आप एक माध्यम वर्गीय परिवार से हैं, गरीब हैं, बेरोजगारी का लंबा अनुभव है, तो यह फ़िल्म आपके लिए ही है. एक परिवार जिसका मुखिया छोटी सी सरकारी नौकरी से रिटायर होने वाला हो उस घर की उथल-पुथल को महसूस किया जाए तो 'सुई धागा' जैसी स्थिति बनती दिखेगी. अब यह तो सच है कि जीवन जीने के लिए किसी न किसी रोजगार में व्यक्ति लगा ही रहता है, लेकिन वो वहां कैसे सर्वाइव कर पा रहा है यह बड़ा सवाल होता है.
मध्यमवर्गीय परिवर खुद को 'सुई-धागा' से रिलेट कर पाएंगे
बात बात पर हम कहते भी हैं कि यार प्राइवेट नौकरी में कुत्ते जैसी हालत हो जाती है. ऐसे में मालिक द्वारा अपने कर्मचारी को दी गई मानसिक यातनाएं फ़िल्म बखूबी पेश करती है. दृश्यों में अतियथार्थवाद दिखता है पर उसे दर्शक सांकेतिक भाषा के रूप में ही समझें. निर्देशक शरत कटारिया ने फ़िल्म को दर्शकों के इर्द गिर्द ही समेटने की कोशिश की है जिससे दर्शक पूरी तरह जुड़ सकें. आप देखेंगे कि एक तबका हमारी फिल्मों से जो पूरी तरह नदारद है वह सुई धागा में स्टेज पर अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा रहा है. बस उस वर्ग को एक मौके की तलाश थी.
एक सिलाई मशीन की दुकान में काम करने वाला मौजी (वरुण धवन) और उसकी पत्नी ममता (अनुष्का शर्मा) मध्यम वर्गीय परिवार से आते हैं. दुकान का मालिक बंसल है और उसने मौजी की हालत कुत्ते जैसी कर रखी है जिसे एक शादी समारोह में देख उसकी पत्नी ममता को दुख होता है. इसी आत्मग्लानि से दोनों एक नए मार्ग की तलाश करते हैं. खुद की सिलाई की दुकान या व्यवसाय करना अब उनका सपना बन चुका है. जिसे हकीकत बनाना ही पूरी फिल्म का लक्ष्य है. समाज, परिवार आदि का सहयोग और कई-कई बार आपसी लोगों द्वारा ही इस राह में रोड़ा बन जाना कहानी को यथार्थ से जोड़ता है.
प्राइवेट नौकरी की जद्दोजहद को करीब से दिखाया है
मौजी के जीवन में ममता का साथ सुई में धागा की तरह दिखता है जिसमें मौजी आगे बढ़ते हैं तो ममता भी उनका बखूबी साथ देते हुए जीवन में रफू का काम पूरा करती है. सीधे तौर पर कहें तो फिल्म अपनी पटकथा की कसावट में सफल रही तो वहीं संगीत पक्ष धीमा रहा. कई जगहों पर जरूरी गीत संगीत रखे जा सकते थे पर नहीं सुनाई देते. एक्टिंग के मामले में वरुण ने अपनी अदाकारी से अनुष्का के लिए भी जगह छोड़ने का काम किया है. स्टार अभिनेता के साथ यही दिक्कत होती है कि वह अभिनेत्री का फुटेज खा जाता है लेकिन यहां ऐसा नही दिखा.
पिता के किरदार में रघुवीर यादव ने फ़िल्म को एक अलग सी पहचान दी है जैसे ही मौजी और ममता के संवाद खत्म होते रघुवीर का फेशियल एक्सप्रेशन देखने लायक होता. इस कड़ी में मां के किरदार में आभा परमार ने बराबर की हिस्सेदारी की है. पूरा का पूरा परिवार एक ऐसी परिस्थिति से दर्शकों को रूबरू कराते है जो उनके जीवन में एक बार जरूर आई होगी. बशर्ते वो मध्यम वर्गीय परिवार से हो.
फिल्म देखकर लोगों को कई बार लगेगा कि हमारे साथ हुआ है
सुई धागा एक सकारात्मक संदेश देने वाली फिल्म होने के साथ स्टीरियोटाइप तोड़ने वाली भी फ़िल्म बनी है. फिल्म में वह वर्ग प्रमुखता से है जो उपेक्षित है, परेशान है, गरीब है, बेरोजगार है, सामाजिक द्वंद से घिरा हुआ है. फ़िल्म के आखिरी दृश्यों में जिस तरह एक पान वाला, मोची ठेले वाला आदि रेमंड के फैशन कॉम्पटीशन में दिखते हैं वह वाकई चौंकाने वाला है, अमूमन हिंदी फिल्मों में ऐसे पात्र परिचय कराते हुए कम ही दिखाया जाता हैं.
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