हिन्दुस्तान का सॉफ्ट पॉवर कहा जाने वाला हिंदी सिनेमा खुद सॉफ्ट टारगेट बन चुका है. कभी देवताओं की तरह पूजे जाने वाले उसके सितारे घृणा और बायकॉट अभियानों का शिकार हो रहे हैं. इस पूरे खेल का ताजा निशाना शाहरुख खान और उनकी नयी फिल्म पठान थी. शाहरुख हिंदी सिनेमा के सबसे बड़े सितारे हैं और करीब चार साल बाद उनकी कोई फिल्म रिलीज हुई है.
जिस तरह से शाहरुख और उनकी इस फिल्म को किसी न किसी बहाने बिना वजह विवादों में खीचने की कोशिश की गयी वो अपने आप में अभूतपूर्व है. इन सब के बावजूद बॉक्स ऑफिस पर “पठान” ने बॉयकॉट अभियान के चक्रव्यूह को तोड़ दिया है और मुश्किल में पड़े बॉलीवुड की उसके सबसे बड़े सुपरस्टार के साथ वापसी हो गयी है. लेकिन जिस प्रकार से शाहरुख और उनकी फिल्म को सांप्रदायिक घृणा का निशाना बनाया गया उसने “पठान” को एक आम हिंदी फिल्म से कहीं अधिक बना दिया है. जाने-अनजाने यह एक सहिष्णु बनाम असहिष्णु भारत की लड़ाई का एक सिनेमाई प्रतीक बनकर उभरी है.
बे-“वजह” का विवाद
न्यूज़ वेबसाइट क्विंट हिंदी द्वारा #बॉयकॉटपठान के ट्रेंड की गहनता से पड़ताल की गयी है जिसमें दिलचस्प रूप से यह पाया गया है कि इस फिल्म का बॉयकॉट करने का सबसे पहला ऐलान अगस्त 2020 में फिल्म की आधिकारिक घोषणा से पहले ही कर दी गयी थी और इस प्रकार से यह फिल्म अपनी आधिकारिक घोषणा से पूर्व से लेकर अपनी रिलीज होने और उसके बाद तक करीब दो साल से अधिक समय तक “बॉयकॉट गैंग” के रडार पर रही है.
इस पूरे बॉयकॉट कॉल में अक्टूबर 2021 में शाहरुख के बेटे आर्यन खान की गिरफ्तारी और “बेशरम रंग” गाने के रिलीज जैसे बड़े पड़ाव भी शामिल रहे हैं जिनके बाद इस ट्रेंड में एक बड़ा उछाल आता है.
क्विंट हिंदी ने अपनी इस पड़ताल में पाया है कि पठान के बॉयकॉट कॉलों के पीछे दक्षिणपंथी हिन्दुतात्वादी विचारधारा से जुड़े और "सुशांत सिंह राजपूत के लिए न्याय" की मांग करने वाले लोग प्रमुख रूप से शामिल रहे हैं. साथ ही इसमें...
हिन्दुस्तान का सॉफ्ट पॉवर कहा जाने वाला हिंदी सिनेमा खुद सॉफ्ट टारगेट बन चुका है. कभी देवताओं की तरह पूजे जाने वाले उसके सितारे घृणा और बायकॉट अभियानों का शिकार हो रहे हैं. इस पूरे खेल का ताजा निशाना शाहरुख खान और उनकी नयी फिल्म पठान थी. शाहरुख हिंदी सिनेमा के सबसे बड़े सितारे हैं और करीब चार साल बाद उनकी कोई फिल्म रिलीज हुई है.
