साल 1993 में राजकुमार संतोषी के निर्देशन में एक क्राइम ड्रामा आई थी- दामिनी. कहानी शुतनु गुप्ता ने लिखी थी. यह अपने जमाने की बेहद कामयाब फिल्म है. और इसे नारीवादी फिल्म भी करार दिया जाता है. इसके गाने और संवाद आजतक लोगों की जुबान पर चढ़े दिखते हैं. हालांकि फिल्म की रिलिज और फिल्मों से दूर होने के ढाई दशक बाद दामिनी की ही भूमिका निभाने वाली अभिनेत्री मीनाक्षी शेषाद्री की एक टिप्पणी ने फिल्म के नारीवादी दृष्टिकोण पर सवाल उठा दिया है. उनकी टिप्पणी सिर्फ दामिनी नहीं बल्कि बॉलीवुड के खोखले स्त्रीवादी नजरिए पर भी तीखा तंज कसती है. दामिनी को लेकर उन्होंने कहा- "मुझे एक शिकायत है, दामिनी फिल्म के लेखक और निर्देशक से. दामिनी, था मेरा नाम. लेकिन संवाद कौन से (किसके) याद रह गए? सनी पाजी (सनी देओल) के. वो संवाद मुझे दे देते तो मैं नहीं कर सकती थी (क्या)?"
आज भी दामिनी का ख्याल आता है तो सबसे पहले सनी देओल का किरदार, फिल्म के गाने और फिल्म में बोले गए सनी के धांसू संवाद ही याद आते हैं. दामिनी में उनके तीन संवाद अब तक ना जाने कितनी बार और कहां-कहां, सार्वजनिक रूप से दोहराए ही जाते रहते हैं. तीन अहम संवाद नीचे हैं.
1) जब ये ढाई किलो का हाथ किसी पर पड़ता है ना... तो आदमी उठता नहीं... उठ जाता है.
2) चिल्लाओ मत, नहीं तो ये केस यहीं रफा-दफा कर दूंगा, ना तारीख...ना सुनवाई, सीधा इंसाफ वो भी ताबड़तोड़.
3) तारीख पर तारीख. तारीख पर तारीख. तारीख पर तारीख, तारीख पर तारीख मिलती रही है. लेकिन इंसाफ नहीं मिला माय लॉड, इंसाफ नहीं मिला. मिली है तो सिर्फ ये तारीख.
दामिनी में सनी देओल की छोटी भूमिका है. उन्होंने गोविंद श्रीवास्तव नाम के एक शराबी,...
साल 1993 में राजकुमार संतोषी के निर्देशन में एक क्राइम ड्रामा आई थी- दामिनी. कहानी शुतनु गुप्ता ने लिखी थी. यह अपने जमाने की बेहद कामयाब फिल्म है. और इसे नारीवादी फिल्म भी करार दिया जाता है. इसके गाने और संवाद आजतक लोगों की जुबान पर चढ़े दिखते हैं. हालांकि फिल्म की रिलिज और फिल्मों से दूर होने के ढाई दशक बाद दामिनी की ही भूमिका निभाने वाली अभिनेत्री मीनाक्षी शेषाद्री की एक टिप्पणी ने फिल्म के नारीवादी दृष्टिकोण पर सवाल उठा दिया है. उनकी टिप्पणी सिर्फ दामिनी नहीं बल्कि बॉलीवुड के खोखले स्त्रीवादी नजरिए पर भी तीखा तंज कसती है. दामिनी को लेकर उन्होंने कहा- "मुझे एक शिकायत है, दामिनी फिल्म के लेखक और निर्देशक से. दामिनी, था मेरा नाम. लेकिन संवाद कौन से (किसके) याद रह गए? सनी पाजी (सनी देओल) के. वो संवाद मुझे दे देते तो मैं नहीं कर सकती थी (क्या)?"
आज भी दामिनी का ख्याल आता है तो सबसे पहले सनी देओल का किरदार, फिल्म के गाने और फिल्म में बोले गए सनी के धांसू संवाद ही याद आते हैं. दामिनी में उनके तीन संवाद अब तक ना जाने कितनी बार और कहां-कहां, सार्वजनिक रूप से दोहराए ही जाते रहते हैं. तीन अहम संवाद नीचे हैं.
1) जब ये ढाई किलो का हाथ किसी पर पड़ता है ना... तो आदमी उठता नहीं... उठ जाता है.
2) चिल्लाओ मत, नहीं तो ये केस यहीं रफा-दफा कर दूंगा, ना तारीख...ना सुनवाई, सीधा इंसाफ वो भी ताबड़तोड़.
