिल्मों में दिखे रेप विक्टिम किरदारों को भी इसमें जोड़ लिया जाए तो मसान, अतरंगी रे के साथ पिछले 60-70 साल में आई तमाम फ़िल्में जिस बुद्धि का प्रतिफल हैं- उनका जन्म एक ही कुल में हुआ दिखता है. अच्छा यह होगा कि यह आर्टिकल पढ़ने से पहले आप अतरंगी रे देख चुके होंगे. वर्ना आर्टिकल पढ़ने के बाद फिल्म देखने का मजा किरकिरा हो सकता है.
जातीय कहानियों पर सवर्णवादी नजरिया हावी
मसान से जुड़े क्रिएटर्स की राजनीतिक पक्षधरता सामने आती रही. उन्हें 'वामपंथी' घोषित किया जा चुका है. इसमें कोई शक नहीं कि मसान की कहानी बिल्कुल ताजी नजर आती है. हिंदी सिनेमा में कम से कम ऐसी कहानियां तो नहीं दिखती हैं. हिंदी साहित्य में जिसे मुख्यधारा माना गया है वहां भी दलित साहित्यकारों के अपने अनुभव को छोड़ दिया जाए तो मसान जैसी कहानियां नहीं दिखती हैं. ऐसी एक कहानी जरूर "कर्मनाशा की हार" के रूप में दिखी थी जिसे डॉक्टर शिवप्रसाद ने लिखा था. लेकिन वहां भी 'जाति की पीड़ादायक' व्यथा बहुत सफाई से आर्थिक-सामजिक रूप से विपन्न ग्रामीण समाज की 'सामूहिक कथा' बन गई. उसे सिर्फ जाति भर की कथा नहीं कहा जा सकता.
मसान हिंदी पट्टी में जाति की व्यथा को दर्शाने वाली फिल्म है. इसमें दो समानांतर कहानियां हैं. एक कहानी डोम लड़के दीपक चौधरी (विक्की कौशल) की है. दीपक और उसका परिवार बनारस के मणिकर्णिका घाट में मुर्दों का अंतिम संस्कार करवाता है. परिवार का इकलौता पारंपरिक आर्थिक स्रोत यही है. दीपक पढ़ने-लिखने में होशियार है. और उसके पिता चाहते हैं दीपक उनकी तरह घाटों पर अपना जीवन ना खपाए. क्योंकि वक्त के साथ लाशों के अंतिम संस्कार से जीवनयापन मुश्किल हो गया है. दीपक को एक लड़की भा जाती है- शालू गुप्ता (श्वेता त्रिपाठी).
लड़की अगड़ी जाति की है और दीपक के दोस्त सलाह देते हैं कि शालू से प्यार को लेकर वह बहुत सेंटी ना हो. शालू को दीपक की जाति से कोई ऐतराज नहीं है. वह कहती है- तुम नौकरी पा जाओ. हमें भागना पड़ा तो हम भागकर शादी कर लेंगे. अब ऐसा हो रहा है और बाद में घरवाले भी स्वीकार कर लेते हैं. यानी नौकरी दीपक के लिए दो वजहों से महत्वपूर्ण हो है. घरवालों के आर्थिक और शालू से शादी सामजिक सहारे के लिए.
मसान की दूसरी कहानी देवी पाठक (ऋचा चड्ढा) की है. देवी की मां नहीं है. उसके पिता विद्याधर पाठक (संजय मिश्रा) घाट पर पुरोहित का काम करते हैं. कुछ संस्कृत अनुवाद भी. पूजा सामग्री की एक छोटी सी दुकान भी चलाते हैं. विद्याधर की आर्थिक हालत कुल मिलाकर ऐसी है कि परिवार का गुजारा किसी तरह होता है. देवी कम्प्यूटर इंस्टीटयूट में नौकरी करती है. अपने एक दोस्त के साथ होटल में जाती है. पुलिस रेड मारती है और इसी दौरान देवी का दोस्त एक हादसे का शिकार हो जाता है. मसान में एक और ब्राह्मण है इंस्पेक्टर मिश्रा. वह विद्याधर को बेटी की इज्जत का हवाला देकर ब्लैकमेल कर तीन लाख रुपये मांगता है.
