बतौर फिक्शन कह सकते हैं कि प्राइम वीडियो की नयी वेब सीरीज क्रैश कोर्स इंगेज करती है. लेकिन एजुकेशन सरीखे नोबल कॉज को एक्सप्लॉइट करके ऐसा किया गया है. और यही मूल्यों का ह्रास है. कौन सा कंटेंट बाकी रहा है वेब में? शायद कोई नहीं. रोमांस है. एरोटिस्म है. न्यूडिटी है. एब्यूसिव लैंग्वेज है. ड्रग्स है. प्रेगनेंसी विथ गैरकानूनी एबॉर्शन है. गैंग है. ब्लैकमेल है. धोखा है. बदला है. ब्लड है. सुसाइड है. पैसा है और पैसे से सत्ता है और सभी के केंद्र में नौनिहाल हैं. तो ऐसे में बच्चे पढ़ाई क्या ख़ाक करेंगे वो भी IIT की? और पढ़ाएंगे कौन ? वो जिनके आका स्वयं कुकर्मी हैं! और ये सब फ़साना है लंबे चौड़े डिस्क्लेमर के साथ जिसके अंत में अमेज़न प्राइम वीडियो ने पल्ला झाड़ लिया है - 'अमेजन प्राइम वीडियो इस श्रृंखला में व्यक्त दृष्टिकोण और विचारों का समर्थन नहीं करता है. इस सीरीज का विषय संवेदनशील हो सकता है. सवाल ये है कि मेकर्स ने स्टोरी लाइन कोटा जोकि एक कोचिंग हब है, टीवीएफ की शानदार और तथ्यपरक वेब सीरीज 'कोटा फैक्ट्री' पर क्यों डेवलप की ? जबकि पूरी टीम मय प्रोड्यूसर, राइट, डायरेक्टर सभी गजब के क्रिएटर हैं और सक्षम हैं तमाम फॉर्मूलों को कलात्मक ढंग से डालकर किसी भी कहानी को इस कदर दमदार बनाने के कि दस दस एपिसोडों को व्यूअर्स बिंज वाच कर डाले.
फिक्शन रचा है तो काल्पनिक शहर के साथ अपनी रचना मुकम्मल कर लेते. निःसंदेह हकीकत उस हद तक कि कोटा में हर घर हॉस्टल में तब्दील हुए हैं. कोचिंग इंस्टिट्यूट की राइवलरीज हैं. फैकल्टी ट्रांसफर होती है. एस्पिरेंट्स पोच होते हैं. माहौल भी उन्मुक्त हुआ है, सफल न हो पाने या सफल ना होने के अंदाजे...
बतौर फिक्शन कह सकते हैं कि प्राइम वीडियो की नयी वेब सीरीज क्रैश कोर्स इंगेज करती है. लेकिन एजुकेशन सरीखे नोबल कॉज को एक्सप्लॉइट करके ऐसा किया गया है. और यही मूल्यों का ह्रास है. कौन सा कंटेंट बाकी रहा है वेब में? शायद कोई नहीं. रोमांस है. एरोटिस्म है. न्यूडिटी है. एब्यूसिव लैंग्वेज है. ड्रग्स है. प्रेगनेंसी विथ गैरकानूनी एबॉर्शन है. गैंग है. ब्लैकमेल है. धोखा है. बदला है. ब्लड है. सुसाइड है. पैसा है और पैसे से सत्ता है और सभी के केंद्र में नौनिहाल हैं. तो ऐसे में बच्चे पढ़ाई क्या ख़ाक करेंगे वो भी IIT की? और पढ़ाएंगे कौन ? वो जिनके आका स्वयं कुकर्मी हैं! और ये सब फ़साना है लंबे चौड़े डिस्क्लेमर के साथ जिसके अंत में अमेज़न प्राइम वीडियो ने पल्ला झाड़ लिया है - 'अमेजन प्राइम वीडियो इस श्रृंखला में व्यक्त दृष्टिकोण और विचारों का समर्थन नहीं करता है. इस सीरीज का विषय संवेदनशील हो सकता है. सवाल ये है कि मेकर्स ने स्टोरी लाइन कोटा जोकि एक कोचिंग हब है, टीवीएफ की शानदार और तथ्यपरक वेब सीरीज 'कोटा फैक्ट्री' पर क्यों डेवलप की ? जबकि पूरी टीम मय प्रोड्यूसर, राइट, डायरेक्टर सभी गजब के क्रिएटर हैं और सक्षम हैं तमाम फॉर्मूलों को कलात्मक ढंग से डालकर किसी भी कहानी को इस कदर दमदार बनाने के कि दस दस एपिसोडों को व्यूअर्स बिंज वाच कर डाले.
