उम्मीदें कई बार नाउम्मीद कर जाती हैं. ज़िंदगी में भी और फ़िल्मों में भी. ख़ास कर इन दिनों जो भी नयी फ़िल्में देख रही निराशा ही हाथ लग रही. फिर भी मैं एकाध नामों को ले कर इतनी श्योर होती हूं कि ट्रेलर देखे बग़ैर उनकी फ़िल्में देखने बैठ जाती हूं. अनुराग कश्यप (Anurag Kashyap) वैसे ही नामों में से एक नाम हैं मेरे लिए. मुझे पसंद आती हैं उनकी फ़िल्में. वो जो एक रॉ-नेस, बाईनरी टच होता है उनके डायरेक्शन में मैं हमेशा उससे जुड़ती चली जाती हूं. वो जो बना रहें होते हैं उसमें कुछ अलग सा होगा ये मेरे मन को यक़ीन रहता है. इसलिए जब कल ‘चॉक्ड-पैसा बोलता है’ (Choked: Paisa Bolta Hai) नेटफ़्लिक्स (Netflix) पर रिलीज़ हुई तो सब छोड़ कर देखने बैठ गयी. सिर्फ़ प्रिमाईस पढ़ा था कि नोटबंदी (Demonetisation) पर ये फ़िल्म है और इसका जॉनर थ्रिलर है. थ्रिलर इग्नोर हो गया और मेरी नज़रें नोटबंदी पर जा कर ठहर गयी. वजह भी थी ठहरने की मैंने देखा था 2016 का वो मंजर अपनी आंखों से जब अचानक ही देश ने प्रधानमंत्री (PM Modi) ने काले धन (Black Money) की समाप्ति और देश से भ्रष्टाचार ख़त्म हो इसके लिए पांच सौ और हज़ार रूपेय के नोटों को बंद कर दिया. वो आठ नवम्बर की रात थी और मोदी जी के मुंह से निकला पहला उच्चारित शब्द ‘मित्रों’ था. आज भी जब मित्रों किसी को बोलते सुनती हूं तो वही रात याद आती है.
आठ नवम्बर की वो रात देश के लिए उम्मीदों से भरी रात थी. देश की अवाम जिन्होंने मोदी जी को चुना था उन्हें बेहद उम्मीद थी कि सच में काला धन वापिस आ जाएगा अब. देश से भ्रष्टाचार ख़त्म हो जाएगा. कश्मीर से आतंकवाद मिट जाएगा. और होता भी भला...
उम्मीदें कई बार नाउम्मीद कर जाती हैं. ज़िंदगी में भी और फ़िल्मों में भी. ख़ास कर इन दिनों जो भी नयी फ़िल्में देख रही निराशा ही हाथ लग रही. फिर भी मैं एकाध नामों को ले कर इतनी श्योर होती हूं कि ट्रेलर देखे बग़ैर उनकी फ़िल्में देखने बैठ जाती हूं. अनुराग कश्यप (Anurag Kashyap) वैसे ही नामों में से एक नाम हैं मेरे लिए. मुझे पसंद आती हैं उनकी फ़िल्में. वो जो एक रॉ-नेस, बाईनरी टच होता है उनके डायरेक्शन में मैं हमेशा उससे जुड़ती चली जाती हूं. वो जो बना रहें होते हैं उसमें कुछ अलग सा होगा ये मेरे मन को यक़ीन रहता है. इसलिए जब कल ‘चॉक्ड-पैसा बोलता है’ (Choked: Paisa Bolta Hai) नेटफ़्लिक्स (Netflix) पर रिलीज़ हुई तो सब छोड़ कर देखने बैठ गयी. सिर्फ़ प्रिमाईस पढ़ा था कि नोटबंदी (Demonetisation) पर ये फ़िल्म है और इसका जॉनर थ्रिलर है. थ्रिलर इग्नोर हो गया और मेरी नज़रें नोटबंदी पर जा कर ठहर गयी. वजह भी थी ठहरने की मैंने देखा था 2016 का वो मंजर अपनी आंखों से जब अचानक ही देश ने प्रधानमंत्री (PM Modi) ने काले धन (Black Money) की समाप्ति और देश से भ्रष्टाचार ख़त्म हो इसके लिए पांच सौ और हज़ार रूपेय के नोटों को बंद कर दिया. वो आठ नवम्बर की रात थी और मोदी जी के मुंह से निकला पहला उच्चारित शब्द ‘मित्रों’ था. आज भी जब मित्रों किसी को बोलते सुनती हूं तो वही रात याद आती है.
