सिनेमा और समाज एक-दूसरे को प्रभावित करतेल रहे हैं. समाज में जो होता है, सिनेमा में कई बार उसे प्रदर्शित किया जाता है. सिनेमा समाज को नई राह दिखाता है, तो कई बार बड़े बदलाव लाने में सशक्त भूमिका निभाता है. इसलिए सिनेमा को समाज का दर्पण कहा जाता है. समाज में आज भी महिलाओं की क्या स्थिति है, ये किसी से छुपा नहीं है. खासकर पिछड़े, दलित, शोषित और वंचित वर्ग की महिलाओं का तो बुरा हाल है. आधुनिक युग में एक तरफ जहां महिलाएं पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रही हैं. जमीन से लेकर अंतरिक्ष तक उनका साथ दे रही हैं.
वहीं दूसरी तरफ उनके साथ घरेलू हिंसा, अन्याय, अत्याचार और बलात्कार जैसी जघन्य वारदात होती रहती हैं. उनका हक आज भी उनको नहीं मिला है. इनमें एक वर्ग वेश्याओं का भी है, जो मजबूरन अपने देह का व्यापार करके अपना पेट पाल रही हैं. अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देकर उनको समाज की मुख्या धारा में शामिल करना चाहती हैं. वेश्याओं की इन्हीं समस्याओं को संजय लीला भंसाली की फिल्म 'गंगूबाई काठियावाड़ी' में प्रमुखता से दिखाया गया है. मुंबई के रेडलाइट एरिया कमाठीपुरा की रहने वाली गंगूबाई के किरदार के जरिए उनकी मांगों को पुरजोर तरीके से उठाया गया है.
फिल्म में वेश्याओं की इन समस्याओं पर बात की गई है
कोई लड़की या महिला देह व्यापार के धंधे में क्यों आती है? यह बहुत ही संवेदनशील और गंभीर सवाल है. इसका हर जवाब के केंद्र में मजबूरी जरूर हो सकती है. जैसे कि फिल्म 'गंगूबाई काठियावाड़ी' की बात करते हैं. इसमें गुजरात के काठियावाड़ के बैरिस्टर हरजीवनदास की बेटी गंगा कमाठीपुरा की गंगूबाई जैसे बनती है, वैसे ही ज्यादातर लड़कियां वेश्यावृत्ति के धंधे...
सिनेमा और समाज एक-दूसरे को प्रभावित करतेल रहे हैं. समाज में जो होता है, सिनेमा में कई बार उसे प्रदर्शित किया जाता है. सिनेमा समाज को नई राह दिखाता है, तो कई बार बड़े बदलाव लाने में सशक्त भूमिका निभाता है. इसलिए सिनेमा को समाज का दर्पण कहा जाता है. समाज में आज भी महिलाओं की क्या स्थिति है, ये किसी से छुपा नहीं है. खासकर पिछड़े, दलित, शोषित और वंचित वर्ग की महिलाओं का तो बुरा हाल है. आधुनिक युग में एक तरफ जहां महिलाएं पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रही हैं. जमीन से लेकर अंतरिक्ष तक उनका साथ दे रही हैं.
वहीं दूसरी तरफ उनके साथ घरेलू हिंसा, अन्याय, अत्याचार और बलात्कार जैसी जघन्य वारदात होती रहती हैं. उनका हक आज भी उनको नहीं मिला है. इनमें एक वर्ग वेश्याओं का भी है, जो मजबूरन अपने देह का व्यापार करके अपना पेट पाल रही हैं. अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देकर उनको समाज की मुख्या धारा में शामिल करना चाहती हैं. वेश्याओं की इन्हीं समस्याओं को संजय लीला भंसाली की फिल्म 'गंगूबाई काठियावाड़ी' में प्रमुखता से दिखाया गया है. मुंबई के रेडलाइट एरिया कमाठीपुरा की रहने वाली गंगूबाई के किरदार के जरिए उनकी मांगों को पुरजोर तरीके से उठाया गया है.