जिस तरह से शाहरुख और उनकी इस फिल्म को किसी न किसी बहाने बिना वजह विवादों में खीचने की कोशिश की गयी वो अपने आप में अभूतपूर्व है. इन सब के बावजूद बॉक्स ऑफिस पर “पठान” ने बॉयकॉट अभियान के चक्रव्यूह को तोड़ दिया है और मुश्किल में पड़े बॉलीवुड की उसके सबसे बड़े सुपरस्टार के साथ वापसी हो गयी है. लेकिन जिस प्रकार से शाहरुख और उनकी फिल्म को सांप्रदायिक घृणा का निशाना बनाया गया उसने “पठान” को एक आम हिंदी फिल्म से कहीं अधिक बना दिया है. जाने-अनजाने यह एक सहिष्णु बनाम असहिष्णु भारत की लड़ाई का एक सिनेमाई प्रतीक बनकर उभरी है.
बे-“वजह” का विवाद
न्यूज़ वेबसाइट क्विंट हिंदी द्वारा #बॉयकॉटपठान के ट्रेंड की गहनता से पड़ताल की गयी है जिसमें दिलचस्प रूप से यह पाया गया है कि इस फिल्म का बॉयकॉट करने का सबसे पहला ऐलान अगस्त 2020 में फिल्म की आधिकारिक घोषणा से पहले ही कर दी गयी थी और इस प्रकार से यह फिल्म अपनी आधिकारिक घोषणा से पूर्व से लेकर अपनी रिलीज होने और उसके बाद तक करीब दो साल से अधिक समय तक “बॉयकॉट गैंग” के रडार पर रही है.
इस पूरे बॉयकॉट कॉल में अक्टूबर 2021 में शाहरुख के बेटे आर्यन खान की गिरफ्तारी और “बेशरम रंग” गाने के रिलीज जैसे बड़े पड़ाव भी शामिल रहे हैं जिनके बाद इस ट्रेंड में एक बड़ा उछाल आता है.
क्विंट हिंदी ने अपनी इस पड़ताल में पाया है कि पठान के बॉयकॉट कॉलों के पीछे दक्षिणपंथी हिन्दुतात्वादी विचारधारा से जुड़े और "सुशांत सिंह राजपूत के लिए न्याय" की मांग करने वाले लोग प्रमुख रूप से शामिल रहे हैं. साथ ही इसमें नरोत्तम मिश्रा जैसे भाजपा के बड़े नेता भी खुले रूप से शामिल नजर आते हैं जो मध्यप्रदेश के गृह मंत्री भी हैं.
गौरतलब है कि “बेशरम रंग” गाने के रिलीज के बाद नरोत्तम मिश्रा ने कहा था कि इस गाने को दूषित मानसिकता के साथ फिल्माया गया है और अगर गाने के दृश्यों व वेशभूषा को ठीक नहीं किया गया तो इस फिल्म को मध्यप्रदेश में रिलीज की अनुमति देने को लेकर विचार किया जाएगा.
“बेशरम रंग” गाने को लेकर जिस तरह से विवाद खड़ा किया गया वो हास्यास्पद के साथ खतरनाक भी है, गौरतलब है कि इस गाने में अभिनेत्री दीपिका पादुकोण ने भगवा रंग की बिकिनी पहनी थीं. चूंकि गाने का नाम बेशरम रंग है, दीपिका के बिकनी का रंग भगवा है और उस सीन में शाहरुख के शर्ट का रंग हरा है इसलिए इसे “हिंदुओं की भावनाओं को आहत” करने वाला बताकर इसका अंध विरोध शुरु कर दिया गया.
कुल मिलकर यह एक जबरदस्ती खड़ी की गयी कॉन्ट्रोवर्सी थी लेकिन बेवजह नहीं थी बल्कि इसके गहरे मकसद रहे हैं. इस पूरे अभियान का असली निशाना और मकसद चार साल बाद वापसी कर रहा सुपरस्टार “पठान” था जिसे नये भारत में पचाना मुश्किल हो रहा है.
जो तुम को हो पसंद हम वही फिल्म बनायेंगें लेकिन अपनी शर्तों पर
“पठान” शाहरुख खान की कमबैक फिल्म है. इससे पहले उनकी “जीरो”, “फैन”, जैसी अलग मिजाज की फिल्मों को दर्शकों द्वारा नकार दिया गया था इसलिए चार साल बाद वो पूरी तैयारी के साथ वापस आये हैं और अपने वापसी के लिए ऐसी फिल्म को चुना जिसे जनता डिजर्व या पसंद करती है.
