फिल्म 'पद्मावती' को लेकर देशभर में प्रदर्शन हो रहे हैं. संजय लीला भंसाली की फिल्म पर आरोप लग रहे हैं कि यह फिल्म इतिहास को तोड़-मरोड़ कर पेश कर रही है. हालांकि इसके विपरीत भंसाली का दावा है कि फिल्म में ऐसा कुछ भी नहीं दिखाया गया है जिससे किसी की भावना आहत हो. बहरहाल अब किसके दावे में सच्चाई है यह कहना मुश्किल है. क्योंकि अभी तक फिल्म के ट्रेलर के अलावा दो गाने ही रिलीज़ किये गए हैं. फिल्म दिसंबर के महीने में रिलीज़ होनी है. ऐसे में फिल्म में क्या दिखाया गया है, यह अगले महीने ही पता चल पायेगा.
ऐसे में फिल्म के विरोध में जो कुछ भी किया जा रहा है उसे कतई तर्कसंगत नहीं कहा जा सकता. फिल्म के विरोध में जिस तरह की धमकी फिल्म के कलाकारों और फ़िल्मकार को दिए जा रहे हैं, वो कहीं से भी एक सभ्य समाज का आइना नहीं हो सकती. ख़ासकर जो लोग राजपूत होने का दावा कर इस तरह की बात कर रहें हैं, वो शायद खुद ही राजपूतों के इतिहास से अनजान हैं. वहीं कई लोग इस मुद्दे पर अपनी राजनैतिक रोटियां सेकने से भी बाज नहीं आ रहे हैं.
हालांकि फिल्म ने रिलीज़ से पहले फिल्मकारों को लेकर भी कुछ सवालों को जरूर जन्म दे दिया है. मसलन क्या फ़िल्मकार सिनेमैटिक लिबर्टी के नाम पर ऐतिहासिक चरित्रों के साथ छेड़छाड़ कर सकता है? क्या फिल्मकारों को ऐतिहासिक फिल्म बनाने में विशेष सावधानी नहीं बरतनी चाहिए?
इन सवालों के जवाब अलग अलग लोगों के लिए अलग अलग हो सकते हैं. वहीं पद्मावती के संदर्भ में यह बात कही जा रही है कि असल में पद्मावती नाम की कोई भी ऐतिहासिक चरित्र थी ही नहीं. बल्कि यह कवि मलिक मोहम्मद जायसी की रचना मात्र है. इस मुद्दे पर इतिहासकार भी बंटे हुए हैं. मगर सच्चाई जो भी हो, एक सच यह भी है कि राजस्थान के कई घरों में पद्मिनी या पद्मावती को देवी का दर्जा प्राप्त है. और ऐसे में यह कह कर इस बात को नकारा नहीं जा सकता इस चरित्र का इतिहास में कोई जिक्र ही नहीं है.
क्या फिल्मकारों का समाज के प्रति कोई कर्तव्य नहीं है?
पद्मावती के मुद्दे पर कई लोग यह तर्क भी देते नजर आ रहे हैं कि भारत की ऐतिहासिक विरासत इतनी कमजोर नहीं है जो एक फिल्म से उसे नुकसान हो जाये. बेशक भारत की ऐतिहासिक विरासत की नींव बहुत मजबूत है. मगर वर्तमान दौर में फ़िल्में हमारी बहुत बड़ी आबादी को प्रभावित करती हैं. और कहीं न कहीं यह आबादी फिल्मों के माध्यम से दिखाए जानी वाली बातों को सच भी मानती है.
इसके कई कारण हो सकते है. पहली- आजकल स्कूलों में इतिहास का सिलेबस ऐसा हो गया है जिसमें इतिहास को विशेष महत्व नहीं दिया गया है. और दूसरी- आज गूगल के ज़माने में कोई भी इतिहास के मोटी किताबों में अपना समय व्यर्थ नहीं करना चाहता. ऐसे में यह कहीं से तर्कसंगत नहीं है कि फिल्म में दिखाए गए गलत तथ्य का कोई असर नहीं पड़ता.
अभी हाल के दिनों में कई फिल्मों को लेकर विवाद हुए हैं. पद्मावती के साथ ही फिल्म 'एस दुर्गा' (या सेक्सी दुर्गा) भी सुर्ख़ियों में है. दरअसल सेक्सी दुर्गा जिसे 'एस दुर्गा' के नाम से पास कर दिया गया लेकिन उसके बाद इस फिल्म को गोवा में होने वाले इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में नहीं दिखाए जाने का फैसला किया गया. यही बात फिल्मकार को नागवार गुजरी और अब वो हाईकोर्ट की शरण में है. अब सेक्सी दुर्गा की कहानी कुछ भी हो, मगर क्या फ़िल्मकार इस बात से अनभिज्ञ थे कि इस देश में देवी दुर्गा की पूजा की जाती है? और जानबुझ कर फिल्म का इस तरह का नाम रखना लोगों को उकसाने सरीखा नहीं है?
ऐसा ही पद्मावती के मामले में भी कहा जा सकता है कि कोई फ़िल्मकार अपनी क्रिएटिविटी ही दिखाना चाहता है तो क्यों नहीं वो पूरी फिल्म काल्पनिक पात्रों के आस-पास ही बुनता है. इसी साल रिलीज़ हुई भारत के सबसे ज्यादा कमाई करने फिल्म 'बाहुबली', हमें काल्पनिक साम्राज्य महिष्मति ले जाती है. भंसाली भी अपनी फिल्म के लिए कुछ ऐसी ही कल्पना कर सकते थे. मगर भंसाली ने अपनी फिल्म के लिए इतिहास का ही सहारा लेना ज्यादा बेहतर समझा.
हमारी भारतीय संस्कृति का ताना-बाना कुछ इस प्रकार बुना गया है, जहां हमारे लिए कई ऐतिहासिक चरित्र भी हमारे जीवन का अभिन्न अंग हैं. ऐसे में केवल कुछ तर्कों से इन भावनाओं को कमतर नहीं किया जा सकता. इस स्थिति में अगर कोई भी फ़िल्मकार हमारे इन चरित्रों को परदे पर उकेरना चाहता है, उसे निश्चित रूप से इन बातों पर ध्यान देना चाहिए कि उसके फ़िल्मी चरित्र उन स्थापित चरित्रों से इतने इतर न हो कि विवाद ही खड़ा कर दे.
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