जाटों ने अगर 'दसवीं' का विरोध किया होता तो यह फिल्म का बड़ा हासिल होता. जिस आधार पर फिल्मों का सपोर्ट या विरोध किया जाता है- जाटों के लिए इसमें बहुत कुछ था. एक तो हरित प्रदेश के रूप में लंबे वक्त से जारी राजनीतिक संघर्ष का मजाक उड़ाया गया और हरित प्रदेश की अवधारण को फालतू का बता दिया गया. यह भी स्थापित कर दिया गया- देख लो हरित प्रदेश बना तो उसका मुख्यमंत्री ऐसे भी हो सकता है. जाटों की पंचायत पर भी तंज है. मगर उन्होंने भी कड़ी निंदा लायक नहीं समझा. यानी फिल्म के असर को लेकर वे समझदार हैं. नई दुनिया में जहां विरोध के भी कारोबारी मायने निकलते हैं- वहां फिल्म की एक और बड़ी उपलब्धि हो सकती थी. 'आंदोलनजीवी' महिला संगठन कम से कम एकाध ट्वीट ही कर देते तो काम बन जाता- ये कैसी रचनात्मकता है कि आपने महिलाओं को अक्षम और अकर्मण्य बताने में कोई कसर बाकी नहीं रखा.
खैर, ऊपर की बातों को मजाक में लें. मेरा फ़िल्मी मजाक कह लीजिए. मैं तो बस यह लिखने की कोशिश कर रहा कि दसवीं असल में कितना प्रभावित करती है. इसके असर का अंदाजा लगाना और कमियां साफ़ साफ कमियां पकड़ लेना मुश्किल नहीं है. दुनिया जहान की बात करने के लिए दसवीं में काफी कुछ निकाला जा सकता था, दुर्भाग्य से कुछ नहीं निकला. नए नवेले निदर्शक तुषार जलोटा की फिल्म में ये दो चीजें ऐसी थीं, कम से कम जिसके बहाने दसवीं पर हंसी खुशी वाले अंदाज में बात होनी चाहिए थी, नहीं हुईं. मने फिल्म अपने मकसद में प्रभावी नहीं है. और इसके लिए निर्माता लेखक का कोर्ट मार्शल करने को फ्री हैं. क्योंकि महाशय ने जहां पानी नहीं था वहीं नाव डुबोया है.
हरियाणा, यूपी और बिहार की कई चीजों को हू-ब-हू उठाया
आजकल लेखकों को यह लगता है कि तीन-चार कहानियों को आपस में घोल देंगे तो एक नई कहानी बन...
जाटों ने अगर 'दसवीं' का विरोध किया होता तो यह फिल्म का बड़ा हासिल होता. जिस आधार पर फिल्मों का सपोर्ट या विरोध किया जाता है- जाटों के लिए इसमें बहुत कुछ था. एक तो हरित प्रदेश के रूप में लंबे वक्त से जारी राजनीतिक संघर्ष का मजाक उड़ाया गया और हरित प्रदेश की अवधारण को फालतू का बता दिया गया. यह भी स्थापित कर दिया गया- देख लो हरित प्रदेश बना तो उसका मुख्यमंत्री ऐसे भी हो सकता है. जाटों की पंचायत पर भी तंज है. मगर उन्होंने भी कड़ी निंदा लायक नहीं समझा. यानी फिल्म के असर को लेकर वे समझदार हैं. नई दुनिया में जहां विरोध के भी कारोबारी मायने निकलते हैं- वहां फिल्म की एक और बड़ी उपलब्धि हो सकती थी. 'आंदोलनजीवी' महिला संगठन कम से कम एकाध ट्वीट ही कर देते तो काम बन जाता- ये कैसी रचनात्मकता है कि आपने महिलाओं को अक्षम और अकर्मण्य बताने में कोई कसर बाकी नहीं रखा.
खैर, ऊपर की बातों को मजाक में लें. मेरा फ़िल्मी मजाक कह लीजिए. मैं तो बस यह लिखने की कोशिश कर रहा कि दसवीं असल में कितना प्रभावित करती है. इसके असर का अंदाजा लगाना और कमियां साफ़ साफ कमियां पकड़ लेना मुश्किल नहीं है. दुनिया जहान की बात करने के लिए दसवीं में काफी कुछ निकाला जा सकता था, दुर्भाग्य से कुछ नहीं निकला. नए नवेले निदर्शक तुषार जलोटा की फिल्म में ये दो चीजें ऐसी थीं, कम से कम जिसके बहाने दसवीं पर हंसी खुशी वाले अंदाज में बात होनी चाहिए थी, नहीं हुईं. मने फिल्म अपने मकसद में प्रभावी नहीं है. और इसके लिए निर्माता लेखक का कोर्ट मार्शल करने को फ्री हैं. क्योंकि महाशय ने जहां पानी नहीं था वहीं नाव डुबोया है.
हरियाणा, यूपी और बिहार की कई चीजों को हू-ब-हू उठाया
आजकल लेखकों को यह लगता है कि तीन-चार कहानियों को आपस में घोल देंगे तो एक नई कहानी बन जाएगी. फिल्म में हरियाणा, यूपी और बिहार की राजनीति के असल किस्सों को उठाया गया है. वैधानिक चेतावनी के साथ. तीन-चार कहानियों को मिलाकर असल में जलेबी बना दी गई. फिल्म देखते हुए पहली नजर में ही समझ सकते हैं कि कैसे ओमप्रकाश चौटाला की पढ़ाई को फोकस किया, उसमें राबड़ी देवी की ताजपोशी के बहाने लालू यादव की दागदार राजनीति की चासनी डाली गई और बाकी का थोड़ा बहुत मसाला यूपी की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती की कथित कार्यशैली के रूप में उठाया गया. दसवीं की जलेबी यहां तक तो ठीक है. लेकिन असल दिक्कत फिल्म पर ओमप्रकाश चौटाला की पढ़ाई वाले चैप्टर का पूरी तरह हावी हो जाना है जिसे ठीक से लिखा नहीं गया और बहुत बचकाना लगता है.
