हॉलिडे, बेबी और अब एयरलिफ्ट, अक्षय कुमार एक के बाद एक देशभक्ति से ओत-प्रोत फिल्में देने की जुगत में लगे हैं. इसके बावजूद वे भारत कुमार बनने में कामयाब नहीं हो सके हैं और अभी तक वे खिलाड़ी कुमार ही हैं. उस दौर में जब बॉलीवुड के किसी दूसरे सितारे का देशभक्ति की फिल्मों पर फोकस नहीं था, तब अक्षय ने देशभक्ति प्रधान फिल्मों को चुना. अक्षय कुमार देशभक्ति का जज्बा तो पैदा करने की कोशिश करते हैं लेकिन वे कुछ मौलिक करने में असफल रहे हैं. उनकी अधिकतर फिल्में या तो किसी फिल्म से इंस्पायर होती हैं या उन्हें बिल्कुल अलग ही दुनिया की बनाकर पेश किया जाता है. हाल ही में रिलीज हुई "एयरलिफ्ट" बॉक्स ऑफिस पर तो अच्छी कमाई कर रही है लेकिन फिल्म का लीड कैरेक्टर रंजीत कात्याल जरूर सुर्खियों में आ गया है और उसके असली होने या न होने की बातें हवा में तैर रही हैं. जिससे विवाद पैदा हो गया है.
हकीकत से कोसों दूर
अक्षय कुमार उस सिनेमा के खिलाड़ी हैं जो हकीकत से कोसों दूर है. अगर मनोज कुमार की "उपकार (1967)" और "पूरब और पश्चिम (1970)" को देखें तो सारी कहानी सामने आ जाती है. दोनों ही फिल्में किन्हीं समस्या विशेष को लेकर थीं. असल जिंदगी के बेहद करीब थीं. उपकार जय जवान जय किसान को लेकर थी तो पूरब पश्चिम विदेश में जाकर भारतीय संस्कृति को भूल चुके भारतीयों की कहानी.
अक्षय कुमार की "हॉलिडे" साउथ की रीमेक थी, जिसमें वे किसी सरगना की तरह अकेले ही असंख्य आतंकियों को तबाह कर डालते हैं. बिल्कुल बॉन्ड स्टाइल में जबकि "बेबी" तो और भी तगड़ा झटका देती है. फिल्म में देशभक्त खुफिया सुरक्षाकर्मी किसी दूसरे देश में ऑपरेशन को अंजाम देते हैं और आतंकी सरगना को चुटकियों में उड़ा ले जाते हैं. यानी कहीं तो हकीकत नजर आनी चाहिए.
इंस्पायर्ड बंदा
अक्षय कुमार की अधिकतर फिल्मों के डायरेक्टर कहीं न कहीं किसी न किसी से इंस्पायर्ड रहते हैं. जैसे नमस्ते लंदन (2007) शायद कहीं न कहीं पूरब पश्चिम का आधुनिक संस्करण ही थी. अगर मनोज...
हॉलिडे, बेबी और अब एयरलिफ्ट, अक्षय कुमार एक के बाद एक देशभक्ति से ओत-प्रोत फिल्में देने की जुगत में लगे हैं. इसके बावजूद वे भारत कुमार बनने में कामयाब नहीं हो सके हैं और अभी तक वे खिलाड़ी कुमार ही हैं. उस दौर में जब बॉलीवुड के किसी दूसरे सितारे का देशभक्ति की फिल्मों पर फोकस नहीं था, तब अक्षय ने देशभक्ति प्रधान फिल्मों को चुना. अक्षय कुमार देशभक्ति का जज्बा तो पैदा करने की कोशिश करते हैं लेकिन वे कुछ मौलिक करने में असफल रहे हैं. उनकी अधिकतर फिल्में या तो किसी फिल्म से इंस्पायर होती हैं या उन्हें बिल्कुल अलग ही दुनिया की बनाकर पेश किया जाता है. हाल ही में रिलीज हुई "एयरलिफ्ट" बॉक्स ऑफिस पर तो अच्छी कमाई कर रही है लेकिन फिल्म का लीड कैरेक्टर रंजीत कात्याल जरूर सुर्खियों में आ गया है और उसके असली होने या न होने की बातें हवा में तैर रही हैं. जिससे विवाद पैदा हो गया है.
हकीकत से कोसों दूर
अक्षय कुमार उस सिनेमा के खिलाड़ी हैं जो हकीकत से कोसों दूर है. अगर मनोज कुमार की "उपकार (1967)" और "पूरब और पश्चिम (1970)" को देखें तो सारी कहानी सामने आ जाती है. दोनों ही फिल्में किन्हीं समस्या विशेष को लेकर थीं. असल जिंदगी के बेहद करीब थीं. उपकार जय जवान जय किसान को लेकर थी तो पूरब पश्चिम विदेश में जाकर भारतीय संस्कृति को भूल चुके भारतीयों की कहानी.
अक्षय कुमार की "हॉलिडे" साउथ की रीमेक थी, जिसमें वे किसी सरगना की तरह अकेले ही असंख्य आतंकियों को तबाह कर डालते हैं. बिल्कुल बॉन्ड स्टाइल में जबकि "बेबी" तो और भी तगड़ा झटका देती है. फिल्म में देशभक्त खुफिया सुरक्षाकर्मी किसी दूसरे देश में ऑपरेशन को अंजाम देते हैं और आतंकी सरगना को चुटकियों में उड़ा ले जाते हैं. यानी कहीं तो हकीकत नजर आनी चाहिए.
इंस्पायर्ड बंदा
अक्षय कुमार की अधिकतर फिल्मों के डायरेक्टर कहीं न कहीं किसी न किसी से इंस्पायर्ड रहते हैं. जैसे नमस्ते लंदन (2007) शायद कहीं न कहीं पूरब पश्चिम का आधुनिक संस्करण ही थी. अगर मनोज कुमार की "क्रांति (1981)" की बात करें तो वह एकदम ही अलग तेवर की फिल्म थी जिसने कई कीर्तिमान स्थापित किए थे. कहानी का समय 1825 से 1875 का था, कहानी काल्पनिक होते हुए भी असली जैसी लगती है. फिर शहीद (1965) में उनका निभाया भगत सिंह का किरदार तो आज भी फिल्म इतिहास में अमर है. हालांकि अक्षय इस तरह का कोई किरदार नहीं दे सके हैं जो उन्हें बॉलीवुड में इस तरह का रुतबा दे सके या इस तरह का यादगार बन जाए.
मनोज कुमार का रिकॉर्ड खंगाले तो पता चल जाता है कि वे एक मंझे हुए निर्माता, डायरेक्टर, लेखक और ऐक्टर भी थे. बतौर डायरेक्टर वे क्रांति, रोटी कपड़ा और मकान (1974), शोर (1972), पूरब और पश्चिम (1970) और उपकार (1967) जैसी हिट फिल्में दे चुके हैं. इन फिल्मों की कहानियां भी उन्होंने ही लिखी हैं.
बेशक, अक्षय कुमार देशभक्ति का जज्बा जगाने वाली फिल्में कर रहे हैं, लेकिन दूसरा मनोज कुमार बनने के लिए इतना ही करना काफी नहीं है, फिल्म के दूसरे पहलुओ पर भी फोकस करना बनता है.
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