साल 2021 को भारतीय सिनेमा में 'एंटी कास्ट सिनेमा' का साल कहा जा रहा है. सरपट्टा परंबराई, जयभीम, सीरियस मेन, लव स्टोरी, उप्पेन्ना और श्रीदेवी सोडा सेंटर जैसी तमाम फ़िल्में इसी साल आईं और इनमें हाशिए का समाज मुखरता से दिखा. यह सच है कि सिनेमा के लिहाज से 2021 सबसे बेहतरीन साल है जिसमें जातिवाद पर बनी तमाम फ़िल्में दिखीं. इन्हें लेकर ढेरों तुलनाएं और खूब चर्चाएं हुईं. बावजूद इसे "एंटी कास्ट सिनेमा" का साल नहीं कहा जा सकता. ऐसा कहने के लिए वजह है. तमाम फ़िल्में भले ही जाति विरोध के नाम पर बनी हो उनका निष्कर्ष "एंटी कास्ट थियरी" में मुकम्मल नहीं हो सकता.
यह थोड़ी ज्यादा ज्यादती है, बावजूद जातिवाद के खिलाफ ऊपर बताई गई फिल्मों का रंग भले ही बहुत गाढ़ा हो पर ज्यादातर फ़िल्में यूनिक क्राफ्ट और क्लास के बावजूद 'अतरंगी रे' की कैटेगरी में ही हैं. बस अतरंगी रे को तार्किक रूप से आप सबसे घटिया फिल्म करार दे सकते हैं. जयभीम को औसत और सरपट्टा परंबराई को क्लासिक मान सकते हो. सरपट्टा ज्यादा स्पष्ट और लॉजिकल है. मगर एक ढांचे से बाहर नहीं निकलती. ऊपर जो उदाहरण दिए गए हैं उसमें नवाजुद्दीन सिद्दीकी की सीरियस मेन को छोड़कर ज्यादातर फ़िल्में साउथ के फिल्म उद्योग से आईं. फ़िल्में 'कास्ट सिस्टम' की परतें उघाड़ती हैं.
यही वजह है कि ऊपर की सभी फिल्मों के बारे में जितना बारीक मूल्यांकन समीक्षकों ने नहीं किया उससे कहीं ज्यादा मूल्यांकन और परीक्षण समाजशास्त्रियों-राजनीति विज्ञानियों ने किया. फिल्मों का मूल्यांकन अलग-अलग धारा के अकादमिकों की तरफ से होना भी चाहिए. इससे समाज की सोच, उसके असर और अतीत, वर्तमान, भविष्य की दिशा का भी पता चलता है- आखिर वो जा कहां रहा है और उसकी मंशा क्या है?
अतरंगी रेजाति पर इफ, बट, नो की बजाए...
साल 2021 को भारतीय सिनेमा में 'एंटी कास्ट सिनेमा' का साल कहा जा रहा है. सरपट्टा परंबराई, जयभीम, सीरियस मेन, लव स्टोरी, उप्पेन्ना और श्रीदेवी सोडा सेंटर जैसी तमाम फ़िल्में इसी साल आईं और इनमें हाशिए का समाज मुखरता से दिखा. यह सच है कि सिनेमा के लिहाज से 2021 सबसे बेहतरीन साल है जिसमें जातिवाद पर बनी तमाम फ़िल्में दिखीं. इन्हें लेकर ढेरों तुलनाएं और खूब चर्चाएं हुईं. बावजूद इसे "एंटी कास्ट सिनेमा" का साल नहीं कहा जा सकता. ऐसा कहने के लिए वजह है. तमाम फ़िल्में भले ही जाति विरोध के नाम पर बनी हो उनका निष्कर्ष "एंटी कास्ट थियरी" में मुकम्मल नहीं हो सकता.
