चाहे जितनी भी कोशिश की जाय, लेकिन 1950 के दशक में किसी के लिए भी एक ऐसी हैडलाइन की कल्पना करना मुश्किल है जैसे, 'मधुबाला सबसे चर्चित अभिनेत्री चुनी गयीं' या 'एक रहस्यमयी प्रेमी के साथ नर्गिस की छुट्टियां'. जबकि तब भी फ़िल्मी सितारों की ख़बरें पसंदीदा हुआ करती थीं खासकर अभिनेत्रियों की. लेकिन आज कल ये अपनी फिल्मों के बजाय दूसरे कारणों से चर्चित हो रही हैं. अनुष्का शर्मा का नाम लें तो दिमाग में पहली चीज उभरकर आती है क्रिकेट या दीपिका पादुकोण के साथ उनका महिला सशक्तिकरण वाला वीडियो. ऐसा नहीं है कि इनकी हिट फिल्मे नहीं आ रहीं, बल्कि इनकी हालिया फ़िल्में बॉक्स ऑफिस पर सुपरहिट रही थीं. इसके बावजूद ऐसा लगता है कि लोगों की दिलचस्पी इनके परदे वाली छवि पर भारी पड़ रही है. ये बिलकुल मुमकिन है कि इन अभिनेत्रियों को लेकर बढती जिज्ञासा PR कंपनियों की दौड़ भाग का नतीजा हो. लेकिन कोई भी ये नहीं सोच सकता कि इसका अंत क्या है.
भारत में मल्टीप्लेक्स के शुरूआती वर्षों में एक बड़े फिल्म निर्माता ने किसी बड़े बिज़नेस रिपोर्टर को कहा था कि तेजी से फ़ैल रहे सिनेमा घरों को बनाये रखने के लिए हमें ग़दर, एक प्रेम कथा या लगान जैसी सुपर हिट फिल्में हर महीने चाहिए होंगी. उन्होंने ये भी कहा था कि ये संभव नहीं है इसलिए हमें लगातार छोटी और मंझोली किस्म की फिल्में लगातार चाहिए होंगी. व्यावसायिक और ख़बरों में बनी रहनी वाली फिल्में जो दर्शकों को खींचकर ला सके. इसी तरह से खबरिया चैनलों और फैलती वर्चुअल दुनिया के जमाने में खाली स्लॉट्स को भरने के लिए भी भरपूर सप्लाई या सुपरहिट प्रोडक्ट देने की जरूरत होगी. दर्शकों के लिए अंधाधुंध फिल्में बनानी होगीं.
इस बात का ध्यान रखना होगा कि भारत में बॉलीवुड से बेहतर कुछ नहीं बिकता. फिल्मी सितारे और कुछ नहीं बल्कि सुन्दर लिफाफे हैं. जिस तरह से फ़िल्मी सितारे या उनकी PR एजेंसियां फिल्म को प्रोमोट करने के लिए हरेक प्लेटफार्म का इस्तेमाल करते हैं उसी तरह कुछ मीडिया संस्थान भी ये मानते हैं कि बदले में उन्हें भी TRP के रूप में इससे फायदा...
चाहे जितनी भी कोशिश की जाय, लेकिन 1950 के दशक में किसी के लिए भी एक ऐसी हैडलाइन की कल्पना करना मुश्किल है जैसे, 'मधुबाला सबसे चर्चित अभिनेत्री चुनी गयीं' या 'एक रहस्यमयी प्रेमी के साथ नर्गिस की छुट्टियां'. जबकि तब भी फ़िल्मी सितारों की ख़बरें पसंदीदा हुआ करती थीं खासकर अभिनेत्रियों की. लेकिन आज कल ये अपनी फिल्मों के बजाय दूसरे कारणों से चर्चित हो रही हैं. अनुष्का शर्मा का नाम लें तो दिमाग में पहली चीज उभरकर आती है क्रिकेट या दीपिका पादुकोण के साथ उनका महिला सशक्तिकरण वाला वीडियो. ऐसा नहीं है कि इनकी हिट फिल्मे नहीं आ रहीं, बल्कि इनकी हालिया फ़िल्में बॉक्स ऑफिस पर सुपरहिट रही थीं. इसके बावजूद ऐसा लगता है कि लोगों की दिलचस्पी इनके परदे वाली छवि पर भारी पड़ रही है. ये बिलकुल मुमकिन है कि इन अभिनेत्रियों को लेकर बढती जिज्ञासा PR कंपनियों की दौड़ भाग का नतीजा हो. लेकिन कोई भी ये नहीं सोच सकता कि इसका अंत क्या है.