आठ नवम्बर की वो रात देश के लिए उम्मीदों से भरी रात थी. देश की अवाम जिन्होंने मोदी जी को चुना था उन्हें बेहद उम्मीद थी कि सच में काला धन वापिस आ जाएगा अब. देश से भ्रष्टाचार ख़त्म हो जाएगा. कश्मीर से आतंकवाद मिट जाएगा. और होता भी भला क्यों नहीं मोदी जी ने इतने भरोसे से ये सब बातें जो कहीं थीं. उस रात आंखों में अच्छे दिन के सपने लिए देश सोया था.
फिर सुबह हुआ, लोग जागे और सपना टूटा. अब लोग ATM की क़तारों में लगने लगें. अपने ही मेहनत की कमाई को बैंक से निकालने के लिए चार-चार दिन लाइन में लगने लगें. किसी दिन बैंक से दो हज़ार मिलता तो किसी दिन चार हज़ार. मैंने देखा लोगों को धूप में गिर कर बेहोश होते हुए, शादी वाले घरों में टेंशन को बढ़ते हुए, माथे पर बल पड़ते हुए तो न्यूज़ चैनल पर लोगों को रोते हुए. लेकिन जो गौर करने की बात थी कि इन तमाम परेशानियों को झेलते हुए भी लोग मोदी जी के साथ खड़े दिखें. उनके नोटबंदी के फ़ैसले के समर्थन में बोलते दिखें उनको डिफ़ेंड करते हुए अच्छे दिन के ख़्वाब बुनते उन मीलों लम्बी पंक्तियों में मन में उम्मीद जगाए खड़े रहें.
उसके बाद क्या हुआ ये मुझे लिखने की दरकार नहीं है.
हां, तो जैसे ही मैंने नोटबंदी लिखा देखा चॉक्ड-पैसा बोलता है के स्टोरीलाइन में तो अचानक ही इस फ़िल्म से जुड़ने जैसा लगा. वैसे भी अपना भोगा हुआ अगर पर्दे पर देखने को मिले तो सुखद लगता है उसे देखना. और फिर नोटबंदी पर तो ये पहली फ़िल्म है ऊपर से अनुराग कश्यप की. तो जैसे मोदी जी के दिखाए अच्छे दिन वाले वादे पर पब्लिक यक़ीन करके नोटबंदी में लाइन लगने लगी वैसे ही एक अच्छी फ़िल्म की उम्मीद में मैंने चाक्ड देखना शुरू किया.
फ़िल्म थ्रिलर कह कर परोसी गयी थी तो मन क्यूरियोसिटी थी कि कहानी कैसे क्या शेप लेगी. फ़िल्म लगभग दो घंटे की है तो लगा कि अब सस्पेंश बिल्ड होगा अब सस्पेंश बढ़ेगा लेकिन फ़िल्म की कहानी तो कुछ और ही निकली. फ़िल्म के पहले एक घंटे में तो अनुराग सिर्फ़ एक पति-पत्नी, उसके टूटे सपने, टूटती शादी, पैसे की कमी, रोज़ के झगड़े, उसमें पीसता उनका बेटा और एक सिंगल मां जिसकी बेटी की शादी होनी है यही दिखाते रहें.
फिर बाद के 54 मिनट में अचानक नोटबंदी का होना, नोटबंदी से पहले किचन के नाली के रास्ते पत्नी को पैसे मिलना, उन पैसों से उनकी ज़िंदगी में बदलाव का आना, नोटबंदी के होने से पब्लिक का त्रस्त होना, आयकर विभाग का छापा पड़ना सब कुछ दिखाने की कोशिश में फ़िल्म खिचड़ी बन गयी. थ्रिलर का क्या हुआ पता ही नहीं चला. फ़िल्म एक पति-पत्नी के टूटते-बिखरते रिश्ते को समेटने में बिखर गयी.
