57 साल के शाह रुख खान बुढ़ापे में रोमांटिक एक्शन स्टार बने रहने के लिए अथक प्रयास कर रहे हैं. पठान इन्हीं कोशिशों में एक जोरदार कड़ी है. पठान के लिए शाह रुख खान के 8 पैक एब्स की हर तरफ चर्चा है. इसी के आधार पर फिल्म मीडिया कवर करने वाले भाट पत्रकार कह रहे कि उन्होंने कितनी मेहनत की. शाह रुख चेन्नई एक्सप्रेस के बाद से ही हर फिल्म के साथ कमबैक के प्रयास कर रहे बावजूद कि दर्शक उन्हें बार-बार खारिज कर रहे हैं. पठान से शाह रुख की कंकालनुमा फोटो आने के बाद इधर रितिक रोशन की एक दूसरी कंकालनुमा तस्वीर भी चर्चा में है. जिस तरह वो अपने कपड़े का झरोखा उठाकर सुंदर देह की झांकी दर्शन दे रहे- अब क्या ही कहें.
ये वही रितिक हैं, बिल्कुल हाल में जिनकी विक्रम वेदा को दर्शकों ने टिकट खिड़की के अरब सागर में पूरी तरह डुबो दिया था. सुपरस्टार के रूप में दोनों हैं तो अभिनेता लेकिन समझ में नहीं आ रहा कि देह की उनकी झांकी में कौन सा अभिनय का टपक रहा शहद, भाट पत्रकारों को नजर आ गया. बावजूद कि भाट किस्म के अंग्रेजी पत्रकारों ने ऐसे महान अभिनेताओं की मेहनत के लिए दो बड़े और तगड़े शब्द ईजाद किए हैं- हैंडसम हंक और फीटनेस फ्रीक.
मैं दोनों अभिनेताओं की देहयष्टि पर कोई निजी किस्म की टिप्पणी नहीं करना चाहता, इच्छा नहीं है. लेकिन किसी अभिनेता के गुण की कसौटी अगर यही है तो हमारे देश के हर गांव, गली, मोहल्ले में हैंडसम हंक थोक के भाव हैं. फिर भारत को किसानों का देश कहने की बजाए आप चाहें तो सुपरस्टारों और अभिनेताओं का भी देश कह सकते हैं. करण जौहरों और आदित्य चोपड़ाओं को चाहिए कि उन्हें साइन कर लें. 10-20 लाख में मिल जाएंगे. और भी सस्ते. 2-3 लाख में भी काम करने लायक मिल जाएंगे. अगर फिल्म के निवेश में काला धन नहीं है तो निश्चित ही निर्माताओं के बहुत सारे पैसे बच जाएंगे.
रितिक रोशन और शाहरुख खान
खैर. पहले पठान में शाह रुख और अब रितिक की 'संथारा' तस्वीरों को देखकर मैंने भी यह मान लिया कि कैसे भी और किसी भी तरह नियंत्रण (बॉलीवुड में बतौर हीरो) बनाए रखने की यह सबसे घटिया बीमारी है. संथारा जैन धर्म में देह त्यागने की बहुत ही पवित्र परंपरा है जिसमें ऋषि मुनि मृत्यु के लिए खुद को एक कमरे में बंद कर देते हैं और खाना-पीना त्याग देते हैं. माफी चाहूंगा कि बॉलीवुड पर एक बेहद घटिया और घिसी पिटी बहस के लिए संथारा जैसे महान और पवित्र शब्द का इस्तेमाल किया. बावजूद कि ये दोनों जुगाडू अभिनेता भर हैं. कोई जैन ऋषि नहीं. इसलिए फेफड़े में सांस भरती रहे- बीच-बीच में थोड़ा-थोड़ा खाते रहते हैं.
ये दोनों जितनी फीस लेते हैं, उतने में एक गोल मटोल ऋषभ शेट्टी पांच कांतारा बना सकते हैं. और कांतारा बिना शोर शराबे के बड़े आराम 450 करोड़ रुपये कमा लेती है. ऋषभ शेट्टियों को हीरो बने रहने के किए संथारा व्रत की जरूरत नहीं पड़ती. जमकर खाते पीते हैं. पेट निकल आया तो ठीक, नहीं निकला- तो भी ठीक. चिल करते हैं. मन हुआ तो हवाई चप्पल, लुंगी और बनियान में भी घूमते हैं. क्या ऋषभ शेट्टी और जूनियर एनटीआर सुंदर नहीं हैं? दोष हमारा आपका है. हम आप किसी की छिली हुई छाती और नंगी देह को सुंदर मान लेते हैं और कोई लुंगी बनियान में अधनंगा दिख जाए तो जाहिल-पिछड़ा हुआ कह देते हैं. बावजूद मैंने सिर्फ दो महोदयों का नाम भर लिया. बॉलीवुड ऐसे महोदयों से भरा पड़ा है.
