भारत देश के आजाद होने का अमृतमहोत्सव बीत चुका है. जी हां सही पढ़ रहे हैं आप. 75 साल मालूम है ना. किसी भी देश, आदमी, समाज की एक भरी पूरी उम्र होती है. और यह भरी-पूरी उम्र हमारा देश भी जी चुका है. लेकिन फिर भी ऐसा क्या है जो इस देश से गरीबी, भूख, जातिगत भेदभाव, दलितों के छोटे-छोटे सपने भी यह देश पूरे नहीं कर पा रहा. कहीं तो कमी है. हमारी अपनी ही कमी तो नहीं कहीं यह? इस फिल्म 'कोट' को देखने के बाद विचार कीजिएगा. फिल्म में जब माधो कहता है तू समझ रहा है, ई समझ रहा है, भगवान भी समझ रहा है, पूरी दुनिया समझ रही है फिर भी साला भेदभाव खत्म ही नहीं हो रहा है. तो विचार इस बात का भी कीजिएगा कि आखरी समझ कौन रहा है?
बिहार के किसी गांव में एक नीची जाति का लड़का जिसका बाप सूअर पालता है. बेटी के ब्याह में दहेज के रूप में सूअर देना चाहता है उन्हें उसका बेटा सिर्फ इसलिए बेच देता है कि उसे 'कोट' पहनना है. मृतक भोज में खाना खाने को अपने लिए पार्टी और भोज समझने वाली यह जाति और उस जाति का माधो इतना गरीब है कि उस मृतक भोज में किसी को 'कोट' पहने देखा तो उसके भी दिल के किसी कोने से दबी सी पड़ी कोट पहनने की इच्छा जाग उठी. अब क्या करेगा माधो? चोरी करेगा या कोई मेहनत की राह पर चलकर पहनेगा 'कोट' क्या माधो कोट कभी पहन भी पाएगा या नहीं? ऐसे सवाल आपके दिमाग में अब उपजने शुरु होंगे लेकिन इनके जवाब मिलेंगे 4 अगस्त को सिनेमाघरों में.
बाबा साहेब आंबेडकर भी दलित थे लेकिन उन्होंने अपने संघर्षों और मेहनत से अपने को दुनिया जहान में 'कोट' करने यानी उद्धरित करने लायक बनाया. वही काम इस फिल्म का नायक करता नजर आता है. इस देश में आज भी माधो जैसी सोच के, उसकी जैसी मेहनत के, उसके जैसे सपने देखने वाले और उन सपनों को पूरा करने वाले सैंकड़ों लोग हैं. बस जरूरत है तो इन हुनर को तलाशने, तराशने...
भारत देश के आजाद होने का अमृतमहोत्सव बीत चुका है. जी हां सही पढ़ रहे हैं आप. 75 साल मालूम है ना. किसी भी देश, आदमी, समाज की एक भरी पूरी उम्र होती है. और यह भरी-पूरी उम्र हमारा देश भी जी चुका है. लेकिन फिर भी ऐसा क्या है जो इस देश से गरीबी, भूख, जातिगत भेदभाव, दलितों के छोटे-छोटे सपने भी यह देश पूरे नहीं कर पा रहा. कहीं तो कमी है. हमारी अपनी ही कमी तो नहीं कहीं यह? इस फिल्म 'कोट' को देखने के बाद विचार कीजिएगा. फिल्म में जब माधो कहता है तू समझ रहा है, ई समझ रहा है, भगवान भी समझ रहा है, पूरी दुनिया समझ रही है फिर भी साला भेदभाव खत्म ही नहीं हो रहा है. तो विचार इस बात का भी कीजिएगा कि आखरी समझ कौन रहा है?
बिहार के किसी गांव में एक नीची जाति का लड़का जिसका बाप सूअर पालता है. बेटी के ब्याह में दहेज के रूप में सूअर देना चाहता है उन्हें उसका बेटा सिर्फ इसलिए बेच देता है कि उसे 'कोट' पहनना है. मृतक भोज में खाना खाने को अपने लिए पार्टी और भोज समझने वाली यह जाति और उस जाति का माधो इतना गरीब है कि उस मृतक भोज में किसी को 'कोट' पहने देखा तो उसके भी दिल के किसी कोने से दबी सी पड़ी कोट पहनने की इच्छा जाग उठी. अब क्या करेगा माधो? चोरी करेगा या कोई मेहनत की राह पर चलकर पहनेगा 'कोट' क्या माधो कोट कभी पहन भी पाएगा या नहीं? ऐसे सवाल आपके दिमाग में अब उपजने शुरु होंगे लेकिन इनके जवाब मिलेंगे 4 अगस्त को सिनेमाघरों में.