शायद उन्होंने सलमान खान के उस शिकायत को बहुत गंभीरता से ले लिया जिसमें उन्होंने कहा था कि “हमारी फिल्मों का साउथ वालों की फिल्मों की तरह नहीं चलने का एक कारण ये भी है कि वो लोग हीरोगिरी को खूब बढ़ावा देते हैं.” कोविड के बाद अब दर्शकों को सिनेमा घरों की तरफ वापस लाना आसान नहीं है, अब उनके पास घर पर ही कई विकल्प हैं ऐसे में उन्हें दोबारा वापस लाने के लिए भव्यता और “लार्जर दैन लाइफ' महानायकों” की जरूरत है.
जो फिलहाल हिंदी सिनेमा नहीं कर पा रहा था. इसके बरक्स दक्षिण भाषाओं की फिल्में यह काम बखूबी कर रही हैं और उनके सफल होने का एक प्रमुख कारण भी यही है. पिछले करीब एक दशक से सलमान खान अकेले ऐसे बॉलीवुड सितारे हैं तो मसाला और “लार्जर दैन लाइफ” फ़िल्में बना रहे हैं हालांकि उनकी दबंग जैसी कुछ फिल्मों को छोड़ कर अधिकतर साउथ की फिल्मों की रीमेक या उनसे प्रभावित हैं इसलिए इस दौरान वे हिंदी सिनेमा के सबसे सफल सितारे भी रहे हैं.
पठान अपनी अंदरूनी बनावट में एक साधारण फिल्म है जिसे बहुत ही स्टाइलिश तरीके से बनाया गया है, यह कोई महान या क्लासिक फिल्म नहीं बल्कि एक विशुद्ध मसाला फिल्म है जिसे बॉक्स आफिस के चलन को ध्यान में रखकर बनाया गया है. फिल्म की कहानी बहुत लचर है और सारा जोर एक्शन, रफ्तार, लोकेशंस और हीरोपंती पर है.
लेकिन इस फिल्म की सबसे बड़ी खासियत इसकी बाहरी बनावट है. मोटे तौर पर तीन चीजें है तो इसे ख़ास बनाती है-पहला खुद फिल्म का टाईटल “पठान”, जो अपने आप में एक अलग “पहचान” पेश करता है वो भी एक ऐसे बहुसंख्यकवादी भारत के माहौल में जिसका सबसे बड़ा निशाना यही पहचान है. लेकिन बात सिर्फ इतनी सी ही नहीं है, इस फिल्म का नाम ही नहीं मुख्य किरदार भी “पठान” है, इसी कड़ी में एक और बात जुड़ती हैं, फिल्म का हीरो ना केवल पठान है बल्कि वो देशभक्त “पठान” है जो भारत को अपनी मां मानता है और डायलॉग मारता है कि “पार्टी पठान के घर में रखोगे, तो मेहमान नवाजी के लिए पठान तो आएगा और साथ में पठाखे भी लाएगा.” इन सबसे में एक बुनियादी वजह फिल्म में एक ऐसे सुपरस्टार का होना है जिसका उपनाम खान है.
यह बातें इसलिये महत्वपूर्ण हैं क्योंकि हिंदी सिनेमा पहले से ही देश के मुस्लिम समाज को परदे पर पेश करने के मामले में कंजूस रहा है और ऐसे मौके बहुत कम आते हैं जब किसी मुसलमान को मुख्य किरदार या हीरो के तौर पर प्रस्तुत किया जाता हो. अमूमन हिंदी सिनेमा के परदे पर मुस्लिम समुदाय या तो ज्यादातर गायब रहे हैं या अगर दिखे भी हैं तो नवाब, हीरो के वफादार दोस्त, रहीम चाचा और आतंकवादी जैसी भूमिकाओं में. 90 के दशक से हिंदी सिनेमा में “खान तिकड़ी” का आगमन के बाद तो सिल्वर स्क्रीन पर मुस्लिम किरदारों के प्रस्तुतिकरण में और गिरावट होती है, इस दौरान वे स्टीरियोटाइप टोपी पहने, नकारात्मक किरदारों जैसे कट्टरपंथी, आतंकवादी, देशद्रोही जैसे किरदारों में ही पेश किये जाते रहे.
