एक तरह से इस फिल्म में कुछ भी नया नहीं है, फिर भी इसकी खूबी है कि इसने कई समकालीन बहुचरित सामाजिक मुद्दों का सम्मिश्रण बखूबी किया है- चाहे वह अन्याय के खिलाफ आम आदमी का संघर्ष, न्यायप्रणाली के रखवालों से जद्दोजहद, नीतियों या नीतिप्रणाली की कमियां या फिर न्याय दिलवाने वाली पुलिस हो या फिर पैसे ऐंठना और आखिर में अदालत से राहत या इंसाफ, भले ही देर से या आखिर में.
निर्देशक सुभाष कपूर ने समकालीन विषयों के अलावा कुछ ऐसे एलीमेंट्स को पिरोया है जो आम आदमी के मर्म को जरूर छुएंगे. वे हैं माध्यमों की चिंता किए बगैर हर कीमत पर सांसारिक सफलता हासिल करने की प्रवृत्ति, पारिवारिक मूल्यों को प्राथमिकता, कीमती चीजों के प्रति सनक और चारों ओर झूठ ही झूठ. फिल्म लेखक ने राजू हिरानी की तरह एक साथ कई पहलुओं को छुआ है.
सफल फिल्मों का सीक्वल बनाना मुश्किल काम है क्योंकि दर्शकों की उम्मीदों पर खरा उतरने का जबरदस्त दबाव होता है- स्टोरीलाइन या पात्रों का चरित्र चित्रण और उनकी ऐक्टिंग की काबिलियत मापने की कसौटी पहले से तैयार होती है. जॉली एलएलबी जानी-पहचानी कथा और चरित्रों की रूप-रेखा के बावजूद नई घटना- पुलिस मुठभेड़- को लेकर एक वकील की शुरुआती खलनायकी से गौरवशाली वीरता को बखूबी दर्शाती है. इस तरह की कहानी पर बॉलीवुड और हॉलीवुड में फिल्में बनती रही हैं.
इस तरह की फिल्मों के प्रीक्वल की समानताओं को देखें तो अस्सी प्रतिशत कहानी एक जैसी है. निचली अदालत में प्रेक्टिस करने वाला वकील बड़ा वकील बनने का ख्वाब देखता है, गलियों में बोली जाने वाली भाषा (जैसे घूसंड, पिछवाड़ा, झंड) का कोर्ट-कचहरी में इस्तेमाल, हीरो वकील का बड़े वकील से तर्क-वितर्क और अंत में दिग्गज पर हावी हो जाना, एक छोटी सी प्रेम कहानी, और सबसे बड़ी समानता अभूतपूर्व अदाकारी (सौरभ शुक्ला की जज की भूमिका अगर कमजोर होती तो...
एक तरह से इस फिल्म में कुछ भी नया नहीं है, फिर भी इसकी खूबी है कि इसने कई समकालीन बहुचरित सामाजिक मुद्दों का सम्मिश्रण बखूबी किया है- चाहे वह अन्याय के खिलाफ आम आदमी का संघर्ष, न्यायप्रणाली के रखवालों से जद्दोजहद, नीतियों या नीतिप्रणाली की कमियां या फिर न्याय दिलवाने वाली पुलिस हो या फिर पैसे ऐंठना और आखिर में अदालत से राहत या इंसाफ, भले ही देर से या आखिर में.
निर्देशक सुभाष कपूर ने समकालीन विषयों के अलावा कुछ ऐसे एलीमेंट्स को पिरोया है जो आम आदमी के मर्म को जरूर छुएंगे. वे हैं माध्यमों की चिंता किए बगैर हर कीमत पर सांसारिक सफलता हासिल करने की प्रवृत्ति, पारिवारिक मूल्यों को प्राथमिकता, कीमती चीजों के प्रति सनक और चारों ओर झूठ ही झूठ. फिल्म लेखक ने राजू हिरानी की तरह एक साथ कई पहलुओं को छुआ है.
