आज कल फिल्मों तथा वेब सीरीज़ में समलैंगिकता को बहुतायत से दिखाया जा रहा है जिसका कोई ख़ास कारण मुझे समझ नहीं आता लेकिन एक सुन्दर पक्ष यह भी है कि आम जनमानस के बीच इसका सामान्यीकरण होता जा रहा है. हालाँकि मुझे हमेशा लगता था कि यह विषय सिर्फ़ शारीरिक मांग तक सीमित नहीं हो सकता. जब इस विषय की अंदरूनी तह तक जाओ तब लगता है कि समलैंगिकता सिर्फ शारीरिक इच्छाओं की मांग तो नहीं है.
'कोबाल्ट ब्लू' इस विषय पर आधारित बहुत सुंदर मूवी है जो सचिन कुंडलकर द्वारा लिखित उपन्यास 'कोबाल्ट ब्लू' पर आधारित है. इस मूवी का निर्देशन भी ख़ुद सचिन जी ने ही किया है शायद यही वजह थी कि पूरी मूवी एक कविता या कहानी की तरह आंखों के सामने गुजरती रही. निर्देशक की प्रगल्भता का असर पूरी कहानी और इसके फिल्मीकरण पर दिखता है. यह कहानी केरल में रह रहे मराठी परिवार पर केंद्रित है. जिसमें भाई तथा बहन दोनों को उनके घर में रह रहे पेइंग गेस्ट से प्रेम हो जाता है. हाँ उसे प्रेम ही कहेंगे अगर वो सिर्फ़ वासना या शारीरिक इच्छाओं की पूर्ति होती तो प्रेमी के चले जाने के बाद तनय अपने प्रोफ़ेसर से भी पूरी कर सकता था. अनुजा इस बात को यूं ही नहीं कहती कि किसी रिश्ते की ख़ूबसूरती को इस बात से फ़र्क़ नहीं पड़ता कि हम उस रिश्ते में कितने समय तक रहते हैं.
उन दोनों के साथ बंधे पेइंग गेस्ट के मन को कहीं खोला नहीं गया है. उसकी रहस्यमयता को अलग-अलग दृश्यों से समझा जा सकता है. एक सीन में जब तनय उससे पूछता है कल मैंने तुम्हें किस किया तो कैसा लगा? वो बोलता है मैं एक लड़की को इमैजिन कर रहा था. एक दूसरे दृश्य में वो तनय को उपन्यास लिखने के लिए प्रेरित करता नज़र आया.
बात...
आज कल फिल्मों तथा वेब सीरीज़ में समलैंगिकता को बहुतायत से दिखाया जा रहा है जिसका कोई ख़ास कारण मुझे समझ नहीं आता लेकिन एक सुन्दर पक्ष यह भी है कि आम जनमानस के बीच इसका सामान्यीकरण होता जा रहा है. हालाँकि मुझे हमेशा लगता था कि यह विषय सिर्फ़ शारीरिक मांग तक सीमित नहीं हो सकता. जब इस विषय की अंदरूनी तह तक जाओ तब लगता है कि समलैंगिकता सिर्फ शारीरिक इच्छाओं की मांग तो नहीं है.
'कोबाल्ट ब्लू' इस विषय पर आधारित बहुत सुंदर मूवी है जो सचिन कुंडलकर द्वारा लिखित उपन्यास 'कोबाल्ट ब्लू' पर आधारित है. इस मूवी का निर्देशन भी ख़ुद सचिन जी ने ही किया है शायद यही वजह थी कि पूरी मूवी एक कविता या कहानी की तरह आंखों के सामने गुजरती रही. निर्देशक की प्रगल्भता का असर पूरी कहानी और इसके फिल्मीकरण पर दिखता है. यह कहानी केरल में रह रहे मराठी परिवार पर केंद्रित है. जिसमें भाई तथा बहन दोनों को उनके घर में रह रहे पेइंग गेस्ट से प्रेम हो जाता है. हाँ उसे प्रेम ही कहेंगे अगर वो सिर्फ़ वासना या शारीरिक इच्छाओं की पूर्ति होती तो प्रेमी के चले जाने के बाद तनय अपने प्रोफ़ेसर से भी पूरी कर सकता था. अनुजा इस बात को यूं ही नहीं कहती कि किसी रिश्ते की ख़ूबसूरती को इस बात से फ़र्क़ नहीं पड़ता कि हम उस रिश्ते में कितने समय तक रहते हैं.
उन दोनों के साथ बंधे पेइंग गेस्ट के मन को कहीं खोला नहीं गया है. उसकी रहस्यमयता को अलग-अलग दृश्यों से समझा जा सकता है. एक सीन में जब तनय उससे पूछता है कल मैंने तुम्हें किस किया तो कैसा लगा? वो बोलता है मैं एक लड़की को इमैजिन कर रहा था. एक दूसरे दृश्य में वो तनय को उपन्यास लिखने के लिए प्रेरित करता नज़र आया.
