जातिवाद देश की वह कड़वी सच्चाई है जो ख़त्म होने का नाम नहीं ले रही. नासूर सभी धर्मों में है. वह चाहे हिंदू हों, मुसलमान, सिख या फिर ईसाई. मगर दुर्भाग्य यह है कि जाति की सभी आधुनिक और सभ्य बहसें हिंदुओं पर ही ठहर जाती हैं. ईसाइयत और इस्लाम में जाति की बात का जिक्र नहीं. मगर भारतीय उपमहाद्वीप में संबंधित धर्मों में भी जातीय संरचना गहरी है. दुर्भाग्य यह है कि कमियों पर कभी बात नहीं होती. हैदराबाद में एक दलित युवक की सिर्फ इस वजह से सरेआम वीभत्स हत्या कर होती है क्योंकि उसकी पत्नी उच्च जाति के मुस्लिम परिवार से थी और घरवालों को रिश्ता मंजूर नहीं था. उस स्थिति में भी कि लड़का मुसलमान बनकर वह सबकुछ त्यागने पर राजी था जो रिश्ते में आड़े आ रही थीं.
घटना हैरान करने वाली नहीं है. दलित समुदाय इस तरह की चीजों को भोगने पर विवश है. यह भारत की सच्चाई है. आमतौर पर ऐसी घटनाएं देश के तमाम पिछड़े इलाकों में- जहां जाति की जड़ें ज्यादा हरी हैं, वहीं नजर आया करती हैं. ज्यादा हैरान करने वाली बात तो यह है कि हैदराबाद जैसे बड़े महानगर में भी जाति किसी के हत्या की वजह है. मुंबई हैदराबाद और बेंगलुरु जैसे शहरों में भी अगर इस तरह का मामला निकलने लगे तो क्या यह बहुत परेशान होने वाली बात नहीं है? हम किस तरफ बढ़ रहे हैं. खैर, राष्ट्रीय स्तर पर हैदराबाद की खूंखार जातिवादी घटना के बहस में आने से पहले तमिलनाडु में जय भीम पर सैदापेट कोर्ट का निर्देश भी ध्यान देने लायक है. यह संवेदनशील मामलों में सलेक्टिव रवैया अपनाने वालों के अपराध को रेखांकित करने के लिए जरूरी है.
अब परंपरागत व्याख्या से बाहर निकलने का समय
असल में सैदापेट कोर्ट ने चेन्नई पुलिस को निर्देश दिया है कि वह फिल्म के निर्देशक टीजे ज्ञानवेल के खिलाफ एफआईआर...
जातिवाद देश की वह कड़वी सच्चाई है जो ख़त्म होने का नाम नहीं ले रही. नासूर सभी धर्मों में है. वह चाहे हिंदू हों, मुसलमान, सिख या फिर ईसाई. मगर दुर्भाग्य यह है कि जाति की सभी आधुनिक और सभ्य बहसें हिंदुओं पर ही ठहर जाती हैं. ईसाइयत और इस्लाम में जाति की बात का जिक्र नहीं. मगर भारतीय उपमहाद्वीप में संबंधित धर्मों में भी जातीय संरचना गहरी है. दुर्भाग्य यह है कि कमियों पर कभी बात नहीं होती. हैदराबाद में एक दलित युवक की सिर्फ इस वजह से सरेआम वीभत्स हत्या कर होती है क्योंकि उसकी पत्नी उच्च जाति के मुस्लिम परिवार से थी और घरवालों को रिश्ता मंजूर नहीं था. उस स्थिति में भी कि लड़का मुसलमान बनकर वह सबकुछ त्यागने पर राजी था जो रिश्ते में आड़े आ रही थीं.
घटना हैरान करने वाली नहीं है. दलित समुदाय इस तरह की चीजों को भोगने पर विवश है. यह भारत की सच्चाई है. आमतौर पर ऐसी घटनाएं देश के तमाम पिछड़े इलाकों में- जहां जाति की जड़ें ज्यादा हरी हैं, वहीं नजर आया करती हैं. ज्यादा हैरान करने वाली बात तो यह है कि हैदराबाद जैसे बड़े महानगर में भी जाति किसी के हत्या की वजह है. मुंबई हैदराबाद और बेंगलुरु जैसे शहरों में भी अगर इस तरह का मामला निकलने लगे तो क्या यह बहुत परेशान होने वाली बात नहीं है? हम किस तरफ बढ़ रहे हैं. खैर, राष्ट्रीय स्तर पर हैदराबाद की खूंखार जातिवादी घटना के बहस में आने से पहले तमिलनाडु में जय भीम पर सैदापेट कोर्ट का निर्देश भी ध्यान देने लायक है. यह संवेदनशील मामलों में सलेक्टिव रवैया अपनाने वालों के अपराध को रेखांकित करने के लिए जरूरी है.
