सदी के महानायक, बॉलीवुड के शहंशाह और सभी सिनेप्रेमियों के आदर्श एंग्री यंग मैन, अमिताभ बच्चन के व्यक्तित्त्व में इतने चमकदार पहलू हैं कि एक साथ उनकी चर्चा कर पाना संभव ही नहीं! यह तो हम सभी जानते हैं कि चाहे जंजीर, शोले, दीवार, कालिया, मर्द, डॉन, शहंशाह जैसी फिल्मों का एक्शन हीरो हों, या कि सिलसिला, कभी-कभी, मुक़द्दर का सिकंदर के गंभीर प्रेमी की भूमिका, आनंद का संज़ीदा बाबू मोशाय, मां और परिवार के लिए मर मिटने वाला खुद्दार इंसान हो या फिर लीक से हटकर अक्स, मैं आज़ाद हूं, अग्निपथ, पीकू, सरकार, 102 नॉट आउट, पिंक, चीनी कम जैसी फ़िल्मों को अपनी शानदार अभिव्यक्ति से यादगार बना देने वाला कलाकार, अमिताभ हर रंग में खरे उतरे हैं. बात इनकी कॉमिक टाइमिंग की हो या भावुक संवेदनशील दृश्यों की, ये अपने हर चरित्र में भीतर तक जान फूंक देते हैं. अमिताभ संभवतः वह अकेले कलाकार होंगे जिसकी प्रशंसक एक ही घर की तीनों पीढ़ियां हैं. मात्र फ़िल्में ही नहीं बल्कि टीवी और विज्ञापनों की दुनिया में भी वे नंबर वन हैं.
हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों ही भाषाओं पर अमित जी की ऐसी पकड़ है कि अच्छे-अच्छे भी उनके सामने पानी भरते नज़र आते हैं. मेहनत, लगन और अनुशासन से अपने जीवन को कैसे सफ़ल और सार्थक बनाया जा सकता है, यह बात कोई अमिताभ से सीखे!
बॉलीवुड के इस चहेते 'एंग्री यंग मैन' ने अपनी कॉमेडी फिल्मों के माध्यम से भी न केवल बॉक्स-ऑफिस पर ही धूम मचाई बल्कि अपने प्रशंसकों का भरपूर मनोरंजन कर ख़ूब वाहवाही भी लूटी है. कुछ दृश्य तो इतने गहरे उतर चुके हैं कि 30-40 वर्षों बाद भी किसी चलचित्र की भांति चलते हैं. इनका एक-एक डायलॉग आज भी लोगों को जुबानी याद है.
'सत्ते पे सत्ता' में तरबूज के जमीन पर गिरकर...
सदी के महानायक, बॉलीवुड के शहंशाह और सभी सिनेप्रेमियों के आदर्श एंग्री यंग मैन, अमिताभ बच्चन के व्यक्तित्त्व में इतने चमकदार पहलू हैं कि एक साथ उनकी चर्चा कर पाना संभव ही नहीं! यह तो हम सभी जानते हैं कि चाहे जंजीर, शोले, दीवार, कालिया, मर्द, डॉन, शहंशाह जैसी फिल्मों का एक्शन हीरो हों, या कि सिलसिला, कभी-कभी, मुक़द्दर का सिकंदर के गंभीर प्रेमी की भूमिका, आनंद का संज़ीदा बाबू मोशाय, मां और परिवार के लिए मर मिटने वाला खुद्दार इंसान हो या फिर लीक से हटकर अक्स, मैं आज़ाद हूं, अग्निपथ, पीकू, सरकार, 102 नॉट आउट, पिंक, चीनी कम जैसी फ़िल्मों को अपनी शानदार अभिव्यक्ति से यादगार बना देने वाला कलाकार, अमिताभ हर रंग में खरे उतरे हैं. बात इनकी कॉमिक टाइमिंग की हो या भावुक संवेदनशील दृश्यों की, ये अपने हर चरित्र में भीतर तक जान फूंक देते हैं. अमिताभ संभवतः वह अकेले कलाकार होंगे जिसकी प्रशंसक एक ही घर की तीनों पीढ़ियां हैं. मात्र फ़िल्में ही नहीं बल्कि टीवी और विज्ञापनों की दुनिया में भी वे नंबर वन हैं.
हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों ही भाषाओं पर अमित जी की ऐसी पकड़ है कि अच्छे-अच्छे भी उनके सामने पानी भरते नज़र आते हैं. मेहनत, लगन और अनुशासन से अपने जीवन को कैसे सफ़ल और सार्थक बनाया जा सकता है, यह बात कोई अमिताभ से सीखे!