यह थोड़ी ज्यादा ज्यादती है, बावजूद जातिवाद के खिलाफ ऊपर बताई गई फिल्मों का रंग भले ही बहुत गाढ़ा हो पर ज्यादातर फ़िल्में यूनिक क्राफ्ट और क्लास के बावजूद 'अतरंगी रे' की कैटेगरी में ही हैं. बस अतरंगी रे को तार्किक रूप से आप सबसे घटिया फिल्म करार दे सकते हैं. जयभीम को औसत और सरपट्टा परंबराई को क्लासिक मान सकते हो. सरपट्टा ज्यादा स्पष्ट और लॉजिकल है. मगर एक ढांचे से बाहर नहीं निकलती. ऊपर जो उदाहरण दिए गए हैं उसमें नवाजुद्दीन सिद्दीकी की सीरियस मेन को छोड़कर ज्यादातर फ़िल्में साउथ के फिल्म उद्योग से आईं. फ़िल्में 'कास्ट सिस्टम' की परतें उघाड़ती हैं.
यही वजह है कि ऊपर की सभी फिल्मों के बारे में जितना बारीक मूल्यांकन समीक्षकों ने नहीं किया उससे कहीं ज्यादा मूल्यांकन और परीक्षण समाजशास्त्रियों-राजनीति विज्ञानियों ने किया. फिल्मों का मूल्यांकन अलग-अलग धारा के अकादमिकों की तरफ से होना भी चाहिए. इससे समाज की सोच, उसके असर और अतीत, वर्तमान, भविष्य की दिशा का भी पता चलता है- आखिर वो जा कहां रहा है और उसकी मंशा क्या है?
अतरंगी रेजाति पर इफ, बट, नो की बजाए निष्पक्ष मूल्यांकन की जरूरत
ऊपर की करीब आधा दर्जन फिल्मों को 'एंटी कास्ट' का तमगा देने की बजाय उन्हें बोल्ड कहना और कुछ को तो शुद्ध एजेंडाग्रस्त कहना ठीक होगा. खुदा के वास्ते अब जातिवाद के नाम पर सिर्फ 'बाम्हनों' को दोष देने की बजाय ईमानदारी से और दूसरे कारण भी पहचान करिए. आखिर तमाम कोशिशों के बावजूद जाति ख़त्म क्यों नहीं हो रही? अगर डेमोक्रेटिक सिस्टम में भी सही कारणों को पहचान नहीं हो पा रही तो इसे कुछ-कुछ वैसे ही मान सकते हैं कि मौजूदा महंगाई के लिए भाजपाई मोदी सरकार के बचाव में दोष सिर्फ नेहरू के माथे पर मढ़कर निकल जाएं. जाति पर अब "इफ, बट, नो' की बजाए एक निष्पक्ष मूल्यांकन की जरूरत है. वर्ना जाति की खिलाफत के नाम पर फ़िल्में बनाई जाएंगी और असल में वो जाति ही स्थापित करेंगी. बिल्कुल उस किस्से की तरह जो एक राजा और संत की है.
किस्सा कुछ यूं है कि एक संत के पास रोज वहां का राजा आता था. वह कहता- मुझे इस संसार के मोह माया से मुक्त करिए. मैं कैसे सांसारिक मोह से बाहर निकलूं. संत मुस्कुराकर चुप रहता. सिलसिला चलता ही रहा. एक दिन राजा फिर संत के पास आया और यही बात दोहराने लगा. संत से रहा नहीं गया. संत ने राजा से कहा- "उठो और पास जो पेड़ है उसके तने को दोनों हाथों से जकड़कर खड़े हो जाओ." राजा ने वैसा ही किया. संत ने राजा से कहा- "अब पेड़ से कहो कि वह तुम्हें छोड़ दे." राजा ने कहा- "कैसी बात कर रहे आप. पेड़ को तो मैंने पकड़ रखा है." संत ने फिर कहा- "नहीं, पेड़ से कहिए कि वो आपको छोड़ दे." राजा ने कहा- "पेड़ ने तो मुझे पकड़ा ही नहीं है. आप कह रहे कि वो मुझे छोड़ दे. और पेड़ तो मैंने पकड़ रखा है." संत के फिर दोहराने पर राजा की समझ में आ गया और उन्होंने कहा- "मुझे माफ़ करिए, मेरी समझ में आ गया. सांसारिक मोहमाया ने मुझे नहीं पकड़ा बल्कि उसे मैंने पकड़ रखा है अबतक."