3) तारीख पर तारीख. तारीख पर तारीख. तारीख पर तारीख, तारीख पर तारीख मिलती रही है. लेकिन इंसाफ नहीं मिला माय लॉड, इंसाफ नहीं मिला. मिली है तो सिर्फ ये तारीख.
दामिनी में सनी देओल की छोटी भूमिका है. उन्होंने गोविंद श्रीवास्तव नाम के एक शराबी, लेकिन बेख़ौफ़ वकील की भूमिका निभाई है. हालांकि वह वकालत के पेशे में कोई बहुत बड़ा नाम नहीं हैं. मगर ताकतवर कारोबारी परिवार के खिलाफ जब अदालत में यौन उत्पीड़न की शिकार एक घरेलू नौकरानी का केस लड़ने को कोई वकील तैयार नहीं होता तो उस मामले में सनी आगे आते हैं. एक नारीवादी फिल्म में सनी देओल के किरदार और उनके संवादों को कुछ यूं गढ़ा गया कि इसने दर्शकों को लाजवाब कर दिया. अभी भी आप देखेंगे तो वाह वाह करने से खुद को नहीं रोक पाएंगे. दामिनी का जीवंत किरदार निभाने वाली मीनाक्षी की सारी मेहनत और खूबियों पर एक शराबी पुरुष वकील की महानता हावी हो गई. यौन विक्टिम को न्याय दिलाने के लिए एक ताकतवर मर्दवादी, वकील भारी पड़ जाता है. मीनाक्षी की शिकायत संभवत: ऊपर के तीसरे संवाद को लेकर होगी. बावजूद कि तीनों संवाद आइकॉनिक हैं, मगर तीसरा संवाद ऐसा था जिसे दामिनी के हिस्से डाला जा सकता था.
बावजूद कि मामला एक संवाद भर को इधर-उधर करने का नहीं था. गोविंद श्रीवास्तव की भूमिका को भी अस्वाभाविक महानता से बाहर निकालने की पर्याप्त जरूरत थी.
जब आप नारीवादी दृष्टिकोण के नाम पर फिल्म बनाकर बेंच रहे थे, तो मेकर्स की ऐतिहासिक जिम्मेदारी थी कि कम से कम दामिनी के रूप में एक महिला के संघर्ष को किसी पुरुष की महानता के मजबूत कंधों पर तो नहीं ढोना था. आपने दामिनी देखी होगी तो इसमें सनी की एंट्री से पहले तक दामिनी एक ताकतवर विद्रोहिणी नजर आती है. वह अपने सास-ससुर, देवर, समाज के साथ यहां तक कि दिलों जान से चाहने वाले पति तक के आगे नहीं झुकती और सत्य/न्याय के पक्ष में खड़े रहने के लिए कोई भी कीमत चुकाने को तैयार है. मगर कहानी में जैसे ही सनी की एंट्री होती है उसके बाद वह विवश, असहाय, अबला स्त्री के रूप में और एक पुरुष की कृपापात्र बनकर रह जाती है.
मजेदार यह भी है कि सनी देओल के शराबी वकील के किरदार को इस हद तक सिनेमैटिक जादू से लबालब कर दिया गया कि वह विक्टिम, विक्टिम के पक्ष में खड़ी होने वाली ताकतवर कारोबारी परिवार की पीड़ित बहू, समाज, प्रशासन, क़ानून व्यवस्था और अदालत के सामने बहुत बड़ा क्रांतिकारी बनकर उभरता है. वह जेंडर और क्लास सेंसिविटी पर एक जरूरी मुद्दे को लीलकर ख़त्म कर देता है जो फिल्म का मूल विषय और आधार था. नहीं मालूम कि जब फिल्म रिलिज हुई थी तो समीक्षकों ने इसे किस तरह देखा था. मैं बहुत छोटा था. रिलिज की स्मृतियां नहीं हैं. मेरी भौगोलिक (गंवई) पृष्ठभूमि की वजह से तब यह संभव भी नहीं था. हम जैसे लोगों के लिए नौटंकी भी तब दुर्लभ चीज थी, जबकि यह तो संपन्न समाज का सिनेमा था. मुझे दामिनी बहुत साल बाद देखने को मिली. इसकी मेकिंग बहुत प्रभावशाली है और फिल्म की एक-एक चीज अच्छे से याद है. लेकिन जिस चीज ने सबसे ज्यादा क्लिक किया या उसे दिल दिमाग ने सहेज लिया- वह सनी देओल और उनकी एंट्री के बाद की ही चीजें हैं. फिलहाल लिखने तक दामिनी पर केंद्रित समीक्षा या किसी विश्लेषण पर भी कभी मेरी नजर नहीं गई. और इसकी जरूरत भी नहीं महसूस हुई.