अब परंपरागत व्याख्या से बाहर निकलने का समय
असल में सैदापेट कोर्ट ने चेन्नई पुलिस को निर्देश दिया है कि वह फिल्म के निर्देशक टीजे ज्ञानवेल के खिलाफ एफआईआर दर्ज करे. जय भीम को लेकर रुद्र वन्नियार सेना को लंबे वक्त से आपत्ति है और फिल्म की रिलीज के बाद से ही कानूनी लड़ाई में है. आरोप है कि जय भीम के जरिए वन्नियार समुदाय को बदनाम किया गया. वन्नियार समूह ने सुरिया, सुरिया की पत्नी और निर्माता ज्योतिका और टीजे के खिलाफ शिकायत दर्ज करवाई थी. बड़े हर्जाने की भी मांग की गई है. समूह को फिल्म के कई दृश्यों पर आपत्ति है.
जय भीम पिछले साल अमेजन प्राइम वीडियो पर रिलीज हुई थी. सच्ची घटनाओं पर आधारित फिल्म की कहानी ने दुनियाभर का ध्यान खींचा था. इसके जरिए भारतीय समाज व्यवस्था में जातिवाद के वीभत्स चेहरे को सामने रखा गया. फिल्म का कथानक तमिलनाडु के हाशिए के समाज से आने वाले "इरुलर" लोगों के अनंत दुख पर है. इसमें दिखाया गया है कि कैसे एक रसूखदार परिवार और भ्रष्ट पुलिसवालों के कॉकस ने आदिवासी महिला सेंगनी के पति को झूठे केस में फंसाकर मार डाला. हालांकि फिल्म में जातिवाद पर प्रहार तो दिखता है मगर वह उस अर्थ में बहुत भोथरा और फर्जी नजर आता है जिसमें असल जिम्मेदारों को बचाने की कोशिश हुई है. यह जातीय उत्पीड़न की परंपरागत व्याख्या में सिमटकर रह गई. यानी निचली जातियों का उत्पीड़न सिर्फ अगड़ी जाति के लोग ही करते हैं. सिनेमा में मनोरंजन के लिए कहानी को दिखाने की आजादी दी गई है. इसका मतलब फिल्म के सही-सही मकसद को दिखाना है. ना कि किसी समुदाय विशेष के खिलाफ घृणा से प्रेरित होकर व्यापक रूप से नफ़रत फैलाना.
तथ्यों से छेड़छाड़ फिर ईमानदारी कैसे?
जय भीम में कई तथ्यों को मनमाने तरीके से बदला गया है. आरोप हैं कि पुलिसवालों के सरनेम तक बदले गए. सामाजिक धार्मिक प्रतीकों के जरिए उत्पीड़कों की छवि गढ़ी गई. वन्नियार को इसी पर आपत्ति थी. जबकि दावा किया गया कि सेंगनी के मामले में उत्पीड़क वहां की ताकतवर पिछड़ी जाति और दूसरे धर्म के लोग भी थे. सेंगनी के साथ जब यह हादसा हुआ था उस वक्त तमिलनाडु में पक्ष और विपक्ष में द्रविड़ राजनीति ही मौजूद थी. वह राजनीति जो पेरियार के वैचारिक आधार से खादपानी पाती है और ब्राह्मणवाद को बुरी तरह खारिज करने के लिए जग प्रसिद्द है. क्या यह ठीक नहीं होता कि तत्कालीन राजनीति से भी सवाल किया जाता. ताकि भविष्य में किसी और सेंगनी पर फिल्म बनाने की जरूरत नहीं पड़ती. और वह राजनीति उस वक्त ईमानदार होती तो शायद जयभीम की कहानी पर फिल्म भी बनाने की जरूरत नहीं पड़ती.
बहुत चालाकी से पूरी फिल्म से तमिलनाडु के तत्कालीन राजनीतिक संदर्भों का इस्तेमाल किया गया है जबकि जय भीम जैसी फिल्मों में देशकाल जरूरी तत्व था. यह सोचने वाली बात है कि जो दर्शक समुदाय सच्ची घटना के बारे में जानकारी नहीं रखता वह जय भीम देखने के बाद संदर्भों के सहारे किस तरह की राय बनाएगा? आखिर क्यों ना यह माना जाए कि जातिक्रम में सवर्णों के बाद दलितों पर अन्य जातीय समूह की तरफ से होने वाले अत्याचार को अत्याचार माना ही नहीं जाता जब तक कि आरोपी सवर्ण ना हो. यह तो पूरी तरह से गलत, आतार्किक और असंवैधानिक स्थापना की ओर बढ़ना है.