फिल्म में वेश्याओं की इन समस्याओं पर बात की गई है
कोई लड़की या महिला देह व्यापार के धंधे में क्यों आती है? यह बहुत ही संवेदनशील और गंभीर सवाल है. इसका हर जवाब के केंद्र में मजबूरी जरूर हो सकती है. जैसे कि फिल्म 'गंगूबाई काठियावाड़ी' की बात करते हैं. इसमें गुजरात के काठियावाड़ के बैरिस्टर हरजीवनदास की बेटी गंगा कमाठीपुरा की गंगूबाई जैसे बनती है, वैसे ही ज्यादातर लड़कियां वेश्यावृत्ति के धंधे में उतार दी जाती हैं. गंगा फिल्मों में हिरोइन बनना चाहती है. उसका प्रेमी रमणिक उसे हिरोइन बनाने के सपने दिखाकर घर से भगाकर मुंबई लाता है. लेकिन रेड लाइट एरिया कमाठीपुरा में एक कोठे पर महज 1000 रुपए में बेचकर चला जाता है. कोठे की मालकिन शीला बाई लड़कियों पर बहुत जुल्म करती हैं. उनसे जबरन देह का धंधा कराती है. गंगा को भी देह व्यापार में उतार दिया जाता है, जिसके बाद वो गंगूबाई बन जाती है.
गंगा की तरह अपने देश में हजारों की संख्या में लड़कियां हर रोज जिस्मफरोशी के दलदल में धकेली जा रही हैं. उनको यहां तक पहुंचाने वाला उनका कोई न कोई अपना ही होता है. वो कभी उनके पति, प्रेमी या पिता के रूप में होता है, तो कभी कोई अपराधी. इसके साथ ही कुछ महिलाएं अपनी गरीबी और मजबूरी के चलते इस धंधे में उतर आती हैं. उनको अपना और अपने बच्चों का पेट भरना होता है. इसलिए उनको इससे आसान कोई रास्ता नहीं दिखता. कई बार तो कुछ लड़कियां अपने बड़े शौक पूरे करने के लिए भी इस धंधे में आ जाती हैं. लेकिन ज्यादातर संख्या मजबूर महिलाओं और लड़कियों की होती है. एक बार जो बदनाम गली में आ जाए, उसे वापस जाना मुश्किल होता है. इसके बाद उनकी जिंदगी नर्क बन जाती है. पहले नशे फिर बीमारी की शिकार ये महिलाएं जीते जी दुख भोगती रहती हैं.
फिल्म में महिला सशक्तिकरण और वेश्यावृत्ति कानून
फिल्म 'गंगूबाई काठियावाड़ी' में गंगूबाई के किरदार के जरिए महिला सशक्तिकरण की पुरजोर वकालत की गई है. इसके साथ ही वेश्यावृत्ति कानून की जरूरतों पर भी प्रकाश डाला गया है. इसमें दिखाया गया है कि एक लड़की को जब धोखे से कोठे पर बेच दिया जाता है, तो वो वहां अपनी किस्मत पर रोने की बजाए, कुछ नया और बड़ा करने की सोचती है. वो रेडलाइट एरिया में रहने वाली लड़कियों और औरतों की दुर्दशा दूर करने की कोशिश करती है. आंदोलन करती है. वहां पैदा होने वाले वेश्याओं के बच्चों की शिक्षा के लिए काम करती है. गैर कानून ढंग से लाई जाने वाली लड़कियों को वहां से बाहर निकाल कर उनके घर भेजती है. वेश्यावृत्ति कानून के लिए देश के प्रधानमंत्री तक से मिलती है. वो वेश्याओं की हक की लड़ाई को अपने जीवन का लक्ष्य बना लेती है. जब वो बोलती है, तो उसकी आवाज पूरा देश सुनता है.
वेश्यावृत्ति बहुत ही प्राचीन पेशा है. लेकिन भारतीय समाज में इसे कभी मान्यता नहीं मिल पाई है. इसे हमेशा से ही अनैतिक माना गया है. इसका मतलब पैसे के लिए ग्राहकों की आवश्यकताओं जैसे यौन संतुष्टि के लिए शरीर को बेचना है. इससे एक महिला को आजीविका कमाने का मौका मिलता है. प्राचीन काल से ज्ञात वेश्यावृत्ति का मतलब है कि आप किसी महिला के साथ यौन संबंध बनाने के बाद उसका भुगतान पैसों से करें. भारत में वेश्यावृत्ति नियंत्रण से संबंधित क़ानून हैं भी, तो वे ख़ासकर महिलाओं के अनैतिक व्यापार और गर्ल एक्ट-1956, अनैतिक व्यापार रोकथाम अधिनियम-1956, अनैतिक व्यापार (रोकथाम) अधिनियम-1956 और आईटीपीए अधिनियम-1956 से संबंधित हैं. अनैतिक व्यापार (रोकथाम) अधिनियम में संशोधन के लिए साल 2006 में तत्कालीन महिला एवं बाल विकास मंत्री रेणुका चौधरी ने संसद में एक विधेयक पेश किया था. हालांकि, देश में अभी वेश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता नहीं मिली है. सुप्रीम कोर्ट ने भी सरकार से कानून बनाने की बात कही है.
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