आप देखेंगे कि गरीब और कमज़ोर लोगों के सर पर समाज सबसे भारी नैतिक बोझ डाल देता है. आप दुकान में बिस्किट चुराने वाले गरीब बच्चे को हेय दृष्टि से देखते हैं लेकिन बिस्किट कंपनी की चोरी की ओर आपकी नज़र नहीं जाती. अपने लिये एक अदद एकांत जगह तलाशने में असफल रहे प्रेमी जोड़े को किसी पार्क में देखकर आपको सारे नैतिक प्रतिमान उल्टे हो गए नज़र आने लगते हैं, लेकिन शोषण के सांस्थानिक प्रयासों की ओर आप तब तक नहीं ताकते जब तक स्वयं इसकी पीड़ा न झेलनी पड़ जाए. ऐसे सामाजिक यथार्थ के विलोम की अंतहीन शृंखला है.
हम मजबूत लोगों से अपने लिये रियायत मांगते हैं और कमजोरों पर तन जाते हैं. जो मजबूत है वो न केवल सामाजिक नैतिकताओं से बेपरवाह होता है बल्कि समाज खुद भी उसे ऐसी छूट के लिये प्रोत्साहित करता है. आखिर आपने किस सूदखोर को इस बात के लिये प्रायश्चित करते देखा है कि किसी के गंभीरतम अभाव के समय उसने सर्वाधिक लाभ कमाने की कोशिश की? उल्टे वह इसके लिये गर्व भी महसूस कर सकता है कि उसने 'जरूरत के समय मदद की'. अब एक बार कर्ज न चुका सकने वाले की स्थिति और उस पर समाज के नजरिये की कल्पना करें. ऐसी कल्पना कठिन नहीं है. हम जिस व्यवस्था में जीते हैं, उसका नैतिक सिद्धांत इसी विलोम को साधकर निर्मित हुआ है.
शील-अश्लील की नैतिक कसौटी भी इसी तरह तय की जाती है. कमतर-बेहतर की भी. आप यह देखते होंगे कि अक्सर ही स्थानीय भाषा/बोली के अश्लील होने की बात कही जाती है. खासकर उस भाषा के लोकप्रिय स्वरूप को. भोजपुरी का उदाहरण लें तो बात एकदम स्पष्ट हो जाएगी. भोजपुरी के कुछ गायक लगातार अश्लील गाने गा रहे हैं और उन गायकों की जिम्मेदारी लेते हुए लगभग पूरा भोजपुरी समुदाय खुद को 'शर्मिंदा'...
आप देखेंगे कि गरीब और कमज़ोर लोगों के सर पर समाज सबसे भारी नैतिक बोझ डाल देता है. आप दुकान में बिस्किट चुराने वाले गरीब बच्चे को हेय दृष्टि से देखते हैं लेकिन बिस्किट कंपनी की चोरी की ओर आपकी नज़र नहीं जाती. अपने लिये एक अदद एकांत जगह तलाशने में असफल रहे प्रेमी जोड़े को किसी पार्क में देखकर आपको सारे नैतिक प्रतिमान उल्टे हो गए नज़र आने लगते हैं, लेकिन शोषण के सांस्थानिक प्रयासों की ओर आप तब तक नहीं ताकते जब तक स्वयं इसकी पीड़ा न झेलनी पड़ जाए. ऐसे सामाजिक यथार्थ के विलोम की अंतहीन शृंखला है.
हम मजबूत लोगों से अपने लिये रियायत मांगते हैं और कमजोरों पर तन जाते हैं. जो मजबूत है वो न केवल सामाजिक नैतिकताओं से बेपरवाह होता है बल्कि समाज खुद भी उसे ऐसी छूट के लिये प्रोत्साहित करता है. आखिर आपने किस सूदखोर को इस बात के लिये प्रायश्चित करते देखा है कि किसी के गंभीरतम अभाव के समय उसने सर्वाधिक लाभ कमाने की कोशिश की? उल्टे वह इसके लिये गर्व भी महसूस कर सकता है कि उसने 'जरूरत के समय मदद की'. अब एक बार कर्ज न चुका सकने वाले की स्थिति और उस पर समाज के नजरिये की कल्पना करें. ऐसी कल्पना कठिन नहीं है. हम जिस व्यवस्था में जीते हैं, उसका नैतिक सिद्धांत इसी विलोम को साधकर निर्मित हुआ है.
