भारतीय शिक्षा व्यवस्था के स्कूली शिक्षा में सेक्स एजुकेशन चुप्पी और शर्म जैसे बड़ी-बड़ी दीवारों में घिरा हुआ है. जबकि सेक्स एजुकेशन से जुड़े सवाल हर छात्र-छात्राओं के पास एक नहीं अनेक हैं. युवा हो रहा छात्र-छात्राएं में हो रहे शारीरिक बदलाव उनके साथ कई सवाल खड़े करते हैं. लेकिन सही जवाब कहीं नहीं मिल पाता है. वज़ह यह कि जिनके सेक्स एजुकेशन देने की जिम्मेदारी है वह खुद शर्म और चुप्पी के दीवारों में कैद है. इसका प्रभाव कहे या खमियाज़ा सबसे अधिक महिलाओं के शरीर और स्वास्थ्य पर पड़ता है.
चुप्पी और शर्म वाली दीवार इतनी बड़ी है कि लोग दुकान में कंडोम खरीदने में ही शर्मदगी महसूस नहीं करते. कंडोम कंपनियों में काम करने वाले लोगों का भी लोग मज़ाक उड़ाते है. पब्लिक प्लेस में या टीवी या सिनेमा में कंडोम विज्ञापन देख लेने पर चुटकियां लेते है, भद्दे कमेंट पास करते है और माखौल उड़ाते है. हिंदी सिनेमा में सेक्स एजुकेशन और सेक्स के वर्जनाओं को तोड़ने के लिए पहले भी कई कहानियां देखने-सुनने को मिलती है. उस कड़ी में रकुल प्रीत सिंह की फिल्म 'छतरीवाली' में यौन शिक्षा कम उम्र में ही जरूरी का संदेश दे रही है. ये फिल्म ओटीटी प्लेटफार्म जी5 पर स्ट्रीम की जा रही है. देश में यौन शिक्षा की कमी से जूझते बच्चों के लिए पढ़ाया जाना अनिवार्य होना चाहिए और इससे जुड़े सवाल भी परीक्षाओं में पूछे जाने चाहिए, इस तरह के विषय को सतह पर लाने की कोशिश फिल्म में दिखती है.
क्या है फिल्म 'छतरीवाली' की कहानी
फिल्म जहां से शुरु होती है लगता है कि कहानी पहले के फिल्म 'जनहित में जारी' में कही जा चुकी है. हरियाणा के करनाल में नायिका सान्या (रकुल प्रीत सिंह) जो केमिस्ट्री की ट्यूशन पढ़ाती है. उसे स्वयं को कंडोम कंपनी में कंडोम टेस्टर काम करना नहीं भाता है. वह घर वालों से और अपने पति (सुमित व्यास) से भी यह...
भारतीय शिक्षा व्यवस्था के स्कूली शिक्षा में सेक्स एजुकेशन चुप्पी और शर्म जैसे बड़ी-बड़ी दीवारों में घिरा हुआ है. जबकि सेक्स एजुकेशन से जुड़े सवाल हर छात्र-छात्राओं के पास एक नहीं अनेक हैं. युवा हो रहा छात्र-छात्राएं में हो रहे शारीरिक बदलाव उनके साथ कई सवाल खड़े करते हैं. लेकिन सही जवाब कहीं नहीं मिल पाता है. वज़ह यह कि जिनके सेक्स एजुकेशन देने की जिम्मेदारी है वह खुद शर्म और चुप्पी के दीवारों में कैद है. इसका प्रभाव कहे या खमियाज़ा सबसे अधिक महिलाओं के शरीर और स्वास्थ्य पर पड़ता है.
चुप्पी और शर्म वाली दीवार इतनी बड़ी है कि लोग दुकान में कंडोम खरीदने में ही शर्मदगी महसूस नहीं करते. कंडोम कंपनियों में काम करने वाले लोगों का भी लोग मज़ाक उड़ाते है. पब्लिक प्लेस में या टीवी या सिनेमा में कंडोम विज्ञापन देख लेने पर चुटकियां लेते है, भद्दे कमेंट पास करते है और माखौल उड़ाते है. हिंदी सिनेमा में सेक्स एजुकेशन और सेक्स के वर्जनाओं को तोड़ने के लिए पहले भी कई कहानियां देखने-सुनने को मिलती है. उस कड़ी में रकुल प्रीत सिंह की फिल्म 'छतरीवाली' में यौन शिक्षा कम उम्र में ही जरूरी का संदेश दे रही है. ये फिल्म ओटीटी प्लेटफार्म जी5 पर स्ट्रीम की जा रही है. देश में यौन शिक्षा की कमी से जूझते बच्चों के लिए पढ़ाया जाना अनिवार्य होना चाहिए और इससे जुड़े सवाल भी परीक्षाओं में पूछे जाने चाहिए, इस तरह के विषय को सतह पर लाने की कोशिश फिल्म में दिखती है.
