चार अलग-अलग लोगों के साथ सेक्स करना, धुत्त होकर शराब पीना, दिन-रात सिगरेट फूंकना और छूटते ही गाली देना, हो गया नारी-सशक्तिकरण. मिल गयी सभी तकलीफ़ों से आधी आबादी को आज़ादी. हो गये हम फर्स्ट-जेंडर. इक्वॉलिटी ये नहीं तो क्या है!
ये मेरी राय नहीं है. ये सो कॉल्ड लिबरल, फेमिनिस्ट और क्रांतिकारी ख्याल रखने वाले/वालियों को सोच है. चाहे बात सोशल-मीडिया पर हो रही हो या फिल्म और वेब-सिरीज़ में. नारी सशक्त इन तीन “S” यानी, सिगरेट-शराब-सेक्स से मिलकर हो जाती है.
बात चाहे 'वीरे दी वेडिंग' की हो या अभी-अभी Amazon prime पर शुरू हुए Four More shots please की हो. इन सब में यही दिखाने की कोशिश की गयी है कि अलग-अलग पार्ट्नर के साथ सेक्स आपको लिब्रेटेड महसूस करवाता है. मैं ये नहीं कहती कि ये करना गलत है. ये आपकी पसंद है आप एक साथ सम्बंध बनाएं या चार और बंदो के साथ. ये आपका निजी मसला है. लेकिन इसे महिला सशक्तिकरण से मत जोड़िए. ठीक वैसे ही शराब या सिगरेट पीकर, किसी को गाली देकर अगर आपको अच्छा लगता है, आपके तनाव का लेवल घटता है तो ज़रूर पीजिए, खुलकर गाली भी दीजिए. लेकिन इसे समाजिक-क्रांति से तो बिलकुल न जोड़िए.
अब आते हैं सो कोल्ड Women Centric सिरीज़ ‘Four more shots please’ पर. ये कहानी है उन चार औरतों की. जिनमें से एक वक़ील है, दूसरी एक बच्ची की मां है, तीसरी पत्रकार है और चौथी सेक्शूअली हाइपर ऐक्टिव होने के साथ-साथ अपनी आयडेंटिटी को डिफ़ॉइन करने की कोशिश कर रही है.
अब इनकी समस्याओं पर भी नज़र डालिए. जो एक बच्चे की मां है, उनकी समस्या यह है कि उनका पिछले चार सालों में कभी भी अपने पार्ट्नर के साथ शारीरिक-सम्बंध स्थापित नहीं हुआ...
चार अलग-अलग लोगों के साथ सेक्स करना, धुत्त होकर शराब पीना, दिन-रात सिगरेट फूंकना और छूटते ही गाली देना, हो गया नारी-सशक्तिकरण. मिल गयी सभी तकलीफ़ों से आधी आबादी को आज़ादी. हो गये हम फर्स्ट-जेंडर. इक्वॉलिटी ये नहीं तो क्या है!
ये मेरी राय नहीं है. ये सो कॉल्ड लिबरल, फेमिनिस्ट और क्रांतिकारी ख्याल रखने वाले/वालियों को सोच है. चाहे बात सोशल-मीडिया पर हो रही हो या फिल्म और वेब-सिरीज़ में. नारी सशक्त इन तीन “S” यानी, सिगरेट-शराब-सेक्स से मिलकर हो जाती है.
बात चाहे 'वीरे दी वेडिंग' की हो या अभी-अभी Amazon prime पर शुरू हुए Four More shots please की हो. इन सब में यही दिखाने की कोशिश की गयी है कि अलग-अलग पार्ट्नर के साथ सेक्स आपको लिब्रेटेड महसूस करवाता है. मैं ये नहीं कहती कि ये करना गलत है. ये आपकी पसंद है आप एक साथ सम्बंध बनाएं या चार और बंदो के साथ. ये आपका निजी मसला है. लेकिन इसे महिला सशक्तिकरण से मत जोड़िए. ठीक वैसे ही शराब या सिगरेट पीकर, किसी को गाली देकर अगर आपको अच्छा लगता है, आपके तनाव का लेवल घटता है तो ज़रूर पीजिए, खुलकर गाली भी दीजिए. लेकिन इसे समाजिक-क्रांति से तो बिलकुल न जोड़िए.