भारत में मल्टीप्लेक्स के शुरूआती वर्षों में एक बड़े फिल्म निर्माता ने किसी बड़े बिज़नेस रिपोर्टर को कहा था कि तेजी से फ़ैल रहे सिनेमा घरों को बनाये रखने के लिए हमें ग़दर, एक प्रेम कथा या लगान जैसी सुपर हिट फिल्में हर महीने चाहिए होंगी. उन्होंने ये भी कहा था कि ये संभव नहीं है इसलिए हमें लगातार छोटी और मंझोली किस्म की फिल्में लगातार चाहिए होंगी. व्यावसायिक और ख़बरों में बनी रहनी वाली फिल्में जो दर्शकों को खींचकर ला सके. इसी तरह से खबरिया चैनलों और फैलती वर्चुअल दुनिया के जमाने में खाली स्लॉट्स को भरने के लिए भी भरपूर सप्लाई या सुपरहिट प्रोडक्ट देने की जरूरत होगी. दर्शकों के लिए अंधाधुंध फिल्में बनानी होगीं.
इस बात का ध्यान रखना होगा कि भारत में बॉलीवुड से बेहतर कुछ नहीं बिकता. फिल्मी सितारे और कुछ नहीं बल्कि सुन्दर लिफाफे हैं. जिस तरह से फ़िल्मी सितारे या उनकी PR एजेंसियां फिल्म को प्रोमोट करने के लिए हरेक प्लेटफार्म का इस्तेमाल करते हैं उसी तरह कुछ मीडिया संस्थान भी ये मानते हैं कि बदले में उन्हें भी TRP के रूप में इससे फायदा मिलेगा. बेशक, अखबारों और टीवी चैनलों के प्रायोजित कार्यक्रम उतना फायदा नहीं पहुँचते. बल्कि ये व्यवस्था सितारों पर वेवजह ज्यादा फोकस करती है, खासकर अभिनेत्रियों पर.
सितारों की नई जमात में दीपिका पादुकोण और अनुष्का शर्मा हमेशा गलत वजहों से ही खबरों में छायी रहती हैं. उनके मुकाबले रणबीर कपूर, शाहिद कपूर, इमरान खान या रणवीर सिंह जैसे अभिनेता शायद ही कभी विवादों में पड़े हों. यहाँ तक कि पुरानी अभिनेत्रियों में प्रियंका चोपड़ा और कटरीना कैफ भी अपनी गतिविधियों से ख़बरों में बनी रहती थीं.
उदाहरण के लिए रणबीर कपूर और कैटरीना कैफ की छुट्टी वाली तस्वीरें ही ले लें. जैसे ही फोटो सामने आये रणबीर की तुलना में कटरीना को मीडिया के इंटरेस्ट का खामियाजा भुगतना पड़ा. लेकिन उनके कथित संबंधो पर रणबीर से शायद ही सवाल किये गए हों. अनुष्का के मामले में भी कुछ ऐसा ही है. उनका मैच के दौरान स्टेडियम में होना भी मीडिया में हलचल पैदा कर देता है जबकि अनुष्का को लेकर किये गए 'माय लव' जैसे ट्वीट के बावजूद भी विराट कोहली से सवाल नहीं किये जाते. इन सब के बावजूद लोग अभिनेत्रियों की PR एजेंसियों पर आरोप लगा सकते हैं. क्योंकि वे खबरों में बने रहने के लिए होहल्ला मचाते हैं. जितना जल्दी-जल्दी इस तरह के "खबरों वाले' आयोजन होते हैं और जिस उत्सुकता से मीडिया उसे कवर करती है, फिल्म की रिलीज़ के दौरान विवादों का उभारना लाजिमी हो जाता है.