फिल्म में कुछ और भी छोटी-छोटी बातें हैं जो इस मुख्यधारा की फिल्म के दायरे और सोच को व्यापक बनाती हैं साथ ही तंग नजरिये पर आधारित राष्ट्रवाद की सोच को भी तोड़ती है. फिल्म में मुख्य रूप से भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के किरदार हैं, लेकिन यहां आम हिंदी फिल्मों की तरह सबकुछ काला और सफेद नहीं है बल्कि तीनों ही देशों में अच्छे और बुरे दोनों तरह के लोग हैं.
मिसाल के तौर पर इस फिल्म का नायक और खलनायक दोनों ही भारतीय हैं, दोनों ही खुफिया सेवाओं से जुड़े रहे हैं, दूसरी तरफ इसमें पाकिस्तान के भी दो किरदार हैं जिसमें एक पाकिस्तानी जनरल है जो खलनायक है और दूसरी फिल्म की नायिका रुबाई है जो पठान की तरह अपने देश की खुफिया एजेंट है और जब उसे पता चलता है कि उसने देशभक्ति के जोश में आकर कुछ ऐसा गलत कर दिया है जो इंसानियत के खिलाफ है तो वो पश्चाताप करती है और भारतीय नायक के साथ मिलकर हिन्दुस्तान को बचाने के लिए काम करती है.
इसी प्रकार से फिल्म में आम अफगानियों को आतंकी या हिंसक मुसलमान नहीं बल्कि अच्छे और मददगार इंसानों के रूप में चित्रित किया गया है जो भारत को बचाने के लिए पठान और रुबाई के साथ मिलकर काम करते हैं. फिल्म का नायक पठान न तो अपना असली नाम जानता है और न ही धर्म बल्कि अनकंडीशनल का देशभक्त है जो “यह मत पूछिए कि आपका देश आपके लिए क्या कर सकता है बल्कि यह पूछें कि आप अपने देश के लिए क्या कर सकते हैं” के सूत्र में यकीन रखता है.
शायद इन्हीं वजहों से हंसल मेहता ने कहा है कि "पठान” उतनी ही पॉलिटिकल हैं जितनी कि ‘फ़राज़’ लेकिन दोनों फिल्मों के एक्सप्रेशन का तरीका अलग है, दर्शक अलग हैं.” एक अन्य फिल्मकार अनुराग कश्यप ने पठान की सफलता को सोशियो-पॉलिटिकल उल्लास बताया है.
बायकॉट गैंग और उनके वैचारिक आका
अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद बॉलीवुड की पहचान उन चंद पेशेवर स्थानों में है जो समावेशी और धर्मनिरपेक्ष हैं और यह बहुसंख्यक दक्षिणपंथियों को हमेशा से ही खटकता रहा है. आज यह विचारधारा देश के तकरीबन हर क्षेत्र में अपना वर्चस्व स्थापित कर चुकी है तो जाहिर तौर पर उसका निशाना बॉलीवुड पर भी है. वे बॉलीवुड को भी अपना भोंपू बना लेना चाहते हैं और इसके लिए वे हर हथकंडा अपना रहे हैं.