बात सिर्फ़ कहानी की नहीं, पूरी मूवी की है. जिसे देखते समय आप हर दृश्य पर ठहरना चाहते हैं. कभी-कभी लगता है कि हम किसी आर्ट गैलरी में विचरण कर रहे हैं. जाने कितने पोर्ट्रेट हैं जहां खड़े होकर अपने साथी से गुफ़्तगू करने का मन करने लगता है लेकिन आप उन सारी भावनाओं को ज़ब्त करते जाते हैं. बैक ग्राउंड में चलती कविताएं और गाने मूवी में घटते दृश्य और दर्शकों को पूरी तरह बांध देते हैं.
कुछ दृश्यों को देख थिएटर में बैठने सा अहसास हुआ और यही निर्देशन का सबसे मजबूत पक्ष है. विरह की अनुभूति रचनात्मकता को जन्म देती है. तनय प्रेम में कविता लिखता है लेकिन विरह उससे वो लिखवाता है जिसका उसने सपना देखा था. आख़िरी दृश्य में पेइंग गेस्ट का उस किताब को छू कर महसूस करना उसके किरदार को समझाने की कोशिश करता है. प्रतीक बब्बर और नीलय के बीच की केमिस्ट्री बहुत ख़ूबसूरत है.
एक स्वप्न दृश्य के बाद तनय की बेचैनी को नीलय ने इतनी सजीवता के साथ दिखाया है कि दर्शक भी उतना ही बेचैन हो जाता है. अंजलि शिवरमन ने अनुजा के शरीर में मौजूद परिपाटी से भिन्न तथा स्वतंत्र लड़की की बेचैनी को चेहरे पर बहुत मज़बूती के साथ उकेरा है. फिल्म की शुरुआत में ही उसके दादा जी (अप्पा) की मृत्यु का दृश्य है. अप्पा ने अनुजा की दादी और मां को बहुत कष्ट दिए हैं जिन्हें सिर्फ़ एक वाक्य में समेटा गया है.
लेकिन अप्पा की मृत्यु के दिन ही उसकी स्वस्थ दादी की भी मृत्यु हो जाना उसे अचंभित करती है. वो अपने भाई से पूछती है जब अज्जी को अप्पा से शादी ही नहीं करनी थी तब वो ठीक उसी दिन कैसे मर गयीं? तब तनय कहता है, 'प्यार एक आदत है. आदत ख़त्म इंसान ख़त्म.' इस एक पंक्ति ने समझा दिया था कि इस फ़िल्म से ऐसा बहुत कुछ मिलने वाला है जो इसे विशिष्ट की श्रेणी में खड़ा कर देगा.
प्रेम को हर किसी ने अलग-अलग दृष्टिकोण से दिखाया. समन्वय, समायोजन, संभोग, सौंदर्य आदि होते हुए भी प्रेम को परिभाषित नहीं किया जा सकता है. कभी किसी के साथ बीते हुए पल पर बहुत प्यार आता है तो उसी पल को याद करके कभी दूसरे भाव भी उपजते हैं. एक दोस्त ने अपने प्रेम सम्बन्ध के दौरान कहा था, 'उसके प्यार ने मुझे संवारा है. मैं पहले से भी अधिक ख़ूबसूरत हो गया हूं. मेरा आज और कल सब उसके लिए है.
उस समय के गुज़र जाने के बाद उसी सम्बंध को उसने जीवन की सबसे बड़ी भूल भी कहा. अब वो अपनी सारी नाकामियों का ज़िम्मेदार उस शख़्स को ठहराता है जिसने उसे कभी बहुत सुंदर बनाया था. मैंने पूछा एक बार मिलना चाहोगे उससे? तो कहता है, 'नहीं! बहुत मुश्किल से ख़ुद को मज़बूत किया है.उसे देख कर फिर से दरकने लगूंगा.
प्रेम हर किसी के जीवन में अलग-अलग प्रतिक्रिया लेकर आता है. किसी अनजान चेहरे को देख अपने होठों पर आयी मुस्कान का कारण पूछा है? आपके जवाब में कहीं न कहीं प्रेम का एक अंश ज़रूर मिलेगा. प्रेम हर वक़्त गुलाबी हो ये ज़रूरी तो नहीं! इसके नए रंगों से मिल कर देखिए. ग्रे शेड्स के लिहाफ़ का निचला हिस्सा नीला भी हो सकता है और पीला भी... जो भी हो फ़िलहाल खुद को कोबाल्ट ब्लू में रंगने दीजिए.
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