जय भीम में हिंदी विरोध का भी एक गैर जरूरी प्रश्न नजर आता है जिसमें एक अफसर, व्यापारी को सिर्फ इसलिए थप्पड़ मार देता है क्योंकि वह हिंदी बोलते सुनाई देता है. क्या यही बात अफसर सीधे संवादों के जरिए कहने में सहज नहीं था. वह सहज था, पर भला इसमें तमिल राजनीति से संवेदना रखने वालों को "सडेस्टिक पेन" कहां मिलता जो थप्पड़ मारने वाले सीन में है. तमिलनाडु में हिंदी विरोध के बहाने लोगों को भड़काने का अपना इतिहास है. यह छिपी बात नहीं. उसी राज्य की दूसरी सच्चाई यह भी है कि 2001 के मुकाबले 2011 तक इकलौता राज्य है जहां देश में सबसे ज्यादा (107.61 प्रतिशत) हिंदी का विस्तार हुआ है. बावजूद एक आम तमिल अपनी मातृभाषा के साथ हिंदी में ज्यादा सहज है, मगर वहां अंग्रेजी की तुलना में हिंदी को परदेसी भाषा के रूप में ही प्रचारित किया जाएगा. क्या यह घृणा नहीं है.
सलेक्टिव होना ही सबसे बड़ा जातिवाद है
ऐसे एजेंडाग्रस्त सलेक्टिव अप्रोच को आखिर किस आधार पर और कब तक जायज माना जा सकता है? आखिर यह कौन सा मकसद या राजनीति है जो संदर्भों को बदलने, उन्हें तोड़-मरोड़कर निजी सुविधाओं के लिए परोशने और एक ही जैसे मामलों में अलग-अलग रुख लेते नजर आती है. यह समय तो सच बोलने का है. सूचना तकनीकी के प्रवाह वाले दौर में कोई व्यक्ति, संस्था या सरकार तथ्यों से चाहे जितना भटकाने का प्रयास करे- लेकिन लोग प्रयास करेंगे तो सच्चाई तक पहुंच ही जाएंगे. और वे निश्चित ही अपने हिस्से के सच तक पहुंच जाएंगे. भला अपनी कमियों पर बात करने में शर्म कैसी.
अगर शरीर में कोई जख्म है तो उसका इलाज करना जरूरी है ना कि उसे छिपाना. एजेंडा के तहत उसे छिपाने की कोई आवश्यकता नहीं. जख्मों को छिपाने पर वह शरीर को नष्ट करने के लिए पर्याप्त है. किसी भी तरह से घृणा का नाश करने के लिए जरूरी है कि सच्चाई को वैसे ही रखा जाए जिस अर्थ में वो है. नैतिक ईमानदारी अब वैश्विक जरूरत है. तमाम विविधताओं से भरे भारत जैसे देश के लिए तो यह और भी ज्यादा जरूरी बात है. क्योंकि...
दुनिया के ताकतवर देश फिराक में बैठे रहते हैं. जातीय धार्मिक घटनाओं का दस्तावेजीकरण करते हैं और इन्हीं के जरिए निजी हित में देशों को बदनाम करते हैं. जनमत बनाते हैं. ईराक, अफगानिस्तान, लीबिया और सीरिया जैसे देशों में तो यही सब किया गया. यह कम दिलचस्प बात नहीं कि कई इस्लामिक देशों को बर्बाद करने के बाद अमेरिका दुनिया को इस्लामोफ़ोबिया पर नया पाठ पढ़ाने निकला है. उसकी मदद सऊदी अरब और तमाम अंतराष्ट्रीय संस्थाएं कर रही हैं जिन्हें हमने स्वस्थ और लोकतांत्रिक संस्थाओं के रूप में स्वीकृति दी है. अरब जो अपने यहां तबलीगी जमात जैसे संगठनों को तो प्रतिबंधित करता है मगर पाकिस्तान की मस्जिदों और मदरसों को बेतहाशा फंड देता है. मकसद यह कि इस्लामिक रूढ़ीवाद फलता फूलता रहे.
कुछ इस तरह ही जैसे हमारे यहां कहावत प्रचलित है कि भारतीय बुद्धिजीवी- क्रांतिकारी पड़ोस में पैदा करना चाहते हैं अपने घर में नहीं. पाकिस्तान अरब से मिले संसाधन को भारत के खिलाफ भी इस्तेमाल करता है. अमेरिका की तमाम भद्र एजेंसियां धार्मिक और जातीय घृणा के नाम पर सर्टिफिकेट बांटती हैं. मासूम भारतीय मुस्लिम समाज तबलीगी जमात जैसे संगठनों को "अल्ला मियां की गाय" बताकर संवेदना हासिल करने की कोशिश करता है.
भारतीय समाज को तमाम उपनिवेशों के मकसद और उसके पीछे लगी शक्तियों को ध्यान में रखते हुए अपनी कमियों पर बहस करने की सख्त जरूरत है.
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