फिक्शन रचा है तो काल्पनिक शहर के साथ अपनी रचना मुकम्मल कर लेते. निःसंदेह हकीकत उस हद तक कि कोटा में हर घर हॉस्टल में तब्दील हुए हैं. कोचिंग इंस्टिट्यूट की राइवलरीज हैं. फैकल्टी ट्रांसफर होती है. एस्पिरेंट्स पोच होते हैं. माहौल भी उन्मुक्त हुआ है, सफल न हो पाने या सफल ना होने के अंदाजे ने एस्पिरेंट्स को तोड़ा भी है जिसके लिए देखा जाए तो आज का पैरेंटल डिस्कोर्स जिम्मेदार है. और नतीजन आये दिन छात्रों के आत्महत्या करने की सुर्खियां भी बनी हैं.
फिर भी परिस्थितियां बदलती नहीं हैं. हर साल पूरे देश से लाखों स्टूडेंट्स कोटा स्टेशन पर उतरते हैं. जिसमें से करीब करीब 15 फीसदी स्टूडेंट्स आईआईटी के अपने सपने को टूटते हुए और अपने परिवार को उसका दंश झेलते हुए देखते हैं. परंतु रचनात्मकता की आड़ में बगैर प्रमाणीकरण के कोटा शहर के नाम पर परचा फाड़ देना और कुछ भी परोस देना कैसे जायज है ?
सच्ची घटनाओं से प्रेरित क्रियेशन में निर्माता नाम ठिकाना सब कुछ बदल देते हैं. इस बात का ज्वलंत उदाहरण है कुल छह एपिसोड की एक अन्य वेब सीरीज 'रंगबाज 3' 'धीवान' कौन सा शहर है, बताने की जरूरत है क्या ? वास्तव में क्रिएटिव लिबर्टी हो तो ऐसी हो! लिबर्टी भी तर्कसंगत ली है, अतिशयोक्ति नहीं कि क्राइम फिक्शन है तो सारे मसालों का तड़का लगा दें!
'रंगबाज़' के मेकर्स ने बिहार की राजनीति के हर प्रमाणित स्याह पन्ने को खोलने में भी एहतियात बरती और पात्र, स्थल आदि के नाम बदल दिए ,और "क्रैश कोर्स" टीम ने तो बगैर प्रमाण के ही कोटा शहर में कई अप्रमाणित पात्रों की रचना कर डाली. किया सो किया कोटा शहर का नाम क्यों घसीटा ? एजुकेशन सिस्टम जब धंधा बन जाता है तो शहर बदल जाते हैं. थीम परफेक्ट है लेकिन यहां तो निर्माता ने थीम का दोहन किया है अपने गोरखधंधे के लिए.
और मजे की बात ये है कि धंधा जारी है. चूंकि सीजन 2 भी लायेंगे. यूं तो कोचिंग फैक्टरी देश भर में चालू हो गयी है, बुराइयां भी पनपी है, कोचिंग माफिया का जिक्र भी होता है. परंतु वेब सीरीज़ जो दिखाती है वह निर्माता टीम की विकृत सोच की कल्पनाओं की उड़ान है. जहां 'कोटा फ़ैक्टरी' सरीखी आला दर्जे की सीरीज़ ने शहर से सहानुभूति पैदा की थी, वहीं 'क्रैश कोर्स' ने कोटा शहर को, शहर से जुड़ी चीजों मसलन डोरिया साड़ी, हींग कचौड़ी आदि को ही खलनायक बना दिया है.