नतीजे के तौर पर आज हमारे समाज की तरह बॉलीवुड भी खेमों में बंट गया है, यहां भी हिन्दू-मुस्लिम आम हो चुका है और पूरी इंडस्ट्री जबरदस्त वैचारिक दबाव के दौर से गुजर रही है. आज बॉलीवुड को हिंदू विरोध की प्रयोगशाला बताया जा रहा है. दिवगंत अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की रहस्यमयी मौत के बाद तो बॉलीवुड के खिलाफ सुनियोजित अभियान चलाया गया जिसमें पूरी फिल्म इंडस्ट्री को नशेड़ी और अपराधियों का नेटवर्क के तौर पर पेश करने की कोशिश की गयी. इस दौरान मुख्य रूप से तीनों खान सितारे ख़ास निशाने पर रहे हैं जिन्होंने लगभग एक चौथाई सदी तक बॉलीवुड पर अपना दबदबा कायम रखा है और जिनके प्रशंसक धार्मिक सीमा रेखाओं से परे हैं.
बॉलीवुड के ख़िलाफ़ दुष्प्रचार फैलाने वाले अधिकतर लोग बहुसंख्यक दक्षिणपंथी विचारधारा के हैं, इस संदर्भ में दक्षिणपंथी न्यूज़ पोर्टल “ऑपइंडिया” में “बायकॉट बॉलीवुड- क्या यह वास्तव में आवश्यक है?” शीर्षक से प्रकाशित लेख का जिक्र मौंजू होगा जिसमें चिंता जाहिर की गयी है कि बायकॉट अभियान की वजह से पूरी फिल्म इंडस्ट्री का विरोध ठीक नहीं है, लेख में असली दुश्मन पहचानने की सलाह दी गयी है, जाहिर हैं वो दुश्मन तीनों खान और उनका स्टारडम है.
लेख के अनुसार “बॉलीवुड में इस वक्त 5 सुपरस्टार हैं सलमान, आमिर, शाहरुख, अक्षय और अजय देवगन. हमें यह समझना पड़ेगा कि अक्षय कुमार और अजय देवगन में ही वो शक्ति और वो टैलेंट है कि वो खानों के स्टारडम को टक्कर दे पाएं”. लेख में आह्वान किया गया है कि “हमें हिंदी फिल्म उद्योग को खत्म नहीं करना है बल्कि हमें हिंदी फिल्मों से उर्दू को हटाना है, हमें हिंदी फिल्मों में गलत इतिहास को दिखाने से रोकना है, हमें हिंदी फिल्म उद्योग से वामपंथियों के गैंग के एजेंडे को खत्म करना है, हमें हिंदी फिल्म उद्योग से हिंदू विरोधी सरगनाओं से छुटकारा पाना है, हमें हिंदी फिल्म उद्योग का शुद्धिकरण करना है.”
संघ लम्बे समय से बॉलीवुड पर अपना वैचारिक वर्चस्व के फिराक में है और अब इस दिशा में उसे थोड़ी कामयाबी भी मिलती हुई दिखाई पड़ रही है. आरएसएस द्वारा ‘भारतीय चित्र साधना’ नाम से एक संगठन बनाया गया है जिसका मकसद सिनेमा में हिन्दुतत्व की विचारधारा को बढ़ावा देना है. पिछले साल चित्र भारती फिल्मोत्सव का आयोजन 25 से 27 मार्च को भोपाल में किया गया जिसमें अक्षय कुमार और द कश्मीर फाइल्स के निर्देशक विवेक अग्निहोत्री बतौर मुख्य अतिथि शामिल हुए थे.
शाहरुख का साइलेंट रेबेलियन?