बाप लोकलाज से डरा हुआ है और किसी तरह रुपयों का इंतजाम करता है. विद्याधर दिल से साफ़ इंसान है. एक 'विजातीय अनाथ बच्चे' को पिता जैसा उसका प्यार उसकी विशालता को दर्शाता है जो जाति के बंधन को लेकर बहुत परंपरागत नहीं दिखता. वह हकीकत में मसान की देवी, भी दलित विक्टिम ही है. देवी और दीपक दोनों को एक ही जमीन पर खड़ा होना चाहिए था. लेकिन विद्याधर की मौजूदगी से देवी और दीपक के साथ डोम परिवार और पाठक परिवार भी एक जमीन पर खड़े नजर आते हैं. जबकि हकीकत में ऐसा नहीं है. यह 'प्रगतिशील लेखकीय' कमाल है.
पांच साल पहले जब फिल्म आई थी मैंने इसे बिल्कुल अलग नजरिए से देखा था. हाल में मैंने इसे फिर से देखा. उस वक्त ये कहानी बहुत बोल्ड दिखी. लेकिन पिछले पांच दस सालों में तमिल, मलयाली और मराठी सिनेमा में जाति की व्यथा पर बनी दर्जनों फिल्मों को देखने के बाद नजरिया बदला बदला सा है. अब मैं कई मुद्दों पर दलित-ओबीसी चिंतकों के कई तर्कों से सहमत हूं. उनके तर्कों में से एक यह भी है कि बॉलीवुड असल में जातिवादी है और सिर्फ जाति को तोड़ने का नाटक रचता है. ये स्वांग उसकी उन सभी फिल्मों में नजर आता है जहां जाति-धर्म के सवाल खड़े होते हैं. यह अतरंगी रे में भी है.
आनंद ने पति पत्नी के पारंपरिक प्रेम की काली चादर से ढँक दिए मुद्दे
अतरंगी रे की कहानी रिंकू रघुवंशी (सारा अली खान) की है. बिहार के सिवान की एक लड़की. जिसकी 'पकड़उवा शादी' तमिलनाडु के एक 'ब्राह्मण' से कर दी जाती है. ऑनर किलिंग में रिंकू के माता-पिता की हत्या उनके रिश्तेदारों ने ही कर दी थी. अतरंगी रे में तीन बड़े मुद्दे थे. विजातीय प्रेम कहानी, ऑनर किलिंग और लव जिहाद जिस पर खूब राजनीतिक बहस होती है. एक ही फिल्म में तीन ज्वलंत मुद्दों को समेटना मामूली बात नहीं. आनंद चाहते हैं कि एक यूनिक कांसेप्ट के लिए उनकी तारीफ़ की जाए. उनके कई प्रशंसक अवार्ड विनिंग फिल्म मान रहे. और कुछ दर्शकों को अतरंगी रे का अलबेला प्रेम इतना भावुक कर चुका है कि वे जार-जार हैं सोशल मीडिया पर.
अतरंगी रे में आनंद ने उठाए तो तीन मुद्दे मगर बहुत चालाकी से उसपर बिना बात किए बाहर निकल गए और तीन ज्वलंत विषयों को एक रूमानी कहानी में ढंक दिया. आनंद ने हकीकत में तीन बड़े मुद्दों पर 'पति-पत्नी के श्रेष्ठतम प्रेम' की काली चादर डाल दी. अतरंगी के ट्रेलर तक मुझे लगा था कि आनंद शायद कुछ नया करेंगे. कुछ बोल्ड कहेंगे. धनुष के साथ हिंदी की कहानी में तमिल आ रहा है तो ये मिलन जरूर कुछ अलग होगा. पर नहीं. आनंद उसी राह पर हैं जो बॉलीवुड को सबसे ज्यादा पसंद है. वे भी उसी जमात का हिस्सा साबित हुए. अतरंगी रे देखने के बाद लग रहा कि आनंद को 'तनु वेड्स मनु' ही बनाना चाहिए जहां उन्हें जाति-धर्म को लेकर 'सामजिक डंडे' का भय नहीं है. वे ज्यादा मुखरता से एक कस्बे-कुल-परिवार की कहानी दिखा सकते हैं.