मुख्यमंत्री गंगाराम चौधरी (अभिषेक बच्चन) करप्शन के आरोप में जेल चले जाते हैं. पत्नी विमला देवी मुख्यमंत्री बन जाती हैं. और एक आईपीएस ज्योति (यामी गौतम) भ्रष्ट राजनीति में सजा के तौर पर जेल ड्यूटी में ट्रांसफर कर दी जाती है. फिल्म के यही तीन किरदार अहम हैं और इन्हीं के आसपास जेल के अंदर से लेकर बाहर तक दर्जनभर सपोर्टिंग किरदार हैं. गंगाराम के जेल पहुंचने के बाद लचड़ लिखावट के एक से बढ़कर एक नमूने दिखते हैं. क्योंकि लेखक ने तीन सच्ची कहानियां तो खूब पढ़ी थीं, उसका निचोड़ नहीं ला पाए. इसी बिंदु से उनके मौलिक रचनात्मकता का इम्तिहान शुरू होता है जो ना तो हंसाता है और ना किसी अन्य तरह के रोमांच का अनुभव देता है.
दसवीं में अपना कुछ ओरिजिनल नहीं है, इसे फिल्मों की फिल्म कह सकते हैं
जेल में शादीशुदा गंगाराम और जेलर की तनातनी को ऐसे दिखाया गया है जैसे तीस साल पहले की फिल्मों में हीरो हीरोइन पहली बार मिलते थे. उनके बीच मासूम तकरार और तनाव नजर आता है. जेलर से तकरार में गंगाराम को हार्ट अटैक आता है. भीड़ बहुत है लेकिन जेलर ही गंगाराम को मुंह के जरिए पंप करती है और उनकी जान बच जाती है. पुरानी रोमांटिक फिल्मों के वो इरोटिक सीन्स याद होंगे. वार्फीले मौसम में हीरो या हीरोइन ठंड खा चुके हैं या पानी में भीग गए हैं. कंपकपी के साथ उन्हें जोर का बुखार है. हीरो या हीरोइन की तबियत बुरी तरह खराब है. निर्जन इलाके में मदद की गुंजाइश भी नहीं. सिर्फ एक ही शर्त पर जान बच सकती है. हीरो या हीरोइन कपड़े उतारता है और कंबल में घुसकर हीरो या हीरोइन की शरीर को जिस्म की गर्मी देता है. तीस साल पहले तक ये बड़ा कॉमन दृश्य हुआ करता था. दर्शक जुनूनी हो जाते थे. लेकिन उन कहानियों में यह जस्टिफाई दिखता था. यहां कन्फ्यूज करता है.
गंगाराम को पढ़ा लिखा ना होने की शर्म है. वो तय करते हैं कि दसवीं करेंगे. लेकिन यह बहुत मुश्किल काम है. लेखक यहां मुन्नाभाई से प्रेरित हो गए हैं. देखेंगे तो पता चलेगा कि कैसे मुन्नाभाई की तरह गंगाराम इतिहास में कितना डूब गया है. एक एक विषय सीख लेते हैं. असल समस्या हिंदी में है. जेलर हिंदी सिखाने को तैयार हो जाती है. और भाई साहब हिंदी में जिस तकनीक के जरिए जेलर साहिबा ने गंगाराम को सिखाया है ना माथा पीटने का मन करता है. अब चूंकि लेखक ने घुसा दिया तो उसे पूरा करना होगा. जबकि यहीं पर बढ़िया ह्यूमर और कॉमिक टाइमिंग्स की जरूरत थी. यहां तारे जमीन पर का असर दिखता है. उधर, विमला देवी मस्त हैं और नहीं चाहती कि उनके पति वापस आए. गंगाराम दसवीं कैसे पास करता है. पत्नी के साथ रिश्ते कहां तक जाते हैं, जेल से बाहर कब कैसे निकलता है और फिर मुख्यमंत्री बन पाता है या नहीं इसे जानने के लिए फिल्म देखना पड़ेगा.
दसवीं की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि इसमें अलग-अलग कहानियां, फ़िल्में तो दिखती हैं मगर लेखक की अपनी ही कहानी नहीं दिखती. अपना कुछ ओरिजिनल नहीं. यह फिल्मों की फिल्म लगती है. ताजगी के नाम पर बस फिल्म का हरियाणवी लहजा है. कहा जा रहा कि इसे कुमार विश्वास ने लिखा है. उनकी तारीफ़ की जा सकती है. संवाद बढ़िया है. हरियाणवी लहजा कितना सही है यह तो मैं दावे से नहीं बता सकता, लेकिन अभिषेक, निमरत और यामी समेत सभी कलाकार लहजे के साथ फ्रेश दिखते हैं. कलाकारों का काम भी बहुत सुपर तो नहीं है लेकिन ठीकठाक है. फिल्म नेटफ्लिक्स और जियो सिनेमा पर रिलीज हुई है. जियो की एक्सेस बहुतायत लोगों के पास हैं. चाहें तो टाइमपास के लिए देख सकते हैं.
जहां तक मेरी बात है- दिनेश विजान के प्रोडक्शन- मैडोक फिल्म की अब तक सारी सोशल कॉमेडी ड्रामा देखी है. दसवीं उनमें सबसे कमजोर फिल्म लगी.
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