NH-10 के रिलीज़ के दौरान भी किसी टीवी पत्रकार का एक खास क्रिकेटर को लेकर अनुष्का से पूछे गए सवालों का वीडियो वायरल हुआ था. इसमें तो दोनों ही पक्षों की मिलीभगत साफ़ दिखती है. पत्रकार ने कुछ खास गैर फ़िल्मी सवाल किये तो अनुष्का ने भी बिना तफ्सील में जाए तार्किक अंदाज में उनके जवाब दिए. ये तब तक चलता रहा जब तक अनुष्का ने उलटकर उस पत्रकार से निजी सवाल नहीं किये. अनुष्का का सुझाव था कि अभिनेताओं की निजी जिंदगी को बख़्श देना चाहिए.
देखने से तो यही लगता है कि अनुष्का के स्टाफ ने पहले ही पत्रकार को निजी सवाल पूछने से मना कर दिया था लेकिन वह उत्साह में अपने आप को रोक नहीं पायी. लेकिन जैसा की कहा जा चुका है कि अनुष्का अपनी फिल्म को प्रोमोट करने गयीं थी और "कोई भी प्रचार बुरा नहीं होता" को ध्यान में रखते हुए, उनका किसी इंटरव्यू से उठकर चले जाना ज्यादा माहौल बना सकता था. हालांकि अनुष्का ने सब साफ कर दिया था. लेकिन फिर भी वह उस पत्रकार की बातों में शामिल रहीं. इसमें कोई शक नहीं है कि बॉलीवुड पर मुख्यतः पुरुषों का प्रभुत्व है और जैसे-जैसे ये उम्र में बड़े होते गए हैं, (शाहरुख़, आमिर, सलमान, अक्षय कुमार, अजय देवगन, ऋतिक रोशन आदि) अभिनेत्रियां कुछ सालों में बदल जाती हैं.
सच ये भी है कि महिला प्रधान फिल्में कभी-कभी आती हैं. प्रियंका चोपड़ा ने 10 साल के अपने करियर में 7 खून माफ़ और मैरी कॉम जैसी फिल्में की हैं. फ़िल्में बनाना इतना महंगा हो गया है कि निर्माता हर हाल में अपना खर्च जल्द से जल्द निकालना चाहता है. और जब PR में बड़ा पैसा लगता है तो पब्लिसिटी न होना ही बुरी पब्लिसिटी मानी जाती है. निर्माता किसी भी तरह फिल्मों को खबरों में लाने के तरीके सोचते रहते हैं. जबकि अभिनेताओं का कद इतना बढ़ चुका है कि उन्हें इन मामलों में धकेला नहीं जा सकता. ऐसे में बदकिस्मती से ये सब अभिनेत्रियों की जिम्मेदारी बन जाया करती है.
शायद दीपिका पादुकोण और अनुष्का शर्मा को सलमान खान से एक या दो बात सीखनी चाहिए. हालांकि वह मीडिया से जरूरी बातचीत भी करते हैं. लेकिन अपने चारो और सर्कस कर रहे मीडिया की वह ज्यादा परवाह नहीं करते. बल्कि मीडिया के ऊपर उनका जादू और भी तेज़ तभी हुआ है जब से उन्होंने मीडिया को सीरियसली लेना बंद कर दिया. नतीजन आज हर टॉप मीडिया हाउस उनका इंटरव्यू लेने के लिए परेशान रहता है. लोग नयी फिल्मों के लिए पहले से लाइन लगाये रहते हैं बजाय कि उनकी फिल्मों का कोई घटिया रिव्यु छपा हो. ये भारत देश का अजीब मामला है कि किसी महिला से उसके निजी जीवन के बारे में किसी पत्रकार का सवाल पूछना उत्पीड़न की श्रेणी में नहीं आता. एक तबका यह विश्वास करता है कि सीरियस बातचीत करने के लिए हिंदी सिनेमा उपयुक्त नहीं है. लेकिन वही सोच कुछ दूसरे मीडिया घरानों के बारे में नहीं रखी जा सकती क्या? कल्पना कीजिये कि अगर दीपिका, अनुष्का, कटरीना या प्रियंका चैनल पर आने वाली चर्चा का हिस्सा न होती तो?
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