'रहे ना रहे हम, महका करेंगे, बनके कली, बनके सबा, बाग ए वफ़ा में' क्यूंकि मेरी आवाज़ ही पहचान है... गर याद रहे... बहुत खुश या दुखी होने पर ईश्वर/ आराध्य के चरणों में दंडवत हो जाने की परम्परा का निर्वहन करते हुए भारतीय मीडिया ने स्वर सम्राज्ञी लता मंगेशकर के निधन से देश की जनता को रू-ब-रू करवा दिया. 10-15 दिन से कोरोना से जूझते मुंबई के ब्रिच कैंडी अस्पताल में लता बसंत पंचमी के दूसरे दिन हमेशा के लिये कुम्हला गयी. क्या और क्यों ज़रूरी है कि वे ईश्वर के चरणों में लोट गयी हों. उन्हें तो देवी सरस्वती ने दौड़ कर गले लगाया होगा. नहीं क्या? लता ने उस वक़्त से गाना शुरु किया जब फिल्म के लिये 'अच्छे घरों की लड़कियां' नहीं गाती थी. नूर जहां, सुरैय्या बेगम की मोटी आवाज़ों का चलन था तब पतली आवाज़ कह कर रिजेक्शन पाने वाली लता अपनी इसी आवाज़ के दम पर 'दादा साहेब फाल्के' से लेकर 'भारत रत्न' तक लेने वाली बॉलीवुड की पहली महिला हैं.
कभी ना रोने वाले, रोते हुओं से चिढ़ने वाले नेहरू की भी आंख अगर सार्वजनिक रूप से नम हुई तो वह लता का ही गीत 'ए मेरे वतन के लोगों' था. लोगों ने माना लता की आवाज़ में करूणा का अनुपात ज़्यादा है. हां है, लेकिन उतनी ही मादकता भी. ऐसा मानने वाले भी कभी कम नहीं थे.
44 की उम्र में गया "बाहों में चले आओ" (अनामिका 1973) में लता की आवाज़ की मुलामियत और उसका नशा देखिये. (हां देखिये, क्यूंकि सिर्फ उन्हीं की आवाज़ के हाथ पांव हैं. जो दिखते हैं. हमें स्पर्श करते हैं. दुलारते हैं. चुमकारते हैं. सहलाते हैं. बहलाते हैं. हंसाते हैं. रुलाते हैं. सुलाते हैं. जगाते हैं. जैसे कोई सम्मोहन... और लता जैसे कोई...
'रहे ना रहे हम, महका करेंगे, बनके कली, बनके सबा, बाग ए वफ़ा में' क्यूंकि मेरी आवाज़ ही पहचान है... गर याद रहे... बहुत खुश या दुखी होने पर ईश्वर/ आराध्य के चरणों में दंडवत हो जाने की परम्परा का निर्वहन करते हुए भारतीय मीडिया ने स्वर सम्राज्ञी लता मंगेशकर के निधन से देश की जनता को रू-ब-रू करवा दिया. 10-15 दिन से कोरोना से जूझते मुंबई के ब्रिच कैंडी अस्पताल में लता बसंत पंचमी के दूसरे दिन हमेशा के लिये कुम्हला गयी. क्या और क्यों ज़रूरी है कि वे ईश्वर के चरणों में लोट गयी हों. उन्हें तो देवी सरस्वती ने दौड़ कर गले लगाया होगा. नहीं क्या? लता ने उस वक़्त से गाना शुरु किया जब फिल्म के लिये 'अच्छे घरों की लड़कियां' नहीं गाती थी. नूर जहां, सुरैय्या बेगम की मोटी आवाज़ों का चलन था तब पतली आवाज़ कह कर रिजेक्शन पाने वाली लता अपनी इसी आवाज़ के दम पर 'दादा साहेब फाल्के' से लेकर 'भारत रत्न' तक लेने वाली बॉलीवुड की पहली महिला हैं.
