अगर तुम नहीं लौटे तो... ये जो अगर है न, ये सिर्फ़ लफ़्ज़ नहीं है. ये अपने आप में एक पूरी कहानी, एक सम्पूर्ण कविता है. जब प्रेम में कोई लड़की अपने महबूब से ये पूछती है तब उसमें आशा और निराशा के बराबर भाव तैर रहे होते हैं. एक मन कह रहा होता कि वो प्यार में है और लौटेगा, दूसरा मन कह रहा क्या पता कहीं भूल ही न जाए, मन ही तो है. बुलबुल (Bulbbul) को भी जब सत्या के लंदन जाने के बारे में पता चलता है तो वो पहला सवाल यही करती है. पहला प्रेम या स्नेह से बंधा सत्या कहता है मैं हर दिन चिट्ठी लिखूंगा तुम्हें. बुलबुल की आंखों में यक़ीन और उदासी एक साथ उतर आती है. फिर वो और सवाल करती है. वो कहती है जो तुम चले गए तो हमारी कहानी कैसे पूरी होगी? वो जो घर है जहां हम बैठ कर लिखते हैं उसे नीले रंग से रंगवाएगा कौन? सत्या डूबती आवाज़ में कहता है मैं रंगवा कर जाऊंगा. बुलबुल फिर कहती है, 'तुम चले जाओगे तो मुझसे बातें कौन करेगा? मुझे यहाँ अकेले डर लगता है सत्या.'
सत्या कुछ नहीं बोलता इस पर. बाहर का फैलता अंधेरा हवेली के आंगन से होते हुए बुलबुल और सत्या के अंदर उतरने लगता है.
पहला प्यार ऐसा ही होता है. पहले प्यार में बिछुड़ना दुनिया की सभी पीड़ाओं में से सबसे बड़ी पीड़ा है. उस बिछड़ने वाले लम्हे में कितना कुछ कह लेने का मन होता है लेकिन हम कुछ कह नहीं पाते. रेत की तरह वक़्त फिसल जाता है और हम जुदा हो जाते हैं. उस जुदाई के बाद हम फिर पहले वाले हम नहीं रह जाते. हम वो हो जाते हैं जो हमें वक़्त बना देता है. कई बार अच्छा तो कई बार बुरा. बस इसी अच्छाई और बुराई की कहानी है Netflix पर आयी नयी फ़िल्म ‘बुलबुल.’
वैसे बुलबुल को...
अगर तुम नहीं लौटे तो... ये जो अगर है न, ये सिर्फ़ लफ़्ज़ नहीं है. ये अपने आप में एक पूरी कहानी, एक सम्पूर्ण कविता है. जब प्रेम में कोई लड़की अपने महबूब से ये पूछती है तब उसमें आशा और निराशा के बराबर भाव तैर रहे होते हैं. एक मन कह रहा होता कि वो प्यार में है और लौटेगा, दूसरा मन कह रहा क्या पता कहीं भूल ही न जाए, मन ही तो है. बुलबुल (Bulbbul) को भी जब सत्या के लंदन जाने के बारे में पता चलता है तो वो पहला सवाल यही करती है. पहला प्रेम या स्नेह से बंधा सत्या कहता है मैं हर दिन चिट्ठी लिखूंगा तुम्हें. बुलबुल की आंखों में यक़ीन और उदासी एक साथ उतर आती है. फिर वो और सवाल करती है. वो कहती है जो तुम चले गए तो हमारी कहानी कैसे पूरी होगी? वो जो घर है जहां हम बैठ कर लिखते हैं उसे नीले रंग से रंगवाएगा कौन? सत्या डूबती आवाज़ में कहता है मैं रंगवा कर जाऊंगा. बुलबुल फिर कहती है, 'तुम चले जाओगे तो मुझसे बातें कौन करेगा? मुझे यहाँ अकेले डर लगता है सत्या.'
सत्या कुछ नहीं बोलता इस पर. बाहर का फैलता अंधेरा हवेली के आंगन से होते हुए बुलबुल और सत्या के अंदर उतरने लगता है.
पहला प्यार ऐसा ही होता है. पहले प्यार में बिछुड़ना दुनिया की सभी पीड़ाओं में से सबसे बड़ी पीड़ा है. उस बिछड़ने वाले लम्हे में कितना कुछ कह लेने का मन होता है लेकिन हम कुछ कह नहीं पाते. रेत की तरह वक़्त फिसल जाता है और हम जुदा हो जाते हैं. उस जुदाई के बाद हम फिर पहले वाले हम नहीं रह जाते. हम वो हो जाते हैं जो हमें वक़्त बना देता है. कई बार अच्छा तो कई बार बुरा. बस इसी अच्छाई और बुराई की कहानी है Netflix पर आयी नयी फ़िल्म ‘बुलबुल.’
