मध्यमवर्ग की सबसे प्यारी बात यह है कि उसे अपनी ज़िन्दगी को परदे पर देखना बड़ा अच्छा लगता है. शायद एक सुकून सा मिलता है इसमें कि कोई तो है जिसने हमारे दर्द को समझा. इसलिए वह इस तरह की फिल्मों से कनेक्ट होता है, उन्हें सराहता है. अनुराग कश्यप (Anurag Kashyap) की फ़िल्म 'चोक्ड: पैसा बोलता है' (Choked: Paisa Bolta Hai) दर्शकों की इस नब्ज़ को हौले से थामने में पूरी तरह सफ़ल हुई है. नोटबंदी (Demonetisation) पर आधारित Netflix पर रिलीज़ यह फ़िल्म मध्यमवर्गीय परिवार सरिता (सैयमी खेर) और सुशांत(रोशन मैथ्यू) की कहानी है. दोनों के सशक्त अभिनय ने इस वर्ग से जुड़ी रोज़मर्रा की किचकिच, आर्थिक संघर्ष और अन्य परेशानियों को दर्पण की तरह सामने रख दिया है. अच्छे और बुरे समय में पड़ोसियों, दोस्तों के कटाक्ष को भी यह बड़ी सरलता से स्पर्श करती चलती है. पति घर में बैठा है और पत्नी कमाए, यह बात आज भी हम भारतीयों के गले नहीं उतरती, इस मानसिकता को भी संज़ीदा तरीक़े से दिखाया गया है.
जैसा कि हम जानते हैं कि फ़िल्म का कथानक नोटबंदी पर आधारित है. इसे किचन-सिंक और मनी स्टोरी भी कहा जा सकता है. मोदी जी की एक उद्घोषणा के बाद जहां आम आदमी ख़ुश था तो ब्लैकमनी वालों की हालत ख़स्ता हो गई थी. सुशांत, मोदी जी को उस इन्सान के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं जो अकेले ही काला धन वापिस ले आयेंगे. वहीं सरिता, इन सब बातों पर तालियां मारने की बजाय बैंक की लंबी कतारों और बिगड़ते ग्राहकों को लेकर चिंताग्रस्त है. उसे घर का वित्तीय संकट देखना है और बाहर के भ्रष्ट लोगों से भी निपटना है.
इस जोड़े का भाग्य तब बदलता है जब एक नेता जी का पीए अपना पैसा ड्रेनेज पाइप में डाल देता है. उसी बिल्डिंग में नीचे फ्लैट में...
मध्यमवर्ग की सबसे प्यारी बात यह है कि उसे अपनी ज़िन्दगी को परदे पर देखना बड़ा अच्छा लगता है. शायद एक सुकून सा मिलता है इसमें कि कोई तो है जिसने हमारे दर्द को समझा. इसलिए वह इस तरह की फिल्मों से कनेक्ट होता है, उन्हें सराहता है. अनुराग कश्यप (Anurag Kashyap) की फ़िल्म 'चोक्ड: पैसा बोलता है' (Choked: Paisa Bolta Hai) दर्शकों की इस नब्ज़ को हौले से थामने में पूरी तरह सफ़ल हुई है. नोटबंदी (Demonetisation) पर आधारित Netflix पर रिलीज़ यह फ़िल्म मध्यमवर्गीय परिवार सरिता (सैयमी खेर) और सुशांत(रोशन मैथ्यू) की कहानी है. दोनों के सशक्त अभिनय ने इस वर्ग से जुड़ी रोज़मर्रा की किचकिच, आर्थिक संघर्ष और अन्य परेशानियों को दर्पण की तरह सामने रख दिया है. अच्छे और बुरे समय में पड़ोसियों, दोस्तों के कटाक्ष को भी यह बड़ी सरलता से स्पर्श करती चलती है. पति घर में बैठा है और पत्नी कमाए, यह बात आज भी हम भारतीयों के गले नहीं उतरती, इस मानसिकता को भी संज़ीदा तरीक़े से दिखाया गया है.