इन महोदयों की फ़िल्में फ्लॉप हो जाती हैं. हिट के लिए भी इन्हें किसी 'आनंद कुमार' की ही कहानी या किसी विकास बहल और गायत्री पुष्कर को निर्देशक के रूप में खरीदना पड़ता है. बढ़िया लेखक को खरीदना पड़ता है. कैमरामैन को खरीदना पड़ता है. मेकपमैन को खरीदना पड़ता है. किसी गायक को खरीदना पड़ता है. और ये उसी खरीदे गए टैलेंट से सुपरस्टार बन जाते हैं. चूंकि इनके या इनके निर्माताओं के पास पैसों की कमी तो है नहीं- अलबत्ता किसी को भी खरीद सकते हैं. किशोर कुमार की पीढ़ी के बाद आए तमाम गायकों का अता-पता मालूम है आपको?
आपके ज्यादातर गायक, कहानीकार, मेकपमैन, म्यूजिशियन और निर्देशक कहां गए? उनकी क्षमता कहां गई? उन्हें उनके काम का वाजिब हक मिला क्या? पता नहीं कैसे अरिजित सिंह बच गया, वह भी सलमान खान से पंगा लेकर? आजकल सुनते हैं कि हर निर्माता कहानी लिखता है. हर एक्टर निर्देशक बन रहा है. अब यह सोचने वाली बात है कि करण जौहर और आदित्य चोपड़ा को चेक पर साइन करने के लिए भी वक्त नहीं मिलता होगा. वह काम भी लीगली उन्होंने किसी और को ही सौंपा होगा. बावजूद उनके पास फिल्मों की कहानियां लिखने का समय है. वैसे मुझे नहीं लगता कि उनके पास इतना समय होगा. बावजूद है तो यह कम बढ़िया बात है. बेशक अनुराग कश्यप के पास अब भी समय होगा. वह लिख सकते हैं. क्या खरीदे गए टैलेंट इसलिए गायब हो जाते हैं कि बॉलीवुड की डर्बी में उन्हीं घोड़ों को रेस जिताया जाता है जिन्हें बॉलीवुड चाहता है. और खरीदे गए टैलेंट को इन्हीं घोड़ों को अपराजेय बनाने के लिए काम करना पड़ता है.
घोड़े में दम नहीं है, वह बूढ़ा हो चुका है, लंगड़ा है लूला है- इस बात का कोई फर्क नहीं पड़ता. फर्क सिर्फ इस बात का पड़ता है कि रेस में सिर्फ इन्हीं घोड़ों का विकल्प है. अब खरीदे गए टैलेंट की भी अपनी सीमा है. वह तो परदे पर दिखता नहीं- और किसी में ठूंसकर एक्टिंग की प्रतिभा भी नहीं भर सकता. अगर उसमें नहीं है तो. वह एक दो बार ठेल ठालकर अपनी प्रतिभा से उन्हें शीर्ष पर पहुंचा सकता है, बनाए रख सकता है. कुछ अच्छी फ़िल्में दे सकता है. लेकिन सवाल है कब तक? एक फिल्म फ्लॉप हुई, तो ये बाजार में दूसरा ट्रेंडिंग टैलेंट खरीदने निकल पड़ते हैं और ज्यादातर पुरानी खरीदी गई प्रतिभाएं कचरे के ढेर में नजर आती हैं. भला हो ओटीटी और डिजिटल स्पेस का. उन्हें कचरे के ढेर के अलावा भी अब विकल्प मिलने लगे हैं.
बॉलीवुड के ये महानुभाव फ्लॉप देते हैं. हवा खाकर जिंदा रहते हैं और कसरत करते हैं. प्लास्टिक सर्जरी से नाक-कान दुरुस्त करवाते रहते हैं और तकनीक के सहारे बुढ़ापा तक छुपा लेते हैं- वह भी निरर्थक. रजनीकांत-अमिताभ बच्चन होते तो समझ भी आता. मोहनलाल बनने के लिए तो दूसरा जन्म ही लेना पड़ेगा. मोहनलाल बुढ़ापे के बावजूद तोंद और लूंगी में गदर काटे पड़े हैं. आप हीरो कहते हैं. मुझे लगता है ये बीमार हैं. बहुत ज्यादा बीमार हैं ये. इनकी बीमारी किसी भी तरह अपना नियंत्रण बनाए रखने की है. ये सेन्स ऑफ़ इनटाइटलमेंट की बीमारी है. जो समाज, सिनेमा, कारोबार- लगभग हर क्षेत्रों में हैं. यानी जो हैं सो हमीं हैं और हमीं को नेतृत्व करने का हक़ है. हमारे अलावा कोई और माई बाप नहीं बन सकता है.
राजनीति में भी एक को आजकल, मय टीम यात्रा में भी देखा जा सकता है. कश्मीर से यूपी-बिहार तमिलनाडु तक ऐसे ही कुछ घर में अंगीठी ताप रहे हैं और मौका ताड़ रहे हैं. वे भी वर्चस्व पाने के लिए एट पैक एब्स स्टाइल में हरकतें करते नजर आ जाएंगे. देख लीजिए.
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