नारीवादी दृष्टिकोण पर खून भरी मांग की लिखावट दामिनी से लाख गुना बेहतर है
मीनाक्षी की शिकायत गलत नहीं है. हालांकि उन्होंने बॉलीवुड की लैंगिक असमानता को लेकर एक नारीवादी फिल्म के ही बहाने और प्रकाश तो नहीं डाला. बावजूद फिल्म इंडस्ट्री का हिस्सा रहते हुए उन्होंने जो अनुभव किया- बिना ज्यादा कहे, बहुत कुछ कह डाला. यह फिल्म जिस दौर में आई थी- बॉलीवुड की पॉपुलर धारा में पुरुष सितारों का दबदबा था. और मसाला फिल्मों में अभिनेत्रियों का इस्तेमाल असल में पुरुष दर्शकों की यौन कुंठा को टिकट खिड़की पर भुनाने के लिए ही किया जाता था. उस जमाने में नारी देह, पुरुष दर्शकों के लिए एक बहुत बड़ा आकर्षण था और सिनेमाघर में फ़िल्में उसका एकमात्र जरिया. नारीवाद के नाम पर बनाई गई तमाम फिल्मो में दिखता भी है कि कैसे एक महिला के संघर्ष पर, पुरुष की महानता हिमालय की तरह हावी नजर आती है. जबकि बॉलीवुड में एक और मसालेदार नारीवादी फिल्म- 'खून भरी मांग' दिखती है. राकेश रोशन के निर्देशन में यह दामिनी से दस साल पहले आई थी. मगर इसकी लिखावट बॉलीवुड की तमाम नारीवादी फिल्मों से हजार गुना बेहतर नजर आती है.
मोहन कौल और रवि कपूर की लिखावट में रेखा ने एक विक्टिम का किरदार जिया है. जो अपने दूसरे पति (कबीर बेदी ने किरदार निभाया था) के धोखे का शिकार होती हैं. उनकी हत्या की कोशिश होती है. दूसरा पति समझता है कि वे मर गई हैं, मगर वे किसी तरह बच जाती हैं. फिर बदला लेने के लिए खुद को तैयार करती है. यहां भी एक स्त्री का पुरुष मददगार (शत्रुघ्न सिन्हा) खड़ा दिखता है. बावजूद खून भरी मांग की लिखावट ने उसे रेखा से महान नहीं होने दिया.और विषय केंद्रित एक स्वाभाविक लिखावट का हासिल यह है कि खून भरी मांग रेखा की वजह से याद रह जाती है. यह फिल्म भी सुपरहिट थी और इसके गाने आज भी सुने जाते हैं. दो-चार और फ़िल्में हैं. मदर इंडिया भी है. मगर उसकी जमीन, कैनवास और देशकाल भिन्न है, और वह कई 'वाद' समेटे है.
दो चार फिल्मों को छोड़ दिया जाए तो बॉलीवुड का रवैया पुरुषवादी ही रहा है. दामिनी जैसी कथित नारीवादी फिल्मों में भी वह एक पुरुष के रहमों-करम पर ही दिखती है. आम फिल्मों की बात ही क्या की जाए. समय के साथ यह भले कमजोर हुआ है. लेकिन तमाम चीजें अभी भी यथावत हैं. उन्हें देखा और महसूस किया जा सकता है. सैलरी के स्तर पर भी भारी असमानता है. अभी कुछ साल पहले तनुश्री दत्ता के खुलासों के बाद बॉलीवुड में महिलाओं को लेकर बड़े बड़े नामचीन चेहरों का क्या रवैया रहा है- उसे समूचे देश ने देखा.
दामिनी में मीनाक्षी शेषाद्री कारोबारी परिवार के एक सभ्य सुशील लड़के ऋषि कपूर से प्रेम विवाह करती हैं. मीनाक्षी का देवर घरेलू नौकरानी का यौन उत्पीड़न करता है. पूरा परिवार अपराधी बेटे को बचाने का तिकड़म रचता है और अपनी हैसियत का इस्तेमाल करता है. लेकिन दामिनी न्याय के पक्ष में खड़ी होती हैं और विद्रोह कर देती हैं. उनका पति भी उनकी मदद के लिए आगे नहीं आता. फिल्म में महिला का संघर्ष केंद्र में होने के बावजूद आकर्षण सनी देओल चुरा ले जाते हैं. फिल्म में मीनाक्षी, सनी ऋषि के अलावा कुलभूषण खरबंदा, अमरीश पुरी, परेश रावल, टीनू आनंद ने अहम भूमिकाएं निभाई हैं.आमिर खान भी मेहमान भूमिका में हैं.
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