बॉलीवुड के इस चहेते 'एंग्री यंग मैन' ने अपनी कॉमेडी फिल्मों के माध्यम से भी न केवल बॉक्स-ऑफिस पर ही धूम मचाई बल्कि अपने प्रशंसकों का भरपूर मनोरंजन कर ख़ूब वाहवाही भी लूटी है. कुछ दृश्य तो इतने गहरे उतर चुके हैं कि 30-40 वर्षों बाद भी किसी चलचित्र की भांति चलते हैं. इनका एक-एक डायलॉग आज भी लोगों को जुबानी याद है.
'सत्ते पे सत्ता' में तरबूज के जमीन पर गिरकर फटने के साथ ही अमिताभ के दिल के बिखरने वाला दृश्य हो, हेमा मालिनी को कैलेंडर के हिसाब से फ़ेमिली का परिचय कराने वाला या फिर बुक्का फाड़कर यह गाना 'प्यार हमें किस मोड़ पे ले आया' ...इस फ़िल्म का हर एक दृश्य और गीत यादगार बन गया था. उन दिनों हर बच्चा 'चैन कुली की मैन कुली की चैन' कहकर अपनी लड़ाई का उद्घोष करता था. इसी फ़िल्म में जब अमिताभ (रवि); अमज़द खान के सामने "दारू पीता नहीं अपुन, मालूम है क्यूं? शराब पीने से लीवर ख़राब हो जाता है. इधर (ज्ञान बांटते हुए लीवर की पोजीशन दिखाते हैं). उस दिन क्या अपुन एक दोस्त की शादी में गया था'.... इस संवाद को दसियों बार कुछ इस अंदाज़ में दोहराते हैं कि हर बार दर्शक और जोरों से ताली पीटने पर मज़बूर हो जाता है."
'नमक हलाल' भी ऐसी कई मजेदार दृश्यों की साक्षी रही है. एक तो वो जब वे अर्जुन सिंह के चरित्र में अपने मालिक शशिकपूर की चाय में मक्खी गिरने से बचाते हैं (यहां वे दरअसल उनके होटल को धोखेबाजों के हाथों बिकने से बचाना चाहते हैं). और दूसरा ये जिसने सबको अंग्रेज़ी में बात करने का कॉन्फिडेंस (ओवर ही सही) दिया. याद कीजिये, "अरे, बाबूजी ऐसी इंग्लिस आवे है देट आई कैन लीव अंग्रेज़ बिहाइंड. यू शी सर, आई कैन टॉक इंग्लिश, आई कैन वॉक इंग्लिश, आई कैन लाफ इंग्लिश बिकॉज इंग्लिश इज ए वेरी फनी लैंग्वेज. भैरों बिकम्स बैरो बिकॉज देयर माइंड्स आर वेरी नैरो. इन द ईयर 1929 सर व्हेन इण्डिया वाज़ प्लेयिंग अगेंस्ट ऑस्ट्रेलिया इन मेलबोर्न सिटी..." उसके बाद उन्होंने जो कमैन्ट्री सुनाई है उसने लोगों को हँसा- हँसाकर पागल कर दिया था. बात यहीं नहीं रुकी, उसके बाद वे पूरी मासूमियत से रंजीत से पूछते भी हैं कि "मेरे इस सामान्य ज्ञान पर आप कुछ विशेष टिप्पणी करेंगे?"
शोले में यद्यपि उनकी भूमिका गंभीरता ओढ़े हुए थी लेकिन जब वे बसन्ती की नॉन-स्टॉप बकबक के साथ उसके ये कहने पर कि "यूँ कि आपने हमारा नाम तो पूछा ही नहीं!"...बड़ी सादगी और शांत भाव की मुद्रा अपनाते हुए जब उससे पूछते हैं "तुम्हारा नाम क्या है, बसन्ती?" या फिर बसन्ती के लिए वीरू का रिश्ता जब मौसी के पास लेकर जाते हैं और पूरा सत्यानाश करने के बाद भोलेपन से कहते हैं "क्या करूं, मेरा तो दिल ही कुछ ऐसा है, मौसी!" तो दर्शक यकायक खिलखिला उठते हैं. उस पर वीरू का टंकी पर चढ़ चक्की पीसिंग एंड पीसिंग का ड्रामा चलता है तो वे आराम से टांगें फैलाकर बैठे रहते हैं और बड़ी अदा से कहते हैं, "घड़ी-घड़ी ड्रामा करता है, नौटंकी साला!" दर्शक उसी पल इनके दीवाने हो गए थे.