क्या है फिल्म 'छतरीवाली' की कहानी
फिल्म जहां से शुरु होती है लगता है कि कहानी पहले के फिल्म 'जनहित में जारी' में कही जा चुकी है. हरियाणा के करनाल में नायिका सान्या (रकुल प्रीत सिंह) जो केमिस्ट्री की ट्यूशन पढ़ाती है. उसे स्वयं को कंडोम कंपनी में कंडोम टेस्टर काम करना नहीं भाता है. वह घर वालों से और अपने पति (सुमित व्यास) से भी यह बात छुपाती है और बताती है कि वह किसी छतरी बनाने वाली कंपनी में काम करती है. जब घर में लोगों को पता चलता है कि वह कंडोम कंपनी में काम करती है तब कहानी में नया मोड़ आता है और अचानक से यौन शिक्षा क्यों जरूरी है के मुहीम पर निकल पड़ती है. यह कहते हुए कि सेक्स एजुकेशन को लेकर तमाम कुंठाओं को पहले घर के चारदीवारी में तोड़ना अधिक जरूरी है. इसके साथ ही साथ स्कूली शिक्षा के परीक्षा व्यवस्था में सेक्स एजुकेशन के सवाल अनिवार्य रूप से पूछा जाना चाहिए.
समस्या केवल कंडोम के इस्तेमाल तक ही नहीं है
'छतरीवाली' भारतीय समाज में यौन कुंठाओं को लेकर जो यथास्थिति है, उसको बड़े व्यापक फलक पर ले जाती हुई दिखती है. शायद इसलिए भी फिल्म को सेंसर सर्टिफिकेट पाने में समय लगा और रिलीज़ हुई भी तो ओटीटी पर, सिनेमाघरों में नहीं. यौन शिक्षा से जुड़ी फिल्में एक बड़ी समस्या से जुझ रही है कि वर्जित विषयों की तरह इन फिल्मों को भी वर्जित श्रेणी में ढ़केल दिया जाता है. इस तरह के सिनेमा बनाने वालों को और सेसर बोर्ड को थोड़ा परिपक्व होकर इस समस्या से लड़ने की आवश्यकता है. जब फिल्म भारतीय युवाओं में सेक्स एजुकेशन के सवाल को सतह पर ला रही है तो कम से कम युवाओं के लिए सिनेमाघरों में इसे अनिवार्य रूप से दिखाया जाना चाहिए. फिल्म अंत में बताती है कि देश में हर दस पुरुष में एक व्यक्ति ही कंडोम का इस्तेमाल करता है. मर्द कंडोम का इस्तेमाल करना तौहीन समझते हैं और महिलाएं गर्भपात या अनचाहे गर्भ की परेशानियां चुपचाप झेलती रहती हैं. किशोर हो चुके बच्चों को इस फिल्म को जरूर देखने के लिए कहना चाहिए. सरकार यदि जूनियर हाईस्कूलों में मुफ्त दिखाने की पहल करे तब बड़ी बात हो सकती है.
कैसी है फिल्म 'छतरीवाली'
फिल्म रकुल प्रीत सिंह की है कहना गलत नहीं होगा. वह भी पूरी तरह से शोलो. एक दममार कहानी को अपने अभिनय के कंधे पर बखूबी उठाया है. उनके अभिनय में सहज़ता और जबरदस्ती का भाव बनाने की कोशिश चेहरे पर नहीं दिखता है. जैसे वह अपने किरदार से साथ बहती चली जाती है. राकेश तेलंग और सुमित व्यास कहानी के अन्य किरदार हैं जो फिल्म को ढ़ीला नहीं होने देते हैं. सतीश कौशिक में कमाल की संवाद अदायगी है. खासकर तब जब वह कहते है यंग जेनेरेसन न कमल है. डांली अहलूवालिया और अन्य कलाकार समान्य रहे है अपनी भूमिका में. निर्देशक तेजस प्रभा विजय देओस्कर ने 'छतरीवाली' कहानी को बुनने और उसको सिनेमा के रूप में दिखाने में जो मेहनत की है, वह पूरी तरह से कामयाब रहे है. पूरी फिल्म कहीं भी पटरी से उतरती हुई नहीं दिखती है. संगीत भी कर्णप्रिय है लेकिन अधिक समय तक लोगों के जुबां पर रहे वह असर पैदा नहीं कर पाती है.
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