अंग्रेजी कारवां ने जनवरी 2023 में “साइलेंट रेबेलियन” शीर्षक से कवर स्टोरी प्रकाशित की है, क्या शाहरुख खान वाकई में एक विद्रोही है? दरअसल शाहरुख खान ने अपनी पिछली कई फिल्मों में मुस्लिम किरदार निभाया है. उन्होंने “'ऐ दिल है मुश्किल' में अपने कैमियो किरदार ताहिरखान, 'डियर ज़िन्दगी' के जहांगीर खान, 'माई नेम इज़ खान' के रिज़वान खान, 'चक दे इंडिया' के कबीर खान जैसे किरदारों को निभाकर सिनेमा के परदे पर मुस्लिम छवि का 'सामान्यीकरण' किया है, यह एक मजबूत संदेश है जिस पर गौर करने और उसकी सराहना करने की जरूरत है. इसकी झलक उनके सावर्जनिक जीवन में भी देखने को मिलती है. 2015 में उन्होंने एक साक्षात्कारकर्ता से कहा: "धार्मिक असहिष्णुता और धर्मनिरपेक्ष नहीं होना इस देश में सबसे खराब प्रकार का अपराध है."
बाद में टिप्पणी का इस्तेमाल उन्हें परेशान करने और उनकी देशभक्ति पर सवाल उठाने के लिए किया गया और आखिरकार उन्हें उसको लेकर माफ़ी मांगनी पड़ी. इसके बाद से वे लगातार निशाने पर रहे हैं पिछले साल उनके बेटे को एक पार्टी में कथित तौर पर ड्रग्स लेने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था लेकिन बाद में आर्यन खान पर लगाए आरोप साबित नहीं हो सके. इसी प्रकार से लता मंगेशकर को श्रद्धांजलि देते समय शाहरुख़ ख़ान जब दुआ पढ़कर फूंक रहे थे तो भाजपा हरियाणा के आईटी सेल के प्रभारी अरुण यादव ट्वीट किया गया "क्या इसने थूका है?"
फिल्म की सफलता सुनिश्चित होने के बाद 30 जनवरी को शाहरुख खान द्वारा पठान की टीम के साथ एक प्रेस कांफ्रेंस किया गया था जिसमें उन्होंने पठान फिल्म के अपने सह-कलाकारों की तुलना मनमोहन देसाई की फिल्म के पात्रों से करते हुये कहा था “हम सब एक हैं, हब सबके बीच भाईचारगी है, ये दीपिका पादुकोण हैं, ये अमर हैं. मैं शाहरुख खान हूं, मैं अकबर हूं. ये जॉन अब्राहम हैं, ये एंथनी हैं. और इसी से सिनेमा बनता है...हमलोगों में से किसी में भी किसी के लिए भी, किसी कल्चर के लिए, जिंदगी के किसी पहलू से कोई फर्क नहीं है”. इसे संयोग ही कहा जायेगा कि शाहरुख महात्मा गांधी की 75वीं पुण्यतिथि के दिन ये बातें कह रहे थे. इससे पहले 26 जनवरी के दिन किये गये उनके एक ट्वीट ने भी सबका ध्यान खींचा था जिसमें उन्होंने लिखा था, “देश के लिए क्या कर सकते हो... सभी को गणतंत्र दिवस की बधाई. हमें वह सब संजोना चाहिए जो हमारे संविधान ने हमें दिया है, और कोशिश करें कि अपने देश को नई ऊंचाइयों पर ले कर जाएं, जय हिंद!”
बहरहाल नये भारत में विपरीत विचारों का टिके रह जाना मामूली बात नहीं है लेकिन यहाँ तो पूरी दबंगता के साथ टक्कर दी गयी है. शायद इसीलिए अनुराग कश्यप ने शाहरुख खान को एक मजबूत रीढ़ का आदमी बताया जो अपने खिलाफ इतना सब होने के बावजूद चुप रहा और अब अपने काम के ज़रिए स्क्रीन पर बोला है. इतने विरोध और नकारात्मक अभियान के बावजूद “पठान” फिल्म का कामयाब होना एक बड़ी बात है. इसलिए जब शाहरुख कहते हैं कि ‘क्रिएटिविटी का कोई धर्म नहीं होता बल्कि यह बहुत सेक्युलर होती है,’ तो दरअसल वे बॉलीवुड की उस जमीन पर टिके रहने की जिद कर रहे होते हैं जिसे बनाने में एक सदी से ज्यादा वक्त लगा है.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.