कहीं ऐसा तो नहीं कि जाति की खिलाफत कर रहे तमाम फिल्मकार और विचारक जाति को उसी तरह पकड़कर बैठे हुए हैं जैसे राजा ने पेड़ पकड़ा हुआ था. कहीं ऐसा तो नहीं कि अब सिर्फ 'बाम्हनों' ने ही नहीं बल्कि कई और हैं जो जाति की एक लकीर बनाए रखने में ही फायदा देख रहे हैं- जिसका क्लासिक नमूना जयभीम है. 2021 के साल को "एंटी कास्ट" सिनेमा की बजाय बोल्ड इसलिए कहना चाहिए कि कुछ फिल्म मेकर्स- खासकर तमिल सिनेमा की वजह से अब दलित किरदार ज्यादा स्पष्ट और मुखर हैं. जैसे इस साल सरपट्टा और करणन में दिखा. सरपट्टा को उसके टाइम फ्रेम की वजह से एक लिहाज से छोड़ा भी जा सकता है, मगर करणन में असल दिक्कत यही है कि सैद्धांतिक और वैचारिक पक्ष बचाने के चक्कर में यह एक संकुचित दायरे में दिखती है. अगर यह दायरा नहीं होता तो करणन में तमिलनाडु की राजनीतिक व्यवस्था पर सवाल क्यों नहीं है?
क्या भारत के नए शहरी हिंदुत्ववाद को अतरंगी रे ने आवाज दे दी है
साल 2021 को 'एंटी कास्ट' की बजाय एजेंडाग्रस्त इसलिए भी कहना चाहिए कि एक सच्ची कहानी पर बनी होने के बावजूद जयभीम में भी 'ब्राह्मण' विरोध पर टिकी सैद्धांतिक-वैचारिकी को बचाने के लिए चीजें बुरी तरह से प्लांट की गई. किरदारों के सोशियो पॉलिटिकल बैकग्राउंड से खिलवाड़ हुआ. आश्चर्य होता है कि दोनों ही फिल्मों में जिम्मेवार होने के बावजूद तत्कालीन देशकाल और राजनीतिक व्यवस्था को साफ़-साफ बचा लिया गया.
इन्हें बचाने के बावजूद अगर सिनेमा जातिवाद के खिलाफ तारीफ़ के काबिल पाया जाता है तो यह भी एक समस्या ही है. फिर ऐसे तो आनंद एल रॉय की 'अतरंगी रे' को भी कह लीजिए जो असल में "एक भारत, श्रेष्ठ भारत" के कांसेप्ट पर बनी है. शहरी भारत के नए हिंदुत्ववाद की कहानी. यहां बहुत सफाई से एक दायरे में विजातीय प्रेम दिखा है और लव जिहाद का इलाज भी. सोशल मीडिया पर कुछ निरा मूर्ख जिस आधार पर फिल्म के बहिष्कार की मांग कर रहे कुछ साल बाद यही तर्क देते नजर आएंगे.
अतरंगी रे और मलिक दोनों अपनी राजनीति के साथ
साल 2021 एजेंडाग्रस्त फिल्मों का साल है जहां बायस्ड वैचारिकी दिख रही है. 'मलिक' में मुस्लिम नायक क्रिश्चियन पत्नी से जन्मे बेटे को बैप्टिज्म से पहले ही चर्च से उठा लाता है. वह चाहता है कि उसका बेटा मुस्लिम पहचान के साथ बड़ा हो. पत्नी का धर्म परिवर्तन तो नहीं दिखाया गया, मगर उसके नजरिए में उहापोह है. अतरंगी रे में मुस्लिम पति और हिंदू पत्नी का नजरिया साफ नहीं है, मगर सज्जाद अली खान सहिष्णु है. वह एपीजे अब्दुल कलाम वाले नजरिए में एक अच्छा मुसलमान दिख रहा है. कई लोग बताते भी हैं कि मुसलमान कलाम की तरह होना चाहिए.