बाबा साहेब आंबेडकर भी दलित थे लेकिन उन्होंने अपने संघर्षों और मेहनत से अपने को दुनिया जहान में 'कोट' करने यानी उद्धरित करने लायक बनाया. वही काम इस फिल्म का नायक करता नजर आता है. इस देश में आज भी माधो जैसी सोच के, उसकी जैसी मेहनत के, उसके जैसे सपने देखने वाले और उन सपनों को पूरा करने वाले सैंकड़ों लोग हैं. बस जरूरत है तो इन हुनर को तलाशने, तराशने की. जरूरत है तो इन दलितों, पिछड़ों, महिलाओं, अल्प संख्यक समुदायों के संघर्ष को 'कोट' यानी उद्धरित करने की.
करीब दो घंटे लंबी यह फिल्म शुरु में थोड़ा अटपटी और बेरुखी सी लगती है लेकिन फर्स्ट हाफ खत्म होते-होते आप इतना इससे जुड़ जाते हैं कि आपको भान भी नहीं रहेगा कि कब इंटरवल खत्म हो गया. फिल्म के निर्माता कुमार अभिषेक, पिन्नु सिंह, अर्पित गर्ग, शिव आर्यन ने एक ऐसी फिल्म पर दांव खेला है जिसकी कहानी भले खूब सारे सिनेमा हॉल ना भर पाए लेकिन यह आपको भीतर से इतना अवश्य भर देगी कि आप भी कुछ ऐसा ही खुद को 'कोट' किए जाने वाला काम करने की सोच को दृढ़ता से पाल लें.
निर्देशक अक्षय दित्ती के निर्देशन की यह पहली फीचर फिल्म है जिसे देखते हुए महसूस होता है कि निर्देशक भले पूरे अच्छे से ना मंझे हों लेकिन वो खुद को भी भविष्य में 'कोट' करने वाले काम जरुर करेंगे. उनके निर्देशन से आप आश्वस्त हो सकते हैं पूरे लिहाज़ा सिनेमा की कला में वे अच्छे नम्बर से पास होते हैं. निर्माता, निर्देशक ने ही मिलकर इसकी कहानी रची, बुनी है. इस तरह की फ़िल्में कहीं फिल्म फेस्टिवल में भी दिखाई जानी चाहिए. यूं ओटीटी ऐसी अच्छी फिल्में लेकर आता रहा है लिहाजा उन्हें चाहिए था कि वे सिनेमाघर का दांव खेलने की बजाए ओटीटी का रुख करते.
हालांकि गदर 2 से पहले कोई ऐसी बड़ी फिल्म भी नहीं आनी है ऐसे में एक हफ्ते से ऊपर का समय ऐसी छोटी फिल्मों के लिए सहायक और कारगर रहता है. खैर वरदान सिंह, हरिजू रॉय, जॉय अंजन का म्यूजिक, अजीम शिराजी, बुद्धा, रवि बसंत के लिखे गाने फिल्म को ऐसा टच देते हैं जिससे यह बराबर देखते रहने को भी प्रेरित करती है. लगभग सभी गाने बेहद प्यारे लगते हैं इतने की आप भी इन्हें गुनगुनाएं मन में. वहीं निर्देशक ने स्वयं ही इसके संवाद और स्क्रीन प्ले को लिखा है. ऐसी फिल्मों की कहानियों में ऐसे ही संवाद जंचते हैं. लिहाजा निर्देशक संवाद लेखन में आपको नम आंख करने का भरपूर अवसर देते हैं.
योगेश कोली की सिनेमैटोग्राफी बढ़िया रही तो वहीं संजय सांकल की एडीटिंग भी आपको दुरस्त लगती है. कॉस्ट्यूम, बैकग्राउंड स्कोर, लोकेशन, कैमरा, संजय मिश्रा और विवान शाह तथा सोनल झा खास करके अपने अभिनय से आपको कुछ सिखाकर ही जाते हैं. संजय मिश्रा तो इस तरह के किरदारों के लिए विशेष रूप से 'कोट' किए जाते रहे हैं. बाकी अन्य सहायक कलाकार हर्षिता पांडे, पूजा पांडे, गगन गुप्ता आदि मिलकर फिल्म को सहारा प्रदान करते हैं. पूजा पांडे अपनी सपाट अभिनय कला से खास अच्छी नहीं लगती लेकिन उन्हें जितना मिला उससे वे पूरी तरह न्याय कर पाती तो उनके पास भी अच्छा मौका था खुद को 'कोट' करवाने का.
कुलमिलाकर सिनेमाघरों में गदर अपना गदर मचाए या ना मचाए उससे पहले शांति से जाकर ऐसी फ़िल्में देख आने का अच्छा अवसर दर्शकों के पास है जिससे वे कुछ सीख सकें क्योंकि सिनेमाघरों के ऐसे शांत माहौल में ऐसी फ़िल्में शांति से आकर चली जाती हैं और फिर आप दोष देते हैं बॉलीवुड अच्छी फिल्में नहीं बना रहा.
अपनी रेटिंग- 3.5 स्टार
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