जैसा कि हम जानते हैं कि फ़िल्म का कथानक नोटबंदी पर आधारित है. इसे किचन-सिंक और मनी स्टोरी भी कहा जा सकता है. मोदी जी की एक उद्घोषणा के बाद जहां आम आदमी ख़ुश था तो ब्लैकमनी वालों की हालत ख़स्ता हो गई थी. सुशांत, मोदी जी को उस इन्सान के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं जो अकेले ही काला धन वापिस ले आयेंगे. वहीं सरिता, इन सब बातों पर तालियां मारने की बजाय बैंक की लंबी कतारों और बिगड़ते ग्राहकों को लेकर चिंताग्रस्त है. उसे घर का वित्तीय संकट देखना है और बाहर के भ्रष्ट लोगों से भी निपटना है.
इस जोड़े का भाग्य तब बदलता है जब एक नेता जी का पीए अपना पैसा ड्रेनेज पाइप में डाल देता है. उसी बिल्डिंग में नीचे फ्लैट में रहने के कारण इनकी चोक्ड सिंक से पैसों की बरसात होने लगती है. यह बात सरिता को ही पता है. इस धन के कारण उसका जीवन पटरी पर आने लगता है. इसी के साथ कहानी आगे बढ़ती है.
उस दौरान शादियों में कैसी मुश्किल हुई थी, इस पक्ष को भी सतही तौर पर स्पर्श किया गया है. चूंकि नायिका बैंक में नौकरी करती है इसलिए बैंक वालों का जीवन कैसा हराम हो जाता है, इस तथ्य को परदे पर अच्छे से उतारा गया है. एक डायलाग याद भी रह जाता है कि 'बैंक में पैसे मिलते हैं, sympathy नहीं मिलती'.
इस गंभीर फ़िल्म के कुछेक दृश्य मुस्कान भी ले आते हैं. नोटों की गिनती का दृश्य जिसमें कैशियर का किरदार निभाती सरिता को तीन बार नोट गिनने के लिए कस्टमर जब टोकता है तो वह पूछती है, 'आप तो नहीं गिनेंगे न?' नए नोटों के साथ सेल्फी लेते हुए लोग, माइक्रोचिप जैसी छोटी-छोटी बातें भी ख़ूबसूरती से पकड़ी हैं फ़िल्मकार ने.
प्रशंसनीय बात यह है कि फिल्म का गीत-संगीत पक्ष कमज़ोर होते हुए भी ये बात लेशमात्र नहीं अखरती. यूं तो पूरी तरह से कोई गीत है ही नहीं इसमें. बस कुछेक अंश भर हैं. फ़िल्म समाप्ति के बाद शायद ही आपको कुछ गुनगुनाने लायक याद रह जाए. लेकिन फिर भी इन फ़िलर्स की ख़ासियत ये है कि ये कहानी में व्यवधान पैदा नहीं करते बल्कि उसे गति ही देते हैं. एकाध दृश्यों में रोचक भी बनाते हैं.
बहुत ही मुलायम तरीके से, बिना रोए धोए एक साफ़-सुथरी, बेहतरीन फ़िल्म कैसे बनती है. ये अनुराग कश्यप ने करके दिखा दिया है. उन्होंने यह भी बताया कि सेक्स और हिंसा के तडके के बिना भी दर्शक एक अच्छी फिल्म को हाथोंहाथ लेते हैं. हां, यदि आप मोदी समर्थक/ विरोधी हैं और नोटबंदी की सफ़लता/विफ़लता जानने में ही रुचि रखते हैं तो ज़रा दूर ही रहिये. इस मामले में आपको निराशा ही मिलेगी. Choked आपको ऐसे किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचाती और यही बात फ़िल्म को देखने लायक भी बनाती है. फिल्म के सभी कलाकारों ने अपनी भूमिका को दमदार तरीक़े निभाया है.
हाल ही में बासु चटर्जी का निधन हुआ है. इस फिल्म से यह उम्मीद भी बनी रहती है कि बासु दा जैसी फ़िल्में बनाने वाले फ़िल्मकार अभी भी हैं.
ये भी पढ़ें -
Choked Movie Review: नोटबंदी के बीच देखिए किसकी लॉटरी लगी, किसका घर लुटा
Chintu Ka Birthday Review: बम-गोलियों के साए में मना बर्थडे दिखाता है एक बाप की मजबूरी
Choked release review: विपक्ष के गले में फंसी कहानी अनुराग कश्यप ही पर्दे पर ला सकते थे
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.