कभी ना रोने वाले, रोते हुओं से चिढ़ने वाले नेहरू की भी आंख अगर सार्वजनिक रूप से नम हुई तो वह लता का ही गीत 'ए मेरे वतन के लोगों' था. लोगों ने माना लता की आवाज़ में करूणा का अनुपात ज़्यादा है. हां है, लेकिन उतनी ही मादकता भी. ऐसा मानने वाले भी कभी कम नहीं थे.
44 की उम्र में गया "बाहों में चले आओ" (अनामिका 1973) में लता की आवाज़ की मुलामियत और उसका नशा देखिये. (हां देखिये, क्यूंकि सिर्फ उन्हीं की आवाज़ के हाथ पांव हैं. जो दिखते हैं. हमें स्पर्श करते हैं. दुलारते हैं. चुमकारते हैं. सहलाते हैं. बहलाते हैं. हंसाते हैं. रुलाते हैं. सुलाते हैं. जगाते हैं. जैसे कोई सम्मोहन... और लता जैसे कोई मैजिका...)
दिलीप कुमार से उनका परिचय किसी ने मराठी के तौर पर कराया. खान साब बोले, गाती होंगी अच्छा लेकिन मराठियों के मुंह से दाल चावल की महक आती है. याने उर्दू का तलफ्फ़ुज़ साफ़ नहीं होगा. लता ने इसे चुनौती मानते हुए महबूब नाम के मौलाना से उर्दू सीखने के नाम पर ज़ौक़ से लेकर गालिब तक सब को पढ़ डाला.
36 भाषाओं में गाने वाली लता ने बीबीसी को दिये एक इंटरव्यू में बताया रशियन लैंग्वेज में गाना उनके लिये सबसे मुश्किल रहा. हमेशा दो या एक चोटी में बंधे बाल, रंगीन बॉर्डर की सफ़ेद साड़ी, एक घड़ी, चेहरे पर सौम्यता, निश्छलता, सादगी यही वह थी. यही उनकी आवाज़ में भी दिखा. जबकि सच तो यह है 35 भाषाओं में 36000 गाने, नौशाद से लेकर ए आर रहमान तक उनकी गायन प्रतिभा का समग्र नहीं निकाल पाए.
आप ध्यान से सुनेंगे तो पाएंगे उनके ज़्यादातर गाने हाई टोन में और खींचकर गाए गये हैंं. ट्रेजडी किंग, जुबली कुमार, ट्रेजडी क्वीन जैसे लेबल्ड/टाइप्ड युग में लगभग एक ही रेंज में गाने गाती हुई लता को वैरायटी दिखाने के अवसर कम मिले/दिये गये. वे फिर भी सुर सम्राज्ञी हैं. रहेंगीं.
क्रिकेट की शौक़ीन, राजनीती से दूर रहने की लाख कोशिशों के बावजूद राज्यसभा की मनोनीत सदस्य, आजीवन अविवाहित लता कभी मुहम्मद रफी के साथ गानों की रॉयल्टी को लेकर, कभी किशोर के ज़रूरत से ज़्यादा हसोड़ रवैये से तंग, कभी अपने सामने किसी गायिका को उभरने ना देने के इल्जाम पर विवादित भी हैं.
उम्र के आखिर दौर में सावरकर को पिता तुल्य कहने और राम मन्दिर के निर्माण पर खुशी जताने पर लता से कुछ लोग नाराज़ भी थे/हैं. फिर भी स्वर की देवी साक्षात सरस्वती मलमल सी आवाज़ वाली लता जिनके लिये एक साधारण पाकिस्तानी फेसबुक यूज़र भी मानता है कि 'खिराज़ ए अक़ीदत के तौर पर दोनों मुल्क़ों के अलम(झंडे) को सरनिगूं(झुका) किया जाना चाहिये', एक कलाकार के तौर पर पर हमेशा सम्मानिय, आदरणीय और पूजनीय रहेंगी.
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