वैसे बुलबुल को डरावनी फ़िल्म कह कर प्रचारित किया जा रहा है लेकिन वो डरावनी कहीं से भी नहीं है. पता नहीं अन्विता इस ख़ूबसूरत ग़ज़ल सरीखी फ़िल्म को क्यों हॉरर कह रहीं हैं. जिसका हर फ़्रेम किसी ख़ूबसूरत पेंटिंग जैसा है. फ़िल्म की कहानी एकदम बेसिक है लेकिन ट्रीटमेंट बिलकुल अलहदा. देखिए अगर मैं कहूंगी कि फ़िल्म में एक लड़की है बुलबुल जिसकी शादी अपने पिता के उम्र के शख़्स से करवा दी जाती है. शादी के बाद पति उस पर कई ज़ुल्म करता है और उसी सब के दरमियां गांव में एक चुड़ैल आ जाती है, जो लोगों का ख़ून करती है. उस चुड़ैल को कौन कैसे पकड़ेगा यही कहानी है. तो आप कहेंगे इसमें नया क्या है?
तो नया है अप्रोच
ख़ास कर जब फ़िल्म किसी लड़की ने प्रोड्यूस किया हो लिखा और डायरेक्ट भी किसी लड़की ने ही किया तो, फ़िल्म में इतनी बारिकियां आ जाती हैं कि वो बाक़ी के फ़िल्मों से ख़ुद ब ख़ुद अलग हो जाती हैं. बुलबुल के साथ भी यही हुआ है. एक साधारण सी कहानी से असाधारण फ़िल्म बना डाली हैं अन्विता ने. फ़िल्म में एक स्त्री के जीवन के तमाम शेड्स हैं. कैसे एक बच्ची जो परियों के सपने देखती है. जब उसकी शादी हो रही होती तो वो अपनी मां से पूछती है, 'ये बिछिए क्यों पहना रही हो मां मुझे?'
मां कहती है, 'लड़की के पैरों की उंगलियों में एक नस होती है. अगर उसे दबा न दो तो उड़ने लगती है.'
और फिर जब लड़की के अंदर हिम्मत, हो रहे अत्याचार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने का हौसला आ जाता है तो समाज उससे डरने लगता है. समाज को लगता है कि उसके वर्चस्व को कोई ललकार कैसे सकता है. वो लड़की के पैरों को मार-मार कर तोड़ देना चाहता है ताकि वो उड़ने की क्या चलने की भी नहीं सोच पाए. वो सिर्फ़ क्रॉल करे कीड़े-मकौड़े के जैसे. लेकिन लड़की फिर भी हिम्मत नहीं हारती वो टूटे पैरों के साथ चलने लगती है तो समाज उसे ‘उलटे पांव’ वाली चुड़ैल कह कर जलाने निकल जाता है, विच हंटिंग के लिए.
वो जो चुड़ैलों के क़िस्से हमने बचपन में सुने हैं न वो शायद अपने ज़माने की सच में फ़ेमिनिस्ट स्त्रियां रही होंगी. जिन्होंने नहीं माना होगा समाज के घटिया नियमों को. जो शायद बेड़ियों में ख़ुद को नहीं जकड़ना चाही होंगी तो उन्हें ही चुड़ैल समझ कर जला दिया गया होगा. कम से कम बुलबुल को देखते हुए तो यही ख़्याल आया है मुझे.
और क्या ही बदला है हमारा समाज. दूर कहीं जाने की ज़रूरत भी है क्या? बॉलीवुड में ही सबसे बड़ा उदाहरण देखने को वक़्त-वक़्त में मिल जाता है. है वहां एक लड़की जो सभी बड़े स्टार्स के ख़िलाफ़ खुले में बोलती है. नेशनल टीवी पर आ कर देश के सबसे बड़े स्टार और उनके बाप के ख़िलाफ़ हर बात को बेतकल्लुफ़ हो कर कह देती है. उसके बाद शुरू हो जाता है बॉलीवुड की तरफ़ से उसे मानसिक रूप से बीमार तो काली शक्तियों को पूजने वाली हीरोईन. जिससे सब दूरी बना लेते हैं.
उसकी और उसकी फ़िल्मों की जम कर बुराइयां करते हैं. जी समझ तो गए ही होंगे, यहां ज़िक्र कंगना का हो रहा है. जब वर्चस्व वाले मर्दों के ख़िलाफ़ औरत खड़ी होती है वो चुड़ैल हो जाती है. ख़ैर, बात बुलबुल की हो रही थी तो उसी पर लौटते हैं. ये फ़िल्म भी एक प्यारी सी लड़की की अनकही मुहब्बत, टूटते सपने, शादी के बाद बलात्कार, पति से मार-कुटाई और उसके ख़िलाफ़ बोलने पर चरित्रहीन वाला तमग़ा देते समाज की पोल खोलती फ़िल्म है.
अनुष्का शर्मा के प्रोडक्शन में बनी ये बेहद प्यारी फ़िल्म है. जिसे इस वीकेंड तो देखा जा ही सकता है. फ़िल्म का सेट गुरुदत्त की फ़िल्मों की याद दिलाता है. बुलबुल का लुक आपको मीना कुमारी की फ़िल्म साहेब-बीवी और ग़ुलाम वाले एरा में ले जाएगी. इस फ़िल्म को देखना रविंद्र नाथ टैगोर की किसी कविता या कहानी को जी लेने जैसा है.
It's Just beautiful!
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