अब आते हैं सो कोल्ड Women Centric सिरीज़ ‘Four more shots please’ पर. ये कहानी है उन चार औरतों की. जिनमें से एक वक़ील है, दूसरी एक बच्ची की मां है, तीसरी पत्रकार है और चौथी सेक्शूअली हाइपर ऐक्टिव होने के साथ-साथ अपनी आयडेंटिटी को डिफ़ॉइन करने की कोशिश कर रही है.
अब इनकी समस्याओं पर भी नज़र डालिए. जो एक बच्चे की मां है, उनकी समस्या यह है कि उनका पिछले चार सालों में कभी भी अपने पार्ट्नर के साथ शारीरिक-सम्बंध स्थापित नहीं हुआ है. जो पत्रकार है वो ऑफ़िस की राजनीति की वजह से त्रस्त है. फिर तीसरा किरदार अपनी शारीरिक बनावट को लेकर खुश नहीं है और जो आखिरी किरदार है, वो बाई-सेक्शूअल है. इन चार प्रमुख किरदारों को निभाया है कीर्ति, सायनी गुप्ता, मानवी और बानी जे ने.
प्रमोशन के दौरान दिए इनके इंटरव्यू सुनकर देखिए- लगेगा कि पता नहीं क्या कारनामा किया है इन किरदारों ने. मगर फिर आप सीरीज़ देखेंगे तो समझ जाएंगे कि ये इक्स्टेंडेड वर्ज़न है वीरे दी वेडिंग का.
हो सकता है कि सच में ये बड़ी समस्या हो ऐसे किरदारों के लिए या हाई-सोसायटी में रहने वाली इन औरतों के लिए मगर ये नारी-सशक्तिकरण नहीं है. अभी भी देश की आधी से अधिक औरतों और लड़कियों को न तो ढंग से संतुलित भोजन मिल पाता है, न ही पीरियड के दिनों में पैड, और तो और बोर्ड या बारहवीं के बाद उनकी पढ़ाई तक पूरी नहीं हो पाती. ऐसे में क्या सशक्तिकरण सिर्फ इन्हीं चीज़ों से होगा?
क्या वो औरतें जो खेतों में काम करती हैं, लोगों के घरों में झाड़ू-पोछा करती हैं उनकी कोई समस्या नहीं होती. मगर उनके बारे में सोचकर या फ़िल्म-सीरीज़ बनाकर आप बेच नहीं पाएंगे न. ऊपर से इन दिनों भारत में जो वेब-सीरीज़ के नाम पर परोसा जा रहा है वो सिर्फ और सिर्फ भौंडी नकल है, नाइनटीज में बने हॉलीवुड सीरीज़ की. यहां तो ये लोग नकल भी सही से नहीं कर पा रहे हैं. अपने इन घटिया प्रयासों को सामाजिक-क्रांति से जोड़कर दर्शकों के सामने परोस रहे हैं.
फिर भारत में वेब-सिरीज़ देखने वाले दर्शकों का वर्ग भी लगभग नया ही है. उन्हें नहीं पता कि वेब-सीरीज़ के नाम पर जो गाली-सेक्स-शराब और गोली-बंदूक दिखा रहे हैं वो कोई क्रांति नहीं कर रहे. वैसे गलती उनकी भी नहीं है. उन्होंने तो टीवी पर जो घिसा-पीटा सीरियल देखा है, उससे अलग कुछ भी दिख रहा है तो उनके लिए यही आउट ऑफ़ द बॉक्स होगा.
हक़ीक़त यही है कि ऐसी सीरीज़ या फ़िल्में बनाकर निर्माता-निर्देशक पैसे जरूर बना लेंगे मगर उससे सामाजिक स्तर पर कोई बदलाव नहीं आने वाला. इन्हें देखकर न कोई स्त्री सशक्त होने वाली और न ही उनकी किसी समस्या का समाधान मिलने वाला. आप खाली मनोरंजन के लिए बना रहे हैं तो मनोरंजन ही नाम दीजिए. इसे ज़िंदगी की सच्चाई का नाम देकर मत परोसिए.
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