सफल फिल्मों का सीक्वल बनाना मुश्किल काम है क्योंकि दर्शकों की उम्मीदों पर खरा उतरने का जबरदस्त दबाव होता है- स्टोरीलाइन या पात्रों का चरित्र चित्रण और उनकी ऐक्टिंग की काबिलियत मापने की कसौटी पहले से तैयार होती है. जॉली एलएलबी जानी-पहचानी कथा और चरित्रों की रूप-रेखा के बावजूद नई घटना- पुलिस मुठभेड़- को लेकर एक वकील की शुरुआती खलनायकी से गौरवशाली वीरता को बखूबी दर्शाती है. इस तरह की कहानी पर बॉलीवुड और हॉलीवुड में फिल्में बनती रही हैं.
इस तरह की फिल्मों के प्रीक्वल की समानताओं को देखें तो अस्सी प्रतिशत कहानी एक जैसी है. निचली अदालत में प्रेक्टिस करने वाला वकील बड़ा वकील बनने का ख्वाब देखता है, गलियों में बोली जाने वाली भाषा (जैसे घूसंड, पिछवाड़ा, झंड) का कोर्ट-कचहरी में इस्तेमाल, हीरो वकील का बड़े वकील से तर्क-वितर्क और अंत में दिग्गज पर हावी हो जाना, एक छोटी सी प्रेम कहानी, और सबसे बड़ी समानता अभूतपूर्व अदाकारी (सौरभ शुक्ला की जज की भूमिका अगर कमजोर होती तो फिल्म शायद इतनी कामयाब नहीं होती) और अंत में सत्यमेव जयते.
असमानताओं में फिल्म की स्टोरी में आतंकवादी का फेक एनकाउंटर का प्रचलन (कई राज्यों में आखिर में पाया गया कि ज्यादातर मामलों में मारा गया व्यक्ति निर्दोष था), पुलिस रिकॉर्ड में हेरा-फेरी, साधारण परिवार का ग्लोबल ब्रांडों के प्रति सनक, हीरो की जेंडर-बेंडर की भूमिका जिसमें वह रोटी बनाकर खिलाता है और साथ ही दिल्ली-कानपुर और लखनऊ की भाषा का भेद.
फिल्म के सेट्स रियलिस्टिक हैं. जैसे कोर्ट रूम की आर्ट डेकोर, स्कूटर की सवारी, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में लोकेशन शूटिंग, पुरानी आवासीय इमारत वगैरह. कोर्ट कचहरी की तिरपाल और कपड़ों की छाया के नीचे खुले में पुराने टाइपराइटर पर बैठे वकील (हालांकि यह फिल्म 2015 की कहानी पर है लेकिन कंप्युटर या उसका प्रचलन कहीं नहीं दिखता). दैनिक जीवन में प्रचलित द्विअर्थी डायलॉग हैं (सलमान की दबंग का मशहूर डायलॉग दोहराया गया है), उर्दू तहजीब को भी छुआ है, खासकर बड़े वकील राम गोपाल बजाज और अन्नू कपूर के व्यंगपूर्ण वाक्यों में. सौरभ शुक्ला ने कई प्रभावशाली संवाद कहे हैं (खासकर अंत में न्याय प्रणाली की सर्वोपरि भूमिका पर) और उनका हर वाक्य के बाद हांजी (प्रश्न और पुष्टि, दोनों के रूप में) का अच्छा इस्तेमाल किया है.
जहां तक एक्टिंग का सवाल है तो सौरभ शुक्ला ने अपने पात्र को भरपूर जिया है, उनमें भेद कर पाना मुश्किल है. अक्षय कुमार और अन्नु कपूर की अदाकारी भी बढिया है. कह सकते हैं कि जब तक सौरभ शुक्ला इस रोल को निभाएंगे फिल्म के सीक्वल को दर्शक देखने आते रहेंगे. दर्शक उन्हें जज के रूप में सीधे पहचान लेते हैं.
फिल्म की खासियत है कि इसमें हिंदू-मुस्लिम चरित्रों को एक व्यवस्था के गिरफ्त में असहाय दिखाया गया है और फिल्म के डायलॉग आदेशात्मक या संरक्षणवादी नहीं हैं.
फिल्म का संगीत मामूली है और दर्शक उसे सिनेमा हॉल में ही भूल जाता है. कॉस्ट्यूम डिजाइन साधारण है क्योंकि कोर्ट में वैसे भी काले और सफेद कपड़े वाले ही मुख्य कर्ताधर्ता होते हैं. हां, अक्षय का कोर्ट में स्पोर्ट्स शूज पहनना समझ नहीं आया.