अनुराग सर से बहुत उम्मीद थी. ख़ास कर तब जब उन्होंने भी हम सब की तरह नोटबंदी को देखा है और समझा है. मैं ये नहीं कह रही कि ये फ़िल्म ख़राब है. ये फ़िल्म अच्छी है. इसमें कई प्यारे-प्यारे पल हैं पति-पत्नी के बीच तो कई झकझोड़ने वाले दृश्य भी हैं जहां आप देख पाएंगे कि कैसे मां-बाप की लड़ाई में एक बच्चा पीसता है. कैसे घर मिडिल क्लास घरों में नौकरीपेशा औरतों की ज़िंदगी नर्क होती है. वो ऑफ़िस से खट-मर कर आयी है और घर में फिर से उसे काम करके मरना पड़ता है. पति जब नौकरी नहीं कर रहा हो तो वो अपनी नाकामयाबी का फ़्रस्ट्रेशन भी पत्नी पर ही निकालता है और पत्नी सब कुछ सह कर चुप रह जाती है. घर से बाहर निकलते हुए सिंदूर और बिंदी लगाती है. फ़िल्म के एक दृश्य में प्रोटैग्निस्ट कहती है,
“बाद में लड़ते हैं पहले मेरी सिंदूर की डिब्बी बाथरूम में पड़ी है ला दे ज़रा.”
मिडिल क्लास की स्त्रियों को अपना दुःख दिखाने का हक़ नहीं होता और सुख उनके हिस्से कम ही आते हैं. अनुराग कश्यप इस दर्द को बखूबी चॉक्ड में दिखायें हैं लेकिन फ़िल्म तो नोटबंदी और थ्रिलर कह कर परोसी गयी है न ऑडियंश के सामने जबकि फ़िल्म तो रिलेशनशीप ओरिएँटेड बन गयी है. नोटबंदी के काले धन को दिखाने के लिए अनुराग कश्यप एक साइकोलॉजिकल ट्रिक उन्होंने यहां अपनाया है. किचन की गंदी नाली से बहता काला पानी और उसमें से मिलते नोट के पैकेट देश में फैले काले धन को दिखाता है.
हीरोइन को जो पैसे मिल रहें वो भारत के लोगों की उस मानसिकता तो चिन्हित कर रहा कि यहाँ लोग भाग्य के भरोसे जीते हैं. हर दिन टूटती उम्मीद को इन्हीं चमत्कारों का सहारा है जीने के लिए और हीरोईन की पड़ोसन यानि सिंगल माँ जिसकी बेटी की शादी होने वाली है और नाटबंदी हो गयी है और अब वो बेबस हो कर पागलों के जैसे रो रही है, दुःख से बिलबिला रही है वो है देश की मजबूर आम जनता. जो सरकार के हर सही-ग़लत फ़ैसले पर सबसे पहले पीसती है और सरकार सबसे आख़िरी में उसकी सुध लेती है. चाहे वो फ़ैसला नोटबंदी का हो या अभी दो महीने पहले हुए लॉकडाउन का. सबसे ज़्यादा परेशानी इन्हीं लोगों को हुई है.
ख़ैर, चॉक्ड-पैसा बोलता है देख कर मुझे अब यही लग रहा कि अनुराग कश्यप अपनी ही कहानी में उलझ कर रह गये. वो कहना कुछ और चाहते थे और कह कुछ और गए. थ्रिलर फ़िल्म के नाम पर टीपिकल बॉलीवुड वाली हैप्पी एंडिंग फ़िल्म बना बैठें. मोदी ही से जो उनका छत्तीस का आंकड़ा है उस चक्कर में नोटबंदी एक अच्छे-ख़ासे प्लॉट के बीच में डाल दिए. बस.
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