सही है बदलाव हुए हैं लेकिन वेब ने बदलावों को बाजारू सिद्ध करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है. क्या ये थ्रेट टू पेरेंट्स है ? भला कौन सा पेरेंट्स वेब सीरीज के बदनाम कोटा शहर में अपने बेटे बेटियों को भेजना पसंद करेगा ? सत्तर के दशक की बात करें तो एक निजी वाकया शेयर करना चाहूंगा. तब सह शिक्षा यानी को एजुकेशन शुरू हो चुकी थी. कोलकाता के नामी गिरामी सेंट जेवियर्स कॉलेज में मैंने पढ़ाई की जहां आर्ट्स और साइंस संकायों में को एड था लेकिन कॉमर्स संकाय में तब के प्रिंसिपल फादर जोरिस के वीटो की वजह से नहीं था.
वे कहते थे, 'Had it been made co educational, there ought to be a maternity home nearby!' हालांकि आज कॉमर्स संकाय भी को एजुकेशनल है, इन फैक्ट फादर जोरिस के जाने भर का ही इंतजार था. आज छात्र अमूमन परिपक्व हैं परंतु अपवाद तो तब भी थे ,आज भी हैं और हमेशा रहेंगे. पहले कोचिंग क्लास अच्छे टीचर्स चलाते थे जो बच्चों को सचमुच मदद करना चाहते थे.
अब कोचिंग क्लास चलाने के लिए बिजनेसमैन हाज़िर हैं, साथ है प्रोफेशनल टीम जो हर काम को एक कॉर्पोरेट तरीके से करती है, यहां तक की पढ़ाई में अव्वल आने वालों की मार्केटिंग भी ढोल ताशे रैली के साथ करने में लग जाती है. पढ़ाई का असहनीय दबाव, कम से कम समय में ज़्यादा से ज़्यादा विषयों का ज्ञान हासिल करो और फिर भी परीक्षा में पास न हो सको या अपने गंतव्य तक न पहुंच सको, तो या तो नशा करने लगो या फिर आत्महत्या कर लो ; इतना सिंपल सा गणित तो नहीं है कोटा का !
लेकिन अपवादों को जनरलाइज़ तो नहीं किया जा सकता. और क्रैश कोर्स ने क्रिएटिव लिबर्टी के नाम पर यही अपराध किया है, कहें तो शायद विकृत कल्पना ही थी उनकी और वश चलता तो 'लिव इन रिलेशन' टाइप एजुकेशन सिस्टम भी दिखा देते वे. अपवादों पर रचनात्मकता का जामा पहनाकर फिक्शन ड्रामा रचें चूंकि उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है. कौन रोक सकता है. परंतु कोटा शहर को तो बख्श देते.
रत्ती भर सच है भी तो जिसे टीवीएफ की 'कोटा फैक्टरी' वेब सीरीज ने बखूबी किया था और शायद ही किसी आईआईटी एस्पिरैंट ने मिस किया होगा इसे. यहां तक कि तमाम पेरेंट्स ने भी देखी होगी और तदनुसार अपने नौनिहालों को सचेत भी किया होगा. क्रिएटिविटी के एंगल से वेब सीरीज ओटीटी कल्चर के मापदंडों पर परफेक्ट है. लाजवाब है. एंगेजिंग है और बिंज वॉच भी है.
लेकिन एक बार फिर चूंकि वैधानिक चेतावनी तो हो नहीं सकती. सो विश तो रख ही सकते हैं. उन तमाम आईआईटी और मेडिकल एस्पिरेंट्स के पेरेंट्स के लिए कि वे इस वेब सीरीज को ना देखें और गलती से देख भी लें तो जस्ट इग्नोर इट बिकॉज़ यदि "सूरज ने इक दिन तय किया, जा नहीं उगता धरती पर ...' नहीं हो सकता तो राजस्थान शहर का कोटा शहर भी इस कदर बदनाम अड्डा नहीं है.
एक्टर्स जो भी हैं तो भई एक्टिंग करना उनका धंधा है सो उन्होंने बखूबी की है! जीतू भैया सरीखे एके सर भी हैं वेब सीरीज में लेकिन एस्पिरेंट्स का कनेक्ट कमतर है. म्यूजिक खासकर बैकग्राउंड म्यूजिक बेहतरीन है, छायांकन भी उत्तम है. कुछ कवितामयी लाइनें लंबे समय तक गुनगुनायी जाएंगी - आसमान की काली छतरी, तारे सारे छेद हैं. कोई टिम टिम, तो कोई टूटे और जाने कितने भेद हैं. टूटी नींद. टूटे सपने. टूटी चारपाई है इक साधु दूजा शैतान लेकिन दोनों भाई हैं!
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.