बाप भले बेटी की स्मृतियों में गहरा बसा हुआ है मगर हिंदू पहचान के साथ बड़ी हुई बेटी रिंकू रघुवंशी को अपने राजपूत होने पर कर्रा गर्व है. बावजूद कि वह पिता की हत्या के लिए ननिहाल से गुस्सा है. क्या यह उस सिद्धांत की व्याख्या नहीं जिसमें "घरवापसी" के इच्छुक मुसलमनों को अब पूरी तरह अंगीकार कर लेने का भरोसा दिया जा रहा है. दो दशक पहले इसकी गुंजाइश नहीं थी. क्या मलिक और अतरंगी रे अपनी धार्मिक पहचान के साथ खड़ी नहीं हो रहीं.
जयभीम पर शोर बहुत मंडेला पर खामोशी क्यों?
सरपट्टा, जयभीम और करणन से अलग भी एक फिल्म आई थी इस साल- मंडेला. यह फिल्म नेटफ्लिक्स पर है. लेकिन दुर्भाग्य से इसकी व्यापक चर्चा नहीं हुई. अगर आप साल 2021 को एंटी कास्ट सिनेमा मानते हैं तो सिर्फ यह एक फिल्म अपनी मौजूदगी में 100 फीसद ईमानदार है. याद नहीं कि हाल के कुछ वर्षों में मंडेला से बेहतर कोई सोशियो-पॉलिटिकल सटायर देखने को मिली हो. जाइए और देखिए- क्या ही लाजवाब फिल्म है ये. असल में मंडेला भी 'एंटी कास्ट' बुनियाद पर टिकी फिल्म ही है. लेकिन असल में जो जैसा है उसे वैसे ही दिखाया है. जाति की व्यथा है पर दोषारोपण नहीं. वैचारिक ढोंग रचने के लिए यहां ड्रामा नहीं है. देशकाल और तमिलनाडु की राजनीति के भी सच का एक बड़ा टुकड़ा है.
असल में यह फिल्म भी उस वैचारिकी से सवाल करती है जो चीजों को सिर्फ 'सवर्ण-अवर्ण' की बाइनरी में देखती है. करणन और जयभीम में दरअसल, यही सवर्ण-अवर्ण बाइनरी हावी है और दूसरी चीजों को इसकी आड़ में बचा लिया गया है. चलिए मंडेला के बारे में चर्चा करते हैं शायद आप अंदाजा लगा पाए कि किन वजहों से साल की एक बहुत जरूरी सोशियो-पॉलिटिकल ड्रामा होने के बावजूद इसे लगभग इग्नोर किया गया.
तमिलनाडु का एक गांव हैं. गांव में उत्तरी और दक्षिणी दो जाति आधारित टोले हैं और दोनों एक-दूसरे से खुद को श्रेष्ठ मानते हैं. समूचे तमिलनाडु की तरह यहां भी पेरियार राजनीति का प्रभाव है. इसे प्रतीकों के जरिए दिखाया गया है. बुजुर्ग अध्यक्ष जी की दो पत्नियां हैं. उन्होंने सामजिक बदलाव के लिए दोनों शादियां की थीं ताकि सब मिलजुल कर रहें. दोनों शादियों से दो बच्चे हैं. दोनों अपनी श्रेष्ठता की अकड़ में हैं. गांव में एक नाई है. उसके पास रहने के लिए घर नहीं है. पेड़ के नीचे दुकान चलाता है.
उसे काम के बदले पैसे नहीं दिए जाते. बराबर नहीं बिठाया जाता. छुआछूत का शिकार है. उसका कोई नाम ही नहीं है. गधा जैसी दर्जनों गालियां ही उसका नाम है. यहां तक कि बच्चे भी उसके साथ वही व्यवहार करते हैं जो गांव के बड़े बुजुर्ग और महिलाएं करती हैं. लोग बाल कटवाने के अलावा तमाम कामों में बेगारी करवाते हैं. मसलन किसी ने राशन कोटे से अपना झोला मंगाया है. या लकड़ियों का गट्ठर घर पहुंचाने के लिए दे देता है. वह जब राशन या लकड़ी पहुंचाने आता है तो घर की महिलाएं उसे बैठाकर बर्तन भी साफ करवाती हैं. दक्षिण में दलित दिख रहा नाई उत्तर के वर्णक्रम में थोड़ी बेहतर स्थिति में है.
