इस संसार का अनकहा नियम है कि आप जो भी कर्म करोगे, उसका फल आपको मिलेगा. ये ख़ासकर जुर्म करने वालों के लिए लागू है कि अगर गुनाह किया है, चाहें जो भी कारण हो. सज़ा तो उसकी मिलेगी. कहानी ठीक वहीं से शुरु होती है जहां पहले पार्ट में ख़त्म हुई थी. जॉर्जकुट्टी (मोहनलाल) वरुण की लाश पुलिस स्टेशन में गाड़कर रात साढ़े तीन बजे वापस जा रहा है. लेकिन, इस बार ट्विस्ट ये है कि जोस नामक एक हत्यारा ख़ुद पुलिस से भागते-भागते उसे पुलिस स्टेशन में देख लेता है और इग्नोर कर अपने घर की ओर भाग जाता है. उसके घर के बाहर ही उसे पुलिस दबोच लेती है और उसे आजीवन सज़ा पड़ जाती है. अब कहानी 6 साल आगे बढ़ती है जहां जॉर्ज और उसकी फैमिली आराम से रह रहे हैं. लेकिन अब जॉर्ज एक फिल्म थिअटर का मालिक हो चुका है. अपनी बीवी के ख़िलाफ़ जाकर एक फिल्म प्रोड्यूस करने वाला है. उसके पास एक आइडिया है जिसे वो किसी फेमस राइटर से स्क्रिप्ट में तब्दील करवा रहा है.
ट्विस्ट वापस लौटता है, कोर्ट की फटकार के बाद भी अंदरखाने जॉर्ज के खिलाफ इन्वेस्टिगेशन चल रही है. इसके चलते लोग भी तरह तरह की बातें बना रहे हैं और जो पड़ोस एक वक़्त जॉर्ज के फेवर में होता था, वो अब ख़िलाफ़ हो गया है और, जोस पुलिस को बता देता है कि जॉर्जकुट्टी ने लाश कहां छुपाई थी. डायरेक्शन और स्क्रीनप्ले दोनों जीतू जोसेफ का है. लेखन की जितनी तारीफ की जाए कम है, मैं कोई स्पॉइलर नहीं देना चाहता पर जिस तरह कहानी सम-अप की है, वो सीट से खड़े होकर ताली बजाने के लिए मजबूर करने वाली है.
डायरेक्शन ज़रा सा सुस्त लगता है, लगता इसलिए है कि फोरप्ले बहुत लम्बा है और कहीं-कहीं थकाने लगता है. फिर मलयालम में इंग्लिश सबटाइटल के साथ देखना भी शायद ध्यान भंग कर सकता...
इस संसार का अनकहा नियम है कि आप जो भी कर्म करोगे, उसका फल आपको मिलेगा. ये ख़ासकर जुर्म करने वालों के लिए लागू है कि अगर गुनाह किया है, चाहें जो भी कारण हो. सज़ा तो उसकी मिलेगी. कहानी ठीक वहीं से शुरु होती है जहां पहले पार्ट में ख़त्म हुई थी. जॉर्जकुट्टी (मोहनलाल) वरुण की लाश पुलिस स्टेशन में गाड़कर रात साढ़े तीन बजे वापस जा रहा है. लेकिन, इस बार ट्विस्ट ये है कि जोस नामक एक हत्यारा ख़ुद पुलिस से भागते-भागते उसे पुलिस स्टेशन में देख लेता है और इग्नोर कर अपने घर की ओर भाग जाता है. उसके घर के बाहर ही उसे पुलिस दबोच लेती है और उसे आजीवन सज़ा पड़ जाती है. अब कहानी 6 साल आगे बढ़ती है जहां जॉर्ज और उसकी फैमिली आराम से रह रहे हैं. लेकिन अब जॉर्ज एक फिल्म थिअटर का मालिक हो चुका है. अपनी बीवी के ख़िलाफ़ जाकर एक फिल्म प्रोड्यूस करने वाला है. उसके पास एक आइडिया है जिसे वो किसी फेमस राइटर से स्क्रिप्ट में तब्दील करवा रहा है.