बॉलीवुड में कानूनी दावपेंच की फिल्में कई दशकों से बनती रही हैं- याद कीजिए फिल्म कानून, वक्त, हमराज और रियलिस्टिक फिल्मों में आक्रोश, मोहन जोशी हाजिर हो, या फिर अक्षय कुमार की नानावटी केस पर बनी रुस्तम. जॉली एलएलबी 2 में जोरदार पारस्परिक संवादों से प्रमुख गवाह के कवच को तोड़ना अनिल कपूर और जावेद जाफरी की फिल्म मेरी जंग के चरम सीन की याद दिलाता है जब आरोपी फ्रायडियन स्लिप के कारण सच उगल देता है.
बॉलीवुड में पुलिस एनकाउंटर पर पहले भी फिल्म बनी हैं. याद कीजिए अब तक छप्पन, शूटआउट ऐट लोखंडवाला/वडाला, डिपार्टमेंट, रिस्क, एनकाउंटर और शागिर्द. लेकिन इस फिल्म में एनकाउंटर, पुलिस और कोर्ट रूम का ड्रामा एक साथ देखने को मिलता है. लेकिन अगर आपको भारतीय न्याय प्रणाली पर गूढ़ और कड़ी टिप्पणी देखनी है तो आप तमहाणे की मराठी भाषा में कोर्ट जरूर देखें.
फिल्म निर्माण बड़ी परियोजना होती है और लाख कोशिशों के बावजूद कभी कभी कुछ चीजें छूट ही जाती हैं. जैसे वह अबला विधवा जिसको आठ महीने पहले अच्छी हालत में और शादी के बाद सुहागरात के सीन में दिखाया गया है.
जॉली एलएलबी पंजाब, यूपी, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों की भावुक जनता को एकदम कनेक्ट कर सकती है जहां कुछ लोगों को बेकसूर होते हुए कैद की सजा झेलनी पड़ी और हर तरफ से मायूसी मिलने के बाद उन्हें अदालत ने ही बचाया. फिर फेक एनकाउंटर (पहला महत्वपूर्ण केस जो शूटआउट ऐट वडाला में दिखा) के मामले अक्सर उठते ही रहते हैं- याद कीजिए वह कनॉट प्लेस वाला केस जिसमें पुलिसकर्मियों को बड़ी सजा हुई या फिर उत्तराखंड के जंगल में आरोपियों को मार गिराया गया था. यह ऐसा विषय है जिसमें पक्ष लेना बड़ा मुश्किल है. अगर आप बाटला हाउस मामले को देखें तो अभी तक वाद-विवाद खत्म नहीं हुआ है. पर यह जरूर है कि कोर्टों ने निर्देश देकर पुलिस पर जरूर अंकुश लगा रखा है और कोर्ट की इसी भूमिका की वजह से कानून और अदालत के इर्दगिर्द लाखों कचरे के बावजूद वह हीरे की तरह चमकता है. और अभी तो यह शुरुआत है क्योंकि अभी तो डीएनए फिंगरप्रिंट्स का पूरा उपयोग नहीं हुआ जिसकी वजह से अमेरिका ने कुछ व्यक्तियों को तीस-चालीस साल बाद निर्दोष घोषित किया. कुछ अरसे बाद भारत में भी यही होगा. भारत में पुलिस और कानून के बीच एक पतली लाल रेखा है जिसे लक्ष्मण रेखा कह सकते हैं. कई बार कानून का रक्षक भक्षक बन जाता है. अमेरिका में भी अश्वेत अपनी पुलिस के ऊपर इस तरह के आरोप लगाते हैं और वहां ‘ब्लैक लाइव्ज मैटर’ जैसा आंदोलन इसी के खिलाफ आवाज उठाता रहा है.
तमाम विश्लेषण के बाद यह अच्छी और दर्शकों को बांधने वाली फिल्म है. आप बोर होकर वापस नहीं आते और सौरभ शुक्ला को जज की भूमिका में फिर देखने का इंतजार करेंगे, शायद दो-चार साल बाद.
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