जाति टूटी नहीं बस तोड़ने का भ्रम बनाया
आखिर उन्होंने अतरंगी रे में पकड़उवा शादी क्यों चुना. पकड़उवा शादियों में क्षेत्र, जाति ही यहां तक कि रिश्तेदारियों से ही दूल्हें उठाए जाते हैं. अब जब जाति क्षेत्र से बाहर गए तो फिर किस वजह से उनकी खोज 'ब्राह्मण' युवा पर ही पूरी हुई. वो किसी और जाति का क्यों नहीं हुआ? इससे अतरंगी रे की कहानी पर कोई असर नहीं पड़ता. सिवाय इसके कि कोई 'करनी सेना' विरोध कर सकती थी. विशु (धनुष) ब्राह्मण की बजाय ओबीसी होता तो इससे कुछ बदल तो नहीं जाता. ऐसी विजातीय शादियां अब आमबात हैं. यहां तक की परिवारों की रजामंदी से बिल्कुल 'अरेंज्ड मैरिज' की तरह हो रही हैं. हमारे आसपास ऐसे बहुत से खुशहाल जोड़े और रिश्तेदारियां हैं. हकीकत में अतरंगी रे में "जाति से मुक्ति जाति की जकड़न" में ही तलाशी गई है. एक दायरे से बाहर तो निकले पर एक दूसरे श्रेष्ठ दायरे की सीमा बनाए रखना है.क्यों, क्या सोच है यह?
क्यों ना माना जाए कि इसी सोच की वजह से मसान में दीपक और शालू का प्यार मुकम्मल नहीं हो पाया? दीपक, परिवार के साथ टूर पर गई शालू के लौटने का इंतज़ार कर रहा है. सरकारी नौकरी के लिए दिनरात मेहनत कर रहा है. एक रात ढेर सारी लाशों को जलाते हुए हुए पता चलता है कि शालू का पूरा परिवार ख़त्म हो गया. शालू भी. दीपक को उसकी अंगूठी मिलती है. मसान का ये पूरा सीक्वेंस हिंदी सिनेमा में दिखे प्रेम के सबसे त्रासद रूप का उदाहरण है. शालू की मौत से दीपक टूट जाता है. और फिर समझौता कर लेता है. सदमे से बाहर निकलता है. मेहनत करता है और रेलवे में नौकरी पा जाता है. नौकरी दीपक की समस्या नहीं थी, वह पाता ही. पर शालू क्यों नहीं?
क्या दीपक के रूप में एक डोम परिवार सामजिक आर्थिक मुश्किलों से पार पा गया. यहां मसान की जो कहानी है उसे झूठा या अपूर्ण कहने का आशय बिल्कुल नहीं है. लेकिन मसान में अगर शालू हादसे में मरने की बजाय दीपक के साथ भागकर शादी कर लेती तो जाति की व्यथा दिखाने वाली फिल्म की कहानी पर क्या ही फर्क पड़ता? यह ज्यादा साहसिक नजर आती. मसान से तो इतना बोल्ड होने की उम्मीद की जा सकती थी. मगर नहीं. यह फिल्म भी बॉलीवुड की धारा से अलग नहीं है जिसे समाज का ताकतवर तबका नियंत्रित करता है.
वैसे ही जैसे हिंदी फिल्मों में रेप विक्टिम किरदारों के लिए आत्महत्या करना मजबूरी हो जाता है. समाज में रेप विक्टिम को अपवित्र और पता नहीं किस-किस चश्मे से देखा जाता है. डेढ़ दशक पहले तक शायद ही मुख्यधारा में ऐसी कहानियां मिले जिसमें रेप से गुजरने के बाद हीरो की मां-बहन ने आत्महत्या ना की हो. यहां तक कि फिल्मों में हीरो की पत्नियों ने भी रेप के बाद आत्महत्या की. यह किस तरह का शुद्धतावाद है? मसान में शालू की मौत को शंका से देखें.
अतरंगी रे में रिंकू की मां ने सज्जाद अली खान (अक्षय कुमार) से भागकर शादी की थी. दोनों को कीमत चुकानी पड़ती है. लेकिन ऑनर किलिंग और लव जिहाद पर कोई बात ही नहीं. इतना सन्नाटा क्यों? खैर जब मसान में मौका होने के बावजूद जाति की गांठ नहीं खोल पाया फिर अतरंगी रे जैसी फिल्मों से कोई उम्मीद पालना नाइंसाफी है. अतरंगी रे बिल्कुल वह कहानी नहीं थी जिस तरह से कही गई. जाति ने लेखक के हाथ में बेड़ियां डाल दीं. कलम नहीं चल पाई. जाति धर्म की श्रेष्ठता, राजनीति बचाने के चक्कर में कहानी डूब गई. मसान तो फिर भी संभल गई थी.
मसान और अतरंगी रे 'सवर्णवादी' फ़िल्में हैं. ये ऊपर से जैसी दिखती हैं अंदर से वैसी हैं नहीं.
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