'खुद्दार' में अपने भाई (विनोद मेहरा) का ड्रामा देखने जाते हैं वहां उनका अपनी टांगों को एडजस्ट करना और फिर अंग्रेजी न समझने के कारण दूसरों के हिसाब से हंसना, इतना ही नहीं भाई को पिटते देख स्टेज पर चढ़ सब मटियामेट कर डालना भी क्लासिक बन पड़ा है. इसमें उन्होंने अपनी टैक्सी के साथ भी बहुत गुदगुदाते दृश्य दिए हैं.
'जलवा' में अतिथि भूमिका में होते हुए भी अपना जलवा दिखा गए थे. याद है न जब सतीश कौशिक जी गप्प हांकते हैं कि वो अमिताभ बच्चन को जानते हैं, उसी समय उनका पीछे से आकर वो ज़बरदस्त अभिनय करना!
बड़े मियां छोटे मियां में गोविंदा के साथ तो ऐसी शानदार ट्युनिंग बैठी कि दोनों ने डबल रोल में ऐसा डबल धमाल किया कि दर्शक भी हंस-हंस दोहरे हो गए. "डाकू मोहरसिंह को किसने पकड़ा?" और माधुरी दीक्षित से ब्याह रचाने का ख्व़ाब जोरदार बन गया था.
चुपके-चुपके में जया जी को बॉटनी पढ़ाते हुए जब वे उदाहरण सहित व्याख्या करते हैं कि "गोभी का फूल, फूल होकर भी फूल नहीं, सब्जीव है. इसी तरह गेंदे का फूल, फूल होकर भी फूल नहीं है." कोरोला और करेला को मिलाकर उन्होंने जो स्वाद बनाया था, उसके चटखारे आज तक लिए जाते हैं.
कहीं मूंछों का ज़िक्र हो और शराबी में मुकरी साब के साथ अमिताभ के इस संवाद की बात न हो, यह तो हो ही नहीं सकता! "भाई मूंछे हों तो नत्थूलाल जी जैसी हों वरना न हों. बड़प्पन उसका, जिसकी मूंछें बड़ी हों! हमारा तो कोई पन नहीं, देखिये सफाचट"
इसी फिल्म में जब अपने चमचों के साथ विकी (अमिताभ) घटिया शायरी "जिगर का दर्द ऊपर से कहीं मालूम होता है, जिगर का दर्द ऊपर से नहीं मालूम होता है" सुना रहा होता है तो उसी समय उसे मुंशी जी (ओमप्रकाश) से जो लताड़ पड़ती है उसका असर आज भी कई आशिक़ों की अधूरी ग़ज़लों में नज़र आता है. बेबस और जबरन बने शायर आज भी अमित की इस बात से जूझते हैं कि "बस यही तो बात है मुंशी जी, ये कमबख्त वज़न कहां से लायें? रदीफ़ पकड़ते हैं तो काफ़िया तंग पड़ जाता है, काफ़िये को ढील देते हैं, वज़न गिर पड़ता है, ये वज़न मिलता कहां है?"
कुली में मूर्ति बनकर रति अग्निहोत्री के सामने खड़े होना और फिर "लो हम जिंदा हो गए" कहते हुए छाता उछाल कूद पड़ना तथा योग और आमलेट की मिक्सिंग का दृश्य भी कम लुभावना नहीं था. 'याराना' का "कच्चा पापड़, पक्का पापड़" आज भी tongue twister के उदाहरण में पेश किया जाता है.
अब आपकी आंखों में भी न जाने कितने नाम तैर रहे होंगे जो इस सूची में आने से रह गए. बॉम्बे टू गोवा, मि. नटवरलाल, नसीब, दोस्ताना, कभी ख़ुशी कभी ग़म, मोहब्बतें, कभी अलविदा न कहना, खून पसीना, परवरिश, हेराफ़ेरी....ये लिस्ट थमेगी नहीं!
"एइसा तो आदमी लाइफ में दोइच टाइम भागता है, ओलंपिक का रेस हो या पुलिस का केस हो" (अमर अकबर एंथोनी)
आपकी कर्मठता यूँ ही बनी रहे और प्रेरणा देती रहे. जन्मदिवस की अनंत शुभकामनाएँ अमित जी!
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