'लिपस्टिक अंडर माई बुर्क़ा' पर पहला ख्याल ना फिल्म की कास्ट का आता है ना निर्देशिक का और ना ही निर्माता का, सबसे पहले याद आते हैं 'संस्कारी सीबीएफसी चीफ' पहलाज निहलानी, जिन्होंने इस फिल्म पर सबसे ज्यादा ऐतराज़ जताया था और कहा था ये महिला प्रधान फिल्म है, जिसमें औरतों की फेंटसी दिखायी गई है'. इस फिल्म में औरतें किस तरह से मर्दों की उस सोच में जीवन गुज़ार रही हैं, जहां मर्द तय करता है कि औरतों को छूट दी जाए या नहीं. समाज में जो दिखेगा, वही कहानी की शक्ल इख़्तियार करेगा. ऐसे में लाज़मी है ऐसी फिल्मों से पहलाज निहलानी या वैसी सोच रखनेवाले तो डरेंगे ही.
'लिपस्टिक अंडर माई बुर्क़ा' छोटे शहर मे रहनेवाली 4 महिलाओं की कहानी है, जो उम्र के अलग-अलग पड़ाव पर हैं. मगर इन सब में एक बात समान है, अपने ख़्वाब को हक़ीक़त का जामा पहनाने की कोशिश. फिर चाहे वो बात इश्क़ की हो या जिस्म की. वो उस समाज में रह रही हैं जहां मर्द तय करता है कि कब उन्हें क्या करना है, फिर चाहे वो खाना पकाना हो या हम बिस्तर होना.
औरतों की अपनी मर्ज़ी की कोई बख़त नहीं है, लेकिन इन चारों में अलग-अलग किस्म की झिझक हो सकती है लेकिन वक्त के साथ अच्छाइयां और कमियों के साथ ये कैसे अपनी हिम्मत पर काबू पाती हैं, ये है फलसफा 'लिपस्टिक अंडर माई बुर्क़ा' का. सिर पर से पर्दा हटा के सपने देखने होंगे, लिप्स्टिक की लाली छिपाके लगाने की ज़रूरत नहीं है. बहुत सादगी और व्यंग के साथ निर्देशिक अलंकृता श्रीवास्तव ने अपनी बात रखी है.
अभिनय के डिपार्टमेंट में रत्ना पाठक शाह ने ग़जब की...
'लिपस्टिक अंडर माई बुर्क़ा' पर पहला ख्याल ना फिल्म की कास्ट का आता है ना निर्देशिक का और ना ही निर्माता का, सबसे पहले याद आते हैं 'संस्कारी सीबीएफसी चीफ' पहलाज निहलानी, जिन्होंने इस फिल्म पर सबसे ज्यादा ऐतराज़ जताया था और कहा था ये महिला प्रधान फिल्म है, जिसमें औरतों की फेंटसी दिखायी गई है'. इस फिल्म में औरतें किस तरह से मर्दों की उस सोच में जीवन गुज़ार रही हैं, जहां मर्द तय करता है कि औरतों को छूट दी जाए या नहीं. समाज में जो दिखेगा, वही कहानी की शक्ल इख़्तियार करेगा. ऐसे में लाज़मी है ऐसी फिल्मों से पहलाज निहलानी या वैसी सोच रखनेवाले तो डरेंगे ही.
'लिपस्टिक अंडर माई बुर्क़ा' छोटे शहर मे रहनेवाली 4 महिलाओं की कहानी है, जो उम्र के अलग-अलग पड़ाव पर हैं. मगर इन सब में एक बात समान है, अपने ख़्वाब को हक़ीक़त का जामा पहनाने की कोशिश. फिर चाहे वो बात इश्क़ की हो या जिस्म की. वो उस समाज में रह रही हैं जहां मर्द तय करता है कि कब उन्हें क्या करना है, फिर चाहे वो खाना पकाना हो या हम बिस्तर होना.
औरतों की अपनी मर्ज़ी की कोई बख़त नहीं है, लेकिन इन चारों में अलग-अलग किस्म की झिझक हो सकती है लेकिन वक्त के साथ अच्छाइयां और कमियों के साथ ये कैसे अपनी हिम्मत पर काबू पाती हैं, ये है फलसफा 'लिपस्टिक अंडर माई बुर्क़ा' का. सिर पर से पर्दा हटा के सपने देखने होंगे, लिप्स्टिक की लाली छिपाके लगाने की ज़रूरत नहीं है. बहुत सादगी और व्यंग के साथ निर्देशिक अलंकृता श्रीवास्तव ने अपनी बात रखी है.
अभिनय के डिपार्टमेंट में रत्ना पाठक शाह ने ग़जब की एक्टिंग की है, उनकी जगह कोई और होता तो शायद ये किरदार नकली बन सकता था, 55 साल की एक औरत जो एक जवान लड़के में अपनी उमंगों को ढूंढती है, उसकी आंखों में बेबाकी, कभी शैतानी तो कभी कभी हवस भी दिखाई देती है. ये रोल रत्ना पाठक शाह से बेहतर कोई नहीं कर सकता था.
कोंकणा सेन शर्मा ने तीन बच्चों की मां और एक ऐसे आदमी की पत्नी का किरदार निभाया है जिसे लगता है कि औरत का मतलब रात को सिर्फ बिस्तर पर लेटना है. कोकंना ने इस किरदार की मासूमियत, बेचैनी और आत्मविश्वास पर काबू पाना, जज़्बात के हर रंग को बख़ूबी निभाया है.
अहाना कुमरा ने भी ग़ज़ब की अदायगी का प्रमाण दिया है. एक लड़की जो अपने आशिक और अपने मंगेतर के बीच में फंसी है, लेकिन अपनी बात रखना जानती है, अहाना की आंखों में एक चुलबुलापन है जो इस किरदार के लिये बेहद ज़रूरी था.
प्लाबिता बुरथाकुर इन चार महिलाओं में सबसे छोटी दिखायी गयी हैं, कॉलेज की लड़की जिसके सपने रॉक स्टार बनने के हैं, लेकिन मां बाप चाहते हैं कि वो बुर्क़े की दहलीज़ पार ना करे, बुर्क़े में रहे और बुर्क़ा ही सिए. प्लाबिता ने अपने किरदार की गरिमा को बरकारार रखा है.
कोंकणा के शौहर के रोल में सुशांत सिंह और अहाना कुमार के बॉयफ़्रेंड के रोल में विक्रांत मैसी ने बुहत ईमानदारी से अभिनय किया है. अभिनय सभी का बेहद अच्छा है लेकिन रत्ना पाठक शाह के लिये ये कहना ज़रूरी है कि अगर सब उन्नीस हैं तो वो बीस हैं.
कहानी और स्क्रीनप्ले फिल्म की निर्देशक अलंकृता श्रिवास्तव का ही है, इंटरवल के बाद फिल्म की लेंथ कम हो सकती थी, ग़ज़ल धारीवाल के डायलॉग्स दमदार हैं. चारू श्री रॉय की एडिटिंग थोड़ी और टाइट हो सकती थी. अक्षय सिंह की सेनेमेटोग्रफी सच्ची है. फिल्म ऐसी है कि छुटपुट कमियों को आराम से नज़रअंदाज़ किया जा सकता है. 'लिपस्टिक अंडर माई बुरक़ा' अच्छी फिल्म तो है ही, साथ ही आज के समाज के लिए एक बहुत ज़रूरी फिल्म भी है.
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