गांव की बहुतायत आबादी के पास शौचालय नहीं है. लोग स्मार्टफोन का टॉर्च जलाकर रात में खुले में शौच करते हैं. महिलाओं की स्थिति बहुत दयनीय है. गांव में एक सार्वजनिक शौचालय बनता है. लेकिन उसमें पहले कौन जाएगा इसे लेकर गांव के दोनों टोले भिड जाते हैं. सार्वजनिक शौचालय की सफाई के लिए भी नाई को ही बुलाया जाता है क्योंकि अन्य समुदाय इसे हीनतम कार्य मानते हैं. बदले में उसे मिले पैसों को जेब में रख लिया जाता है. कुल मिलाकर लोकतांत्रिक व्यवस्था पर टिके पेरियार के प्रभाव वाले गांव में भी एक आदमी को मामूली इंसान का दर्जा तक नहीं है. नाई के पैसे चोरी हो जाने के बाद पोस्ट ऑफिस में खाता खुलवाने के लिए एक महिला कर्मचारी उसे मंडेला नाम देती है.
जातिवाद के खिलाफ सोशियो पॉलिटिकल व्यंग्य है मंडेला
इस बीच गांव में सरपंच के चुनाव शुरू हो जाते हैं. अध्यक्ष के दोनों बेटे पिता का उत्तराधिकार पाने के लिए आमने सामने हैं. उनके पीछे दोनों का अपना टोला खड़ा है. गिनती में दोनों तरफ के वोट बराबर हैं. तभी पता चलता है कि एक और नया वोटर है गांव में जो किसी टोले का नहीं. वह वोट है नाई का जो अब मंडेला की पहचान पा चुका है. मंडेला का वोट पाने के लिए उसकी आवभगत शुरू हो जाती है. विकास योजनाओं से करोड़ों कमाने के चक्कर में अध्यक्ष जी के दोनों बेटे मंडेला का वोट पाने के लिए क्या कुछ नहीं करते. क्योंकि मंडेला ही निर्णायक है. जिस मंडेला को इंसान तक नहीं समझा जाता उसकी आवभगत हैरान करने वाली है. इसके बाद भी बहुत सारी कहानी है. अच्छा होगा कि इसे आप खुद देखें.
यह फिल्म इसलिए मुकम्मल है कि आज के संदर्भ में ईमानदार है. यहां जाति की व्यथा है. उसे तोड़ने की कोशिश है. लेकिन यहां उन जिम्मेदारों पर तीखा तंज है जिन्होंने इसे तोड़ने की वैचारिकी तो दिखाई पर व्यावहारिक रूप से खुद जातिवाद से जकड़े रहे. मंडेला में जाति को लेकर किसी एक पर दोषारोपण नहीं है और किसी जिम्मेदार को छोड़ा भी नहीं गया है. कुछ भी तोड़ मरोड़कर पेश नहीं हुआ है- जयभीम की तरह जिसे लेकर फिल्म की स्ट्रीमिंग के बाद तमिलनाडु की सियासत में बहुत बवाल देखने को मिला. मंडेला में सामान्य जनसुविधाओं को लेकर डिजिटल इंडिया जैसे नारों पर भी तीखा व्यंग्य है. और आखिर में एक ख़ूबसूरत निष्कर्ष जो फिल्म का क्लाइमैक्स है.
हकीकत में 'एंटी कास्ट' बहुत बड़ा शब्द है. उसे हर कहीं और हर किसी फिल्म के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता. मंडेला की वजह से साल 2021 को 'एंटी कास्ट सिनेमा' के तौर पर याद करें. बाकी फ़िल्में बोल्ड ज्यादा हैं, उनमें एंटी कास्ट सिनेमा जैसी बातें दिखती जरूर हैं पर असल में हैं नहीं.
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