शील-अश्लील की नैतिक कसौटी भी इसी तरह तय की जाती है. कमतर-बेहतर की भी. आप यह देखते होंगे कि अक्सर ही स्थानीय भाषा/बोली के अश्लील होने की बात कही जाती है. खासकर उस भाषा के लोकप्रिय स्वरूप को. भोजपुरी का उदाहरण लें तो बात एकदम स्पष्ट हो जाएगी. भोजपुरी के कुछ गायक लगातार अश्लील गाने गा रहे हैं और उन गायकों की जिम्मेदारी लेते हुए लगभग पूरा भोजपुरी समुदाय खुद को 'शर्मिंदा' महसूस करने लगता है.
ऐसा वर्ग जो लगातार अपनी भाषा में रचनात्मक प्रयास कर रहा है वह भी ऐसे मौके पर अपनी 'नैतिक शुचिता' को एक बार स्पष्ट कर देना चाहता है. वह इस नैतिक बोझ से दबा जाता है कि कहीं उसे भी उनकी ही तरह न मान लिया जाए. ऐसा करने के कई अन्य कारण हो सकते हैं लेकिन नैतिक सफाई पेश करना अचरज भरा व्यवहार है. यही स्थिति आप पत्रकारिता में भी देख सकते हैं. जब कोई खराब पत्रकारिता का उदाहरण सामने आता है हिंदी का गरीब, युवा पत्रकार सबसे पहले आगे आकर कहने लगता है कि मैं शर्मिंदा हूं.
कभी भाषा, कभी राज्य, कभी समुदाय के रूप में शर्मिंदा होने की बात कमजोरों से कहाने की रवायत सी बन गई है. आपको पंजाबी समुदाय बादशाह और हनी सिंह के गानों पर शर्मिंदा होता नहीं दिखेगा, कम दिखेगा, बॉलीवुड 'मेरे पास नहीं क्या राजा, छूकर देख बदन ये आ जा' गाने पर रोज शर्मिंदा नहीं होता, आपको पत्रकारिता से अकूत संपदा अर्जित करने वाले अंग्रेज़ी के वरिष्ठ पत्रकार शर्मिंदा होते नहीं दिखेंगे.
आप बॉलीवुड वालों को इन अंग्रेज़ी वालों को 'भारतीय' होने के नाते कई बार शर्मिंदा होते देख सकते हैं, पर उसके अलग कारण हैं. उस पर फिर कभी. और तो और अब अंग्रेज़ी वाले खुलकर हिंदी भाषियों के मनुष्य होने पर संदेह कर रहे हैं. दिलचस्प बात है कि जिसके पास सबसे अधिक ताकत है, जो सर्वाधिक प्रभावशाली है, जो सर्वाधिक लाभ उठाता है वह न केवल सामाजिक नैतिकताओं की परवाह नहीं करता बल्कि ऐसा परिवेश भी रचता है कि उसके नीचे का बड़ा समुदाय नैतिकता के कठोर आवरण में जकड़ा रहे.
एक अपराध बोध में जीता रहे. कुछ गलत करने वाले समुदाय के रूप में खुद को चिन्हित करे. इससे नैतिक सफाई का सारा बोझ उसपर रहे, समाज 'खराब' करने का दोष और इसे ठीक करने का दायित्व भी उसपर ही रहे. व्यवस्था केवल इसी तरह चल सकती है, चल रही है. तो क्या भोजपुरी गीतों में अश्लीलता नहीं है, उसकी आलोचना नहीं की जानी चाहिए? की जानी चाहिए. लेकिन उसका दोष अपने माथे पर नहीं मढ़ लेना चाहिए. समुदाय के ऊपर भी नहीं.
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