ट्विस्ट वापस लौटता है, कोर्ट की फटकार के बाद भी अंदरखाने जॉर्ज के खिलाफ इन्वेस्टिगेशन चल रही है. इसके चलते लोग भी तरह तरह की बातें बना रहे हैं और जो पड़ोस एक वक़्त जॉर्ज के फेवर में होता था, वो अब ख़िलाफ़ हो गया है और, जोस पुलिस को बता देता है कि जॉर्जकुट्टी ने लाश कहां छुपाई थी. डायरेक्शन और स्क्रीनप्ले दोनों जीतू जोसेफ का है. लेखन की जितनी तारीफ की जाए कम है, मैं कोई स्पॉइलर नहीं देना चाहता पर जिस तरह कहानी सम-अप की है, वो सीट से खड़े होकर ताली बजाने के लिए मजबूर करने वाली है.
डायरेक्शन ज़रा सा सुस्त लगता है, लगता इसलिए है कि फोरप्ले बहुत लम्बा है और कहीं-कहीं थकाने लगता है. फिर मलयालम में इंग्लिश सबटाइटल के साथ देखना भी शायद ध्यान भंग कर सकता है. लेकिन फिल्म का अंत सब जस्टिफाई कर देता है. सब. एक्टिंग की तो बात ही क्या, मोहनलाल की जितनी भी फिल्में मैंने अबतक देखी हैं, किसी में लगा ही नहीं है कि वो एक्टिंग कर रहे हैं. ऐसा लगता है कि वो वाकई जॉर्ज हैं और फैमिली को बचाने के लिए एड़ी चोटी का ज़ोर लगा रहे हैं. मीना ने भी बहुत अच्छी एक्टिंग की है. अनसिबा और एस्थर भी ज़बरदस्त हैं. अनसिबा का पुलिस स्टेशन वाला सीन वन ऑफ द बेस्ट सीन है.
जोस बने अजीत की एक्टिंग भी लाजवाब है. उसको एक दम सीन से गायब करना ख़लता है. म्यूजिक अनिल जॉनसन का है, सिर्फ एक गाना है जो कर्णप्रिय है. बैकग्राउंड ठीक है.सिनेमेटोग्राफी सतीश कुरुप ने की है और ज़बरदस्त की है. एडिटिंग वीएस विनायक ने की है. फिल्म ढाई घण्टे से कुछ कम भी होती, तो ज़्यादा थ्रिलिंग लगती. हालांकि डिटेल्स जस्टिफाइड है.
कुलमिलाकर दृश्यम 2 पहली पहली फिल्म की तरह ही हर सीन में अपनी क्लास दर्शाती नज़र आती है. स्पेशली इसकी राइटिंग की तारीफ है, ऐसी ज़बरदस्त सीक्वेल में राइटिंग हमारे यहाँ रेयर ही मिलती है. ये मूवी ऑफ द मन्थ है. अजय देवगन को भी इसके साथ साथ ही पार्ट 2 बना लेना चाहिए था. एक ही दिन रिलीज़ होतीं तो ज़्यादा ऑडिएंस तक पहुंच सकती थीं. फिल्म की रेटिंग 8/10 है.
कुछ मेरे मन की भी
फिल्म सिर्फ थ्रिलर होती तो एक आम फिल्म होती, फिल्म में सिर्फ सस्पेंस ही सबकुछ होता तो इसकी इतनी रेटिंग मुमकिन न थी. पर इस फिल्म की सबसे अच्छी बात है इसका इमोशनल फैक्टर. कितनी बड़ी बात फिल्म साधारण से अंदाज़ में समझाती है कि अगर आप हमेशा डर-डर के जी रहे हो, हमेशा किसी ख़ौफ़ आपको सता रहा है तो क्या वो पर्याप्त सज़ा नहीं है? आम ज़िन्दगी में भी ये सवाल खड़ा रहता है सामने, कि जबतक हम निडर होकर नहीं जीते हैं तबतक हम